नाम : देवी प्रसाद
रंग : काला
कद : पाँच फुट पाँच इंच

इस भूमिका से कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि यहाँ किसी गुमशुदा आदमी की तलाश की जा रही है। नहीं यह व्यक्ति गायब नहीं हुआ है। यह इतना ज्यादा मौजूद है कि इसके होने ने विकराल समस्या पैदा कर दी है। अच्छा होता यह खो जाता। काश कि यह कहीं चला जाए तो मैं कुछ समय के लिए राहत पाऊँ! जिस तरह खोए आदमी को याद किया जाता है और किसी के पूछने पर उसकी पहचान उसके कद, रंग, नाम, उम्र से बताई जाती है, वैसे ही हम उस आदमी के बारे में जो हमारे सामने है, इस तरह से बात शायद तब करते हैं जब वह किसी कारण से चर्चा का विषय बन जाता है। यह व्यक्ति चर्चा का विषय हर जगह बना हुआ है। नहीं, हर जगह नहीं – सिर्फ परिवार के बीच। परिवार के बीच भी नहीं – मेरे अंदर, मेरे जेहन में।

इसका कारण वह सब कुछ है जो मैं आगे बताऊँगा। हो सकता है नहीं बता पाऊँ। हो सकता है बहुत कुछ आपको तलाशना पड़े। पर वह बात जिससे देवी प्रसाद की बात शुरू हुई थी वह यह है कि मैं उस आदमी से डरता हूँ। सच पूछें तो मैं एकदम नहीं डरता। डरने की क्या बात है। कब का ही इस पिद्दी-से आदमी को उठाकर पटक देता। वह अपने आप को बहुत समझता है। हर समय अपनी चलाता है। मैं अपने मन की नहीं कर पाता। वह मेरा क्या लगता है यह मैं आपको क्यों बताऊँ! वह मेरा कोई भी हो सकता है। वह मेरा जो भी है मेरे जीवन में घुन की तरह लग गया है। धीरे-धीरे में इसके गिरफ्त में आता जा रहा हूँ। सारे समय वही-वही आदमी दिखाई पड़ता है। मैं शादीशुदा बाल-बच्चे वाला आदमी हूँ पर मेरा मन मेरे बच्चों में न लग, उसके चुंगल में फँस गया है।

मेरे घर में मैंने अड़ियल लोग ही देखे हैं। गुस्सैल और जिद्दी। यह मनोविकार पुरुषों में अधिक है। कभी-कभी ये तत्व इतने बढ़ जाते हैं कि ये लोग पागलों-सी हरकत करने लगते हैं। हौआ भी ऐसा ही है। मैंने ही उसे यह नाम दिया है। वह हौआ ही है। मैं उसका गुलाम नहीं हूँ। मैं उसकी बात क्यों सुनूँ। उसकी आदत है हर चीज में टाँग अड़ाने की। हर बात में दखलन्दाजी करने की।

हमारा कपड़ों का व्यापार है। हम साड़ियाँ बेचते हैं। वह भी दुकान पर बैठता है। जब कोई ग्राहक आता है, वह चुपचाप बैठा रहता है। ग्राहक के जाने के बाद मुझे डाँटने-फटकारने लगता है। कहता है – तुमने यह साड़ी क्यों नहीं दिखाई, वह क्यों नहीं दिखलाई! नए माल के बारे में क्यों नहीं कहा, क्यों दाम कम कर दिए? छप्पन सौ साठ सवाल करता है और वह हर सवाल के बाद दो-तीन बार दुहराता है – क्यों, क्यों, क्यों? आखिर जवाब दो तुमने ऐसा क्यों किया? मैं चकरा जाता हूँ, झुँझला जाता हूँ, चिड़चिड़ा हो जाता हूँ और चिल्लाकर कहता हूँ – मेरा मन। मुझे जो समझ में आया मैंने किया। कहाँ, मैं कहाँ चिल्ला पाता हूँ। कुढ़कर दाँत भींचकर रह जाता हूँ। मन ही मन वह सारी गंदी गालियाँ उसे देता हूँ जो मुझे आती हैं। जब औरतें किसी से बहुत सताई जाती हैं तो कहती हैं, ‘सड़ सड़ के मरेगा’, ‘कीड़े पड़ेंगे’। वैसे ही मैं भी कहता हूँ वह सड़-सड़ के मरेगा, कीड़े पड़ेंगे उसके बदन पर। मैं असहाय हो जाता हूँ। गाली और बद्दुआ के सिवा कुछ नहीं कर पाता। वह आदमी दिलोदिमाग पर भूत-पिशाच की तरह मुझ पर हावी है। बड़ी-बड़ी आँखें गुस्से में खून में उबलती हैं। पक्का रंग दहक कर लाल हो जाता है और बड़े-बड़े दाँत, लगता है मुँह खोलकर वह मुझे अभी कच्चा चबा जाएगा। ऐसा डरावना चेहरा पर चाल एकदम ढीली। लगता है घुटनों में दर्द है, दाएँ पाँव को घसीटकर चलता है। मन तो होता है कि ऐसा धक्का दूँ कि सीधे नाले में गिरे और खत्म हो जाए। नहीं नहीं। भगवान जो भी करना पर उसे जीवित रखना। उसके मरने से जो समस्या खड़ी होगी वह उसके जिंदा होने से बड़ी है। आपको लग सकता है कि मैं डरपोक हूँ। मैं कायर हूँ जो उसके होने से आक्रांत है और न होने से भी घबराता है। आप जो भी सोचें मैं आपको समझा नहीं सकता। मैं आपको यह कैसे समझा पाऊँगा कि उसके बाद उसकी पत्नी एक समस्या बन जाएगी।

