धरती पर भगवान | अशोक कुमार
धरती पर भगवान | अशोक कुमार

धरती पर भगवान | अशोक कुमार – Dharti Par Bhagwan

धरती पर भगवान | अशोक कुमार

– “प्राइस की बात तो ठीक है लेकिन रिबेट देने में तू फिसड्डी है देसाई…”

– “डॉक्टर भाटिया! …आप भी न…”

शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी थी। रात के दस बज रहे थे। बीच समंदर में चाँदी सी चमकती लहरों की मार से हिचकोले खाती ‘यॉट’ किसी तरह एक जगह थमी थी जिसमें इधर उधर आलीशान गद्देदार सोफों के किनारे मद्धम जलते एक एक पेडस्टल लैंपों की रोशनी थी। हल्का हल्का विवाल्डी संगीत था। संगीत न होता तो, शांति इतनी थी कि, सिर्फ जरा जरा उठती गिरती लहरों की आवाजें ही सुनाई देतीं। बीच बीच में कभी कभी समंदर की कोई जागती चिड़िया चीख कर खलल पैदा कर देती थी, बस! बंबई में जनवरी की हवा की निहायत खुशगवार खुनकी थी। डॉक्टर भाटिया अरब सागर में अपनी यॉट में एक नवोदित फिल्म तारिका के साथ वीकेंड मना रहे थे। साथ में आया था अमित देसाई। लड़की अपना सोशल सर्किल बढ़ने में लगी थी और देसाई अपना धंधा। दोनों आदमियों का काम एक दूसरे से जुड़ा था। दोनों काम के सिलसिले में ही मिले थे और फिर दोस्त बन गए। डॉक्टर भाटिया वो ऑर्थोपेडिक सर्जन थे जो घिस गए कमजोर घुटनों या कूल्हों इत्यादि के बदलने के लिए नामी थे और अमित देसाई उन आर्टिफिशियल घुटनों, कूल्हों, कंधों या ऐसे ही दूसरे इंप्लांट बनाने वाली एक अमरीकन कंपनी का रीजनल मैनेजर था।

– “कितना रिबेट चाहिए आपको? ३०% कम है क्या? …जॉनसन से पूछ लो, किसी और कंपनी से पूछ लो वो २५% के ऊपर दे दें तो मैं अपनी मूँछ काट दूँ!”

– ” योर मूँछ इन एनी केस इज सो स्मॉल! …हैं हैं हैं हैं…”

नई नवेली अठारह साल की जवान फिल्म तारिका ने अपनी हवा से उघड़ती हुई मिनी स्कर्ट को सँभाला और अपना गिलास खाली करते हुए दूसरी तरफ से चहकी। अमित देसाई ने उधर ध्यान नहीं दिया। डॉ भाटिया ने एक उचटी निगाह से लड़की की तरफ देखा फिर फिक्क से मुस्कुरा कर उसे बाँहें फैला कर अपने पास घसीट लिया। तारिका छुई मुई सी डॉ. भाटिया के आगोश में खुद सिमट गई।

– “देखो साब रिबेट की बात तो करो मत… रिबेट तो मैं आपको अच्छा दिलवा ही रहा हूँ… ये सोचो कि प्रैक्टिस कैसे बढ़े… प्रैक्टिस बढ़ेगी तो इंप्लांट भी ज्यादा खरीदोगे… और फीस भी ज्यादा आएगी। तब एक यॉट और आ जाएगी और इस टैलेंटेड एक्ट्रेस के लिए फिल्म भी फाइनेंस हो जाएगी।”

– “यॉट तो एक और नहीं चाहिए मुझे… अब तो सिर्फ” डॉ. भाटिया ने सिने तारिका के गालों को हल्के से चूम कर कहा, “इस खूबसूरत बला के लिए पिक्चर बनवानी है… साउथ के डायरेक्टर तेजा से मैंने बात भी कर ली है… वो तैयार है।”

– “तेजा…!” लड़की डॉक्टर की गिरफ्त से निकल कर जैसे उछल गई, “ओह माई गॉड! …तेजा! …आई लव हिम!”

