हँसी | प्रदीप त्रिपाठी
हँसी | प्रदीप त्रिपाठी

हँसी | प्रदीप त्रिपाठी

हँसी | प्रदीप त्रिपाठी

एक ऐसी बेवक्त की हँसी
जो तुम्हारे न होने की खुशी थी
सिर्फ आशावादी…
मन के किसी एक छोर से होकर
गुजर गई
उसका इस तरह से गुजरना
मन की कुंठा के साथ-साथ
कविता में कहने की आदत का छूटने जैसा था
ठीक उसी तरह
जैसे अपरिचित चेहरे को
बार-बार, कई बार देखने पर
लगता हो
इसको मैंने कहीं देखा है
शायद
इसी कारण
हँसी
बेवक्त फूट पड़ी थी

Leave a comment

Leave a Reply