वह क्या करेगी? कैसे रहेगी? ऐसा नहीं है कि उनके बच्चे नहीं हुए। एक लड़का था पर पाँच वर्ष की आयु में सड़क दुर्घटना मैं चल बसा। वह बहुत रोती थी। वह बहुत दुखी थी। वह बहुत सुंदर थी। मैं उसे समझाता। मैं ढाँढ़स बँधाता। मैं उसे प्यार करता था। नहीं नहीं। ऐसा कुछ नहीं था। वह धीरे-धीरे सँभल गई। उस नाजुक घड़ी में हौआ ने अपनी पत्नी को सँभालने के बजाय डाँटना-फटकारना शुरू कर दिया। बच्चे की मृत्यु का दोष उस पर मढ़ दिया कि लड़के को अकेले नौकर के हवाले क्यों छोड़ दिया, लापरवाही ने बच्चे की जान ले ली। बस पूछिए मत घर में कैसा कुहराम मचा। कैसा रोना-धोना हुआ। कैसा अवसाद मन पर छा गया। ऐसा सन्नाटा खिंच गया कि सिर्फ देवी प्रसाद की क्रूरता ही बजती रही। उसकी पत्नी जैसे पूजाघर में ही रहने लगी। दिन-रात सुबह-शाम बस भगवान और हे भगवान। मैं हौआ की परवाह न कर उसे समझाता। उसे हिलाता, उसे छूता। मैं अविवाहित था। वह न खाती थी न पीती थी। मेरा खाना-पीना भी कम हो गया। पर वह, उसका पति, भूखा रहता ही नहीं था।

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अब देखिए पंद्रह वर्ष बाद हौआ ने खाना-पीना बहुत कम कर दिया है। मुझे तो भूख लगती है। आपको भी लगती होगी, सभी को लगती है। उसके सामने मैं खा नहीं सकता। पेशाब करने नहीं जा सकता। मैं आपसे पूछता हूँ मुझे बताइए कि क्या मैं गलत हूँ। क्या भूख लगना पाप है? इनसान को कितनी बार भूख लगती है? उसे कितनी बार भोजन चाहिए? चलिए हम सूची बनाते हैं –

नाश्ता : दो बार, सुबह और शाम

भोजन : दो बार, दिन और रात

चाय : दो बार, सुबह और शाम

शरबत, लस्सी, शिकंजी, दूध मन के अनुसार, एक बार दो बार, कई बार या नहीं भी। फल : चाहे तो एक बार या नहीं भी।