डॉक्टर ने लड़की के उछलने पर ध्यान नहीं दिया। देसाई ने नजर लड़की की तरफ करके अपने गिलास से चुस्की ली और दो तीन नमकीन पिस्ते फाँक लिए। लड़की – ईरा मुंशी – ने अपने छोटे बालों की लटें आँखों पर से हटा कर सर को अदा से झटका दिया और आसमान में चाँद देख कर अपने हाथों के अँगूठों को आपस में मूक प्रार्थना में जोड़ा- जिसे किसी ने देखा नहीं। ऊपर वाले ने ईरा की प्रार्थना सुनी कि नहीं ये कौन जाने!

ईरा फिल्मों के लिए नई नहीं थी। सिर्फ एक्टिंग उसने अभी शुरू की थी। वह फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर हरि देव मुंशी की इकलौती लड़की थी। हरि देव मुंशी अपने समय के बहुत कामयाब डिस्ट्रीब्यूटर रहे – ‘हिट’ होने वाली फिल्म पहचानते थे। पिछले दिनों की सबसे बड़ी स्टार शैला देवी की तकरीबन सभी फिल्में इन्होंने ही डिस्ट्रीब्यूट कीं। शायद इसीलिए शैला देवी ने इनकी मुहब्बत पर कुर्बान होकर और अपनी ढलती जवानी के चलते इनसे शादी रचा ली। किस्से हालाँकि शैला के और उस समय के हीरो देव कपूर के मशहूर थे लेकिन जब तक बात शादी तक पहुँचती शैला की उम्र होने लगी थी और उसकी फिल्में पिटने लगी थीं। हरि देव से शादी के बाद ईरा जब पैदा हुई तो चर्चे यहाँ तक हुए कि हरि देव मुंशी का तो बस नाम ही नाम है, औलाद तो ये लड़की देव कपूर की ही है! बहरहाल… वक्त गुजरा और वक्त ने पलटा खाया… और मुंशी साहेब ने एक बड़े बजट की फिल्म क्या उठाई – पूरी तरह सड़क पर आ गए। लेकिन तब तक शैला से उनकी इकलौती औलाद – ईरा – जवान हो चुकी थी और क्योंकि ये खानदान फिल्मों के सिवाय और कुछ जानता नहीं था इसलिए इन्होंने ईरा को हीरोइन और एक नए लड़के को हीरो ले कर प्रोडक्शन शुरू कर दिया।

फिल्म का शोर चारों तरफ था और ईरा रातों रात शोहरत चूमने लगी थी। ईरा जवान थी, तीखे नैन नक्श की बहुत कँटीली लड़की थी। जरा सी साँवली भले ही थी लेकिन उस साँवलेपन में भी एक अजब नमकीनियत और आकर्षण था। जिस अदा से चितवन टेढ़ी करके वह मुस्कुराती थी वो अच्छे अच्छों को दीवाना कर देता था। ‘फिक्की’ के एक प्रोग्राम में बतौर नवोदित कलाकार उसे आमंत्रित किया गया था और वहीं तमाम बड़े बड़े लोग उसके मुरीद हो गए थे। उन मुरीदों में एक डॉ. भाटिया भी थे।

डॉ. भाटिया बंबई के ही नहीं बल्कि देश भर के एक कामयाब ऑर्थोपेडिक सर्जन थे। पैसा उन्होंने बेशुमार कमाया था – जिसे वे शेयरों में… प्रॉपर्टी में… और कुछ कुछ फिल्मों में लगाते थे। यही वजह थी कि फिल्मी सितारे भी इनसे मेल जोल बढ़ाते थे। इस शनिवार ईरा डॉ. भाटिया की प्राइवेट यॉट पर डिनर के लिए इन्वाइटेड थी।

