इसी शहर में
इसी शहर में

इसी शहर में ललमनिया भी
रहती है बाबू
आग बचाने खातिर कोयला
चुनती है बाबू।

पेट नहीं भर सका
रोज के रोज दिहाड़ी से
सोचे मन चढ़कर गिर
जाए ऊँच पहाड़ी से।
लोग कहेंगे क्या यह भी तो
गुनती है बाबू।

चकाचौंध बिजलियों की
जब बढ़ती है रातों में
खाली देह जला
करती है मन की बातों में
रोज तमाशा देख आँख से
सुनती है बाबू।

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भागी उसकी भाभी घर से
पहली बार लगा कि
टूट जाएगी वह जड़ से
बिना कलम के खुद की जिनगी
लिखती है बाबू।

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