मैं संपन्न घर का आदमी हूँ। इतना भोजन तो मुझे चाहिए ही। पर यह सब छूट गया। दो बार एक बार में बदल गया और एक बार भी कभी होता है कभी नहीं। ऐसा नहीं है कि मेरे पास भोजन नहीं रहता। मेरी पत्नी अच्छी गृहिणी है। वह खूब अच्छा टिफिन तैयार कर मुझे दुकान ले जाने के लिए देती है। घर पर जब भी रहता हूँ खूब अच्छे से परोसती है पर मैं नहीं खाता। मैं खा नहीं पाता। मैं क्या करूँ, मुझसे खाया ही नहीं जाता। किसी तरह आधी रोटी चबाता हूँ, निगलता हूँ फिर थाली सरका देता हूँ। मुझे हौआ के हाथ नजर आते हैं। लगता है वह मुँह से निवाला निकाल रहा है। मुझे डर लगने लगता है। मुझे पाखाना आने लगता है। मुझे बार-बार जाना पड़ता है। पतली टट्टी शुरू हो जाती है। सिर घुमने लगता है। सिर छूता हूँ, देखता हूँ जल रहा है। मैं कमजोरी महसूस करने लगता हूँ। मैं गद्दी पर धम्म से गिर जाता हूँ। मेरी आँखें लग जाती हैं। नींद में मुझे अँधेरा, नीम अँधेरा दिखाई देता है। मुझे लगता है मैं बहुत ऊपर से नीचे गिरा हूँ। मैं हड़बड़ा कर झट से उठ बैठता हूँ। फिर मुझे नींद नहीं आती। मैं सोने की कोशिश नहीं करता। मैं दुकान के लिए निकल पड़ता हूँ। वह सारे जवाब सोचने लगता हूँ जो हौआ को उसके सवालों पर देने होंगे। मुझे पता है जब मैं दुकान जाऊँगा, देखूँगा वह राम मोहन खेतान से गप्प मार रहा होगा।

वह उसे बता रहा होगा कि सन उन्नीस सौ पचहत्तर में जब वह हैदराबाद गया था कितना खर्च हुआ था। वह बताएगा कि कुछ दिन पहले उसने अपना खून क्यों जाँच करवाया और किस तरह डॉक्टर के झाँसे में आकर कई तरह के जाँचों के पैकेज में पड़ गया। वह बताएगा कि शहर में इस इलाके में कौन से पाँच बड़े उद्योगपति हैं और उसकी किससे कैसी दोस्ती है। वह बताएगा कि एक बार जब उसने बिहार की यात्रा की थी कैसे बिना टिकट चढ़ गया था और टिकट चेकर को कुछ पैसे पकड़ा कर मुक्ति पाई। वह बहुत बड़ा गप्पी है जो मैं नहीं हूँ। उसकी उठ-बैठ कई तरह के लोगों के बीच रही है। वह कई बातें जानता है। मैं उसके सामने टिक नहीं पाता। जो उससे भी तेज पड़ते हैं वे उसके मुँह नहीं लगते। उसका बात-बात में दाँत पीसना, मुँह चिढ़ाना, त्यौरियाँ दिखलाना लोगों को रोस नहीं आता। सब उससे थोड़ी देर बात करके उठ जाते हैं। मैं ही हूँ जो उसके पास से उठ नहीं पाता। अकेला रह जाता हूँ उसके साथ, उसके पास। उसकी गप्प सुनने, उसकी भाषा सुनने।

उसके नाना ने किसी जमाने में बहुत पैसा कमाया था। वह जूट की दलाली करते थे। अँग्रेज जब यहाँ से गए तो टी गार्डन का उन्हें मालिक बना गए। पैसा बढ़ने लगा। खूब पैसा आया। मान, रुतबा, पैसा इतना हुआ कि शहर के गिने-चुने रईसों में नाम आने लगा। वह उनके यहाँ ही पड़ा रहता। पैसे वालों के बीच उठना बैठना हुआ। उनका असर आ गया। यह क्या अचानक हवा कैसे चलने लगी? कई दिनों से प्रचंड गर्मी थी। मई का कलकत्ता का महीना। आज तापमान बयालीस डिग्री था। देश की सरकार बदल गई है। पर मेरा जीवन! मेरा जीवन वहीं का वहीं है। हौआ के ईद-गिर्द घूमता। यह ठंडी हवा यह क्यों चल रही है? यह मुझे अच्छी लग रही है। अच्छा लगना मैं भूल चुका हूँ। मुझे कभी कुछ अच्छा भी लग सकता है! मैं हल्का हो रहा हूँ। एक बात कहता हूँ – वह आदमी कभी-कभी ठीक भी रहता है, गाना गाता है, खुश रहता है, अपनी पत्नी से चाव से बातें करता है।