– “आपकी फिल्म का जोरों से इंतजार हो रहा है!” देसाई ने ईरा की तरफ देख कर जैसे बे-मतलब सा कहा।

– “बस, नेक्स्ट मंथ आ रही है!” ईरा गदगद होते हुए खिलखिलाई ।

– “तुम्हारे पास हर मर्ज की दवा है… हर एक के लिए सलाह है… मुझे कोई ढंग की सलाह दो।” डॉ. भाटिया ने जैसे कुछ सोचते हुए आँखें मिचमिचा कर देसाई की तरफ देख कर कहा।

– “सलाह? …पिक्चर बनाने की?”

डॉक्टर की नजर देसाई कि तरफ तुर्श हो गई।

– ‘ओह… प्रैक्टिस बढ़ने की…” देसाई ने मजा लेते हुए कहा। फिर बोला, “देखो जी, नाम तो आप हैगा। पेशेंट्स तो आपके पास आते हैंगे …अब और प्रैक्टिस बढ़ाने का तो एक ही रास्ता हैगा – और वो है मीडिया हाइप! जहाँ दो चार धाँसू न्यूज बनीं, आप टी.वी. पे दिखे, दो चार सेलिब्रिटी ने आपका नाम लिया बस पब्लिक आपके पास ऑपरेशन के लिए टूट पड़ेगी। तब फीस भी बढ़ा देना! हं हं हं हं…”

– “डॉ. शर्मा… वो तेरा हार्ट स्पेशलिस्ट… उसने कौन सा मीडिया हाइप कर रखा है… उसकी प्रैक्टिस देख…”

– “शर्मा की बात छोड़ो साब …उसका स्टाइल बहुत अलग हैगा …एक तो वो किसी को घास नहीं डालता, सीधे मुँह बात नहीं करता, बात करो तो जवाब नहीं देता… जैसे लोगों का सीना चीर के ऑपरेशन करता है वैसे ही उनका सीना चीर के फीस लेता है… फिर उसको हॉस्पिटल वाले सबसे ज्यादा कमीशन देते हैं… देखा नहीं किस तरह वो अंजिओप्लास्टी को हार्ट ऑपेरशन में तब्दील कर देता है…”

– हाँ! और साला पेशेंट भी कुछ नहीं कह पाता!”

– “कहेगा क्या …ऑपरेशन के बीच में थिएटर से निकल कर जिस तरह वो परिवार वालों से कहता है ‘हार्ट ऑपरेशन जरूरी है… नहीं तो पेशेंट मर जाएगा’ तो पेशेंट का बाप भी बोलेगा कि सर जो ठीक समझिए कीजिए!”

– “शर्मा भी क्या करेगा यार… यह हॉस्पिटल साले धंधे वालों ने खोल रखे हैं। उन्हें हर महीने फिक्स्ड रकम चाहिए… डॉक्टर उसी में मारा जाता है… इसीलिए पचास टेस्ट करवाओ, ऑपरेशन के बाद जल्दी जल्दी बेड खाली करो… एनी वे… वो सब तो तुम भी जानते हो… लेकिन तुम्हारी ये मीडिया हाइप वाली बात समझ में आती है… बात तो ठीक है… पर ये हो कैसे… मीडिया के पास तो मैं जा नहीं सकता न!”

– “आपको मीडिया के पास जाने को कौन कहता है… ऐसा कुछ करो कि मीडिया वाले साले खुद चल के आपके पास आवें!”

– “वो कैसे होगा?”