अरे! ओले पड़ रहे हैं! कितने-कितने दिन बाद मैंने ओलों का बरसना देखा है। कहते हैं ओले को शरीर पर रगड़ लें तो फोड़ा-फुंसी नहीं होती। ओले का पानी खूब असर करता है। अहा कितनी ठंडा हवा है। रोम-रोम पुलकित हो गया। लग रहा है मैं उड़ रहा हूँ। उस दिन भी ठंडी हवा चल रही थी। वह रो रही थी। बहुत रो रही थी। मैं उसके पास गया, बोला – जीवन बहुत सुंदर है, उसे इस तरह मत गँवाइए। मैं किसी फिल्मी नायक की तरह बोल रहा था। वह मुझे देखने लगी। उसके चेहरे पर अवसाद था। हौआ ने उसके जीवन को किस तरह खौफनाक बना दिया था। पर यह खौफ और डर हमें रोक न सका। हम एक साथ बहुत दूर निकल गए। वर्षों तक। मैं बौराया-सा उसे ढूँढ़ता फिरता। हे भगवान, वह सब क्या था? क्या था? क्यों हुआ? मैं क्या कर बैठा! मैं पुराने विचारों वाला नवयुवक हूँ।

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मैं कुछ बातों को उचित, कुछ को अनुचित मानता हूँ। मैं मानता हूँ कुछ चीजें गलत हैं। मुझसे पाप हो गया। मुझे कौन माफ करेगा? किसके सामने स्वीकार करूँ? नहीं नहीं, मैं यह सब भूलना चाहता हूँ। जीवन की एक नई शुरुआत करना चाहता हूँ। कैसे करूँ? मुझे डर लगता है। मुझे हर समय डर लगता है। लगता है मैं कमीना हूँ। यह आदमी मुझे मार डालेगा। यह मुझे मार क्यों नहीं देता? रात में चुपचाप मेरी हत्या कर दे। उसकी पुरानी आदत है। बचपन से ही वह रात को जगता है। दिन में देर तक सोता रहता है। धीरे-धीरे उसे भूख लगने लगती है और वह चरना शुरू करता है और देर रात तक चरता रहता है। उसकी पत्नी उसके लिए खाना रख देती है। फल और चाकू रख देती है। डिब्बे में नाश्ता रख देती है। इसलिए ही तो वह सुबह और दिन में कुछ नहीं खाता। रात में कभी अखबार पढ़ता है तो कभी टेलीविजन देखता रहता है। यह घर जिसमें यह रहता है उसके नाम पर है। मैं सामने वाले कमरे में रहता हूँ। वह दुकान जहाँ हम दोनों बैठते उसने अपने नाम करवा ली। मैं ठन-ठन गोपाल हूँ। हे भगवान, क्या मैं उसका मोहताज हूँ?

मैं दूसरा काम करना चाहता हूँ। मैं दूसरा काम खोज रहा हूँ। मैंने नया काम शुरू किया। मैंने कई काम शुरू किए। सारे पैसे डूब गए। नया व्यवसाय बैठा नहीं पाया हूँ। शहर में कोई नहीं जो मेरा हाथ पकड़े। मेरा रास्ता बैठा दे। मुझे कोई नया व्यवसाय करवा दे। मेरी उम्र ही क्या है पैंतीस वर्ष। मेरी कुंडली में राजयोग है। ऐसा कई पंडितों ने कहा है। मुझे यह बात सुनकर हँसी आती है। रोना आता है अपनी किस्मत पर। गुलामी कर रहा हूँ और लिखा है राजयोग। ऊँह, मैं क्या करूँ? दुकान का सारा काम मैं ही करता हूँ। साड़ियों को खोलना, समेटना, रखना जैसे मजदूर होऊँ। कागजों का काम मैं ही देखता हूँ जैसे क्लर्क होऊँ। वह कुछ नहीं करता, बस बैठा-बैठा दुकान के अन्य कर्मचारी से एक-एक रुपये का हिसाब लेता रहता है। वह अपने शरीर में सिर्फ मुँह है। अंतिम बार मंजन उसने कब किया होगा उसे भी याद नहीं होगा। शायद पंद्रह वर्ष पहले या बीस वर्ष। नहाता रात को है। दाढ़ी बनाता ही नहीं है। महीने दो महीने में नाई से ही हजामत करवाता है। न जाने रात में कैसे सोता है, पायजामा पहने हुए या नंगा।

उसके कुछ दोस्त हैं। कोई भी उसकी तरह का नहीं है। सभी साफ-सुथरे हैं, व्यवस्थित। समय से खाना, नहाना, ठीक से बात करना। नहीं-नहीं, बात तो उसी की तरह करते हैं। गाली देते हुए। दूसरों को साला और हरामी कहते हुए। सभी दोस्त बहुत तेज हैं। किसी भी आदमी को तुरंत ऊपर से नीचे तौल लेते हैं। वे सभी हमेशा इसकी-उसकी-सबकी हैसियत की बात करते हैं। सबको नए व्यवसाय की जानकारी देते हैं। पर ये सभी वहीं के वहीं हैं।

हौआ मुझसे कोई जानकारी नहीं लेता, जबकि मैंने धीरे-धीरे कई व्यवसाय की पोल समझ रखी है। न जाने क्यों वह मुझसे कुछ नहीं पूछता। वह जानता है कि मैं उसे टेढ़ेपन से जवाब दूँगा। पर मैं गोलमोल जवाब नहीं देता। सही-सही कहता हूँ। मेरी आवाज में तेजी और अशिष्टता इसलिए आ जाती है, क्योंकि वह बहरे की तरह करता है। हर बात को तीन बार चार बार बुलवाता है। मैं कुछ भी कहता हूँ वह कहेगा आँ? यानी एक बार और बोलो। इस तरह एक ही बात को कई बार दुहराकर मैं झुँझला जाता हूँ। उस झक्की को सहन नहीं कर पाता।

यह सब कब तक चलेगा? आखिर कब तक? यहाँ किसी की तानाशाही लंबे समय तक नहीं चली है। उसकी कब तक चलेगी उसके साथ रहकर, उसके पास रहकर, उसकी बात कर मैं इतनी दूर निकल आया हूँ कि मेरे कुछ दोस्त किसी जमाने में हुआ करते थे, आजकल कहाँ हैं मुझे पता नहीं। सच तो यह है मुझे पता है कौन कहाँ है, पर मैं उनसे मिलना नहीं चाहता, संपर्क बनाना, बढ़ाना नहीं चाहता। सभी अपने-अपने धंधे में जमे हुए हैं। आगे बढ़ रहे हैं। आपको बताता हूँ कौन कहाँ पर है और क्या कर रहा है। सूची बनाते हैं। दुकान पर बैठने के बाद से मैं हर बात सूची में ही करता हूँ –

नाम : राजाराम
काम : सोने का व्यापारी
निवास : कानपुर
नाम : राकेश
काम : कपड़ों का दुकान
निवास : सूरत
नाम : प्रदीप
काम : कार्टन बनाने का कारखाना
निवास : हैदराबाद
नाम : मोहन
काम : बिड़लों के यहाँ नौकरी
निवास : कलकत्ता

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ये सभी दोस्त आपस में मिलते हैं तब जब एक दूसरे के शहर में जाते हैं। गप्प मारते हैं। इधर-उधर की बातें कर हँसी-मजाक करते हैं। पर मैं नहीं मिलता। कोई न कोई बहाना बना देता हूँ। मैं सिर्फ अपने से बात करता हूँ। मेरी पत्नी कहती है कि आजकल मैं अकेले में बड़बड़ाता रहता हूँ। कभी दीवार को देखकर बातें करता हूँ तो कभी खिड़की की तरफ हाथ ऊपर-नीचे करके। मेरे दोस्त आपस में धंधे की चर्चा करते है। वे कहते हैं आजकल बाजार में तेजी है। मैं कहता हूँ हौआ ने मुझसे तेजी से बात की। वे कहते हैं धंधा जब शुरू किया तब पाकेट में पचास रुपये भी नहीं थे। मैं कहता हूँ क्या शुरू क्या अंत। जब से पढ़ाई छोड़ दुकान में घुसा हाथ तब भी कसा हुआ आज भी कसा हुआ है। मेरी शादी में इतना खर्च हुआ पर मेरे हाथ में नकद कुछ नहीं आया। सारा पैसा देने-लेने में इधर-उधर में उसने लगा दिया। यहाँ तक कि मुझे उतने पैसे भी नहीं दिए जिससे मैं अपनी पत्नी के साथ हनीमून जा सकूँ। मैंने जो पैसे जमा कर रखे थे उसी से दार्जिलिंग गया। सारी बागडोर तो उसके हाथ में थी। मेरी पत्नी के यहाँ से जो भी नगद रुपये आए उससे ही पत्नी के जेवर बने। मुझे वह पैसे क्या देता उलटे यही कहता रहा कि उसने मेरे ऊपर कितना खर्च किया। कमरे का फर्नीचर बनवाने में, लड़की को कपड़े देने में, परिवार वालों की आवभगत में। मेरे दोस्त कुछ बात करते हैं, मैं कुछ का कुछ सुनता हूँ। वे भी सिलसिलेवार बात करते हैं और मैं भी कुछ बोलता हूँ तो कभी कुछ। मेरे आगे-पीछे सिर्फ वह घूमता है। मेरा कहीं भी मन नहीं लगता। मैं यहाँ इस शहर में रहना नहीं चाहता। मैं अपनी पत्नी को लेकर चला जाऊँगा।

ओह! कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला। रात भर मैं इन्हीं बातों में डूबा रहा। मेरी पत्नी का ऑपरेशन हुआ है। बच्चादानी में गाँठ हो गई थी। भारी खर्च हो रहा है उस पर। वह पैसे दे रहा है। हिसाब माँगता है साथ ही यह भी कहता है इलाज अच्छा करवाना। मुझे अब किसी चीज का व्यसन नहीं। मेरे ऊपर सिगरेट, पान मसाला, पान, शराब किसी चीज का कोई खर्च नहीं होता। अब मेरे शौक मर गए। किसी जमाने में मुझे फिल्म देखना, घूमना, अच्छा लगता था। यह सब वह जानता है। वह जानता है मैं वर्षों से घर से दुकान जाता हूँ और दुकान से घर। पर अब यह सब नहीं चलेगा। मुझे कुछ करना होगा। जीवन तो बदलना ही होगा। इसलिए मैं यह पत्र देवी प्रसाद बाबू को लिख रहा हूँ –

आदरणीय भइया
सादर प्रणाम।

पिताजी के गुजरे कई वर्ष हो गए। उनकी मृत्यु के बाद आपने मुझे अपनी जिम्मेदारी, मेरा विवाह एक अच्छी लड़की से किया। पिता जब तक रहे मेरे व्यसनों से दुखी रहे। मेरी संगति, मेरे दोस्त बुरे नहीं थे। पर मामाजी के लड़के ने मेरा सर्वनाश कर दिया। पंद्रह वर्ष तक मैं उनके साथ रहा। उन्होंने मुझे कोई भी अच्छी बात नहीं बताई। आपको पता है वह अपने घर में ही पैसों का गोलमाल करते थे। आपको यह भी पता हैं उनके कब कहाँ किस स्त्री से संबंध रहे। मैं क्या अछूता रह सकता था। जिस दिन मेरा विवाह हुआ मैंने उनसे किनारा कर लिया। मेरी पत्नी सुंदर, सुशील, समझदार लड़की है। मैं उसे धोखा देना नहीं चाहता। मैंने सब कुछ छोड़ दिया और आपकी बात सुनने लगा। पर आपने मुझसे बहुत कड़ा व्यवहार किया। अब मैं और सहन नहीं कर सकता। इसलिए मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ। तब तक नहीं लौटूँगा जब तक कोई दूसरा काम न बैठा लूँ। मैं कहाँ जाऊँगा मुझे नहीं मालूम। कहाँ रहूँगा, क्या खाऊँगा पता नहीं। घर तब तक लौटूँगा जब स्वतंत्र रूप से कोई व्यवसाय या कोई नौकरी न कर लूँ। मेरे पीछे से मेरी पत्नी और मेरे बच्चों का भार आप वहन करेंगे और उन्हें ढाँढ़स बँधाएँगे।

आपका छोटा भाई,

कमलकांत।

नहीं-नहीं, यह पत्र ठीक नहीं, यह मैं उन्हें नहीं दे सकता। दौरा पड़ा है मुझे तभी तो अंड-बंड बके, सोचे जा रहा हूँ। मैं जानता हूँ आप मेरी बात सुनते-सुनते तंग आ गए होंगे। पहले आपके मन में मेरे लिए सहानुभूति हुई होगी फिर करुणा ने जन्म लिया होगा, दया भी कुछ लोग दिखा सकते हैं और बार-बार यही सोच रहे होगे कि मैं कुछ करता क्यों नहीं और कुछ नहीं तो कम से कम यही कदम क्यों नहीं उठाता, जो पत्र लिखा है वह भाई को देकर घर छोड़कर चला जाऊँ। नहीं-नहीं, मैं घर छोड़कर नहीं जा सकता। क्यों नहीं जा सकता यह मैं समझा नहीं सकता। इसके लिए एक और कहानी लिखनी होगी। आप वह कहानी भी पढ़ना चाह रहे होंगे। यह सब तो बाद की बात है पर अभी मैं क्या करूँ? आप यही कहेंगे जो समझ में आए, उचित लगे वह करो।

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