– “वो कैसे होगा…!?” देसाई ने डॉक्टर के शब्दों को प्रतिध्वनि की तरह दोहराया, दो मिनट आसमान की ओर देख कर सोचा। इतनी देर में भाटिया ने उसके खाली गिलास में वोडका, बिटर्स, सोडा और बर्फ के टुकड़े डाल दिए।

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– “एक काम करो जी…” देसाई ने लंबी साँस ले कर ताजा भरे गए गिलास से बड़ा सा घूँट लिया, “गिनिस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में किसी तरह नाम करा लो… दुनिया भर के लोग आएँगे इलाज करवाने।”

डॉक्टर भाटिया जो अब तक दीवान पर अधलेटे थे अब पाँव नीचे करके उठकर सीधे बैठ गए। लड़की को उन्होंने एक किनारे कर दिया और बड़े जतन से देसाई की बात भवें तानकर आँखें गड़ा कर सुनने लगे। जब देसाई बड़ी देर तक और कुछ नहीं बोला तो उन्होंने पूछा, “वो कैसे होगा?”

– “एक बात बताओ…” बड़ी देर बाद देसाई ने पूछा।

– “क्या?”

– “एक दिन में कितने ऑपरेशन करते होंगे आप?”

– “पाँच कभी छः।”

– “दस कर सकते हो ?”

– “दस बहुत है… इतना कैसे…”

– “कैसे वैसे भूल जाओ… कर सकते हो क्या?”

– “अरे लेकिन इतने ऑपरेशन एक दिन में! …इतने तो दिन में घंटे नहीं होते यार!”

– “आप डॉक्टर हो… सेल्स या मार्केटिंग वाले नहीं हो इसलिए ये सब नहीं समझोगे… एक तो रखो जूनियर्स की टीम। ऑपरेशन शुरू करो खुद और बाकी काम उनको करने दो… सुपरवाइज करते रहो… और दूसरी बात जिसका एक घुटना करते हो उसी पेशेंट के साले के दोनों कर दो तो एक साथ में दो ऑपरेशन हुए कि नहीं? …इस तरह ऑपरेट करोगे पाँच पेशेंट्स, ऑपरेशन होंगे दस! …है कि नई…!”

– “ब्रिलियंट!” डॉ. ने देसाई की हथेली पर ताली बजाई।

इतने में भाटिया का फोन बजा।

– “हाँ डॉ. मेहरा! बोलिए…। आप यार रिकॉर्ड तो रखते नई हो आजकल …नई नई… आपने जितने केसेस मेरे पास भेजे थे उन सबका चैक आपको भेजा जा चुका है… व्हाट डू यू मीन कम है? …देख यार मेहरा दस हजार पर पेशेंट के हिसाब से दस पेशेंट्स का एक लाख हुआ…। तो तो? …मैं एक केस का ढाई लाख लेता हूँ तो? …उसमें तुम्हारी क्यों सुलगती है? वो सारा पैसा क्या मेरी जेब में जाता है? अस्पताल है, इंप्लांट्स हैं, स्टाफ है वो सब दिखता नई तुमको? …महँगाई बढ़ गई है? पंद्रह हजार पर केस दूँ तुमको? …देख मेहरा… मैं अभी बाहर हूँ, मंडे को बात करते हैं…ओ के!” भाटिया ने फोन कट करते हुए एक भद्दी सी गाली दी और अपने गिलास में बची वोदका एक साथ पूरी डकार ली – गुस्से में!

– “मूड खराब हो गया ?!”

– “साला मेहरा! जनरल प्रैक्टिशनर है …मुलुंड चैक नाके पर जब टपरिया में बैठ कर स्ट्रगल करता था तब किसने सपोर्ट किया – मैंने! …वहाँ से उठा के वडाला फाइव गार्डन के पास प्रैक्टिस किसने डलवाई – मैंने!”

– “जानता हूँ मेहरा को…” देसाई ने बीच मैं कहा, “वो ही न जिसके बाप ने उसे जायदाद से बेदखल कर दिया था और इसीलिए वो एडमिशन मिलने के बाद भी एम.डी. नहीं कर पाया था!”

– “साला आपने नाम के आगे जो इंग्लॅण्ड की डिग्री लगाए फिरता है न… वो किसने दिलवाई? …मैंने!”

– “आपने इंग्लॅण्ड भेजा उसको ?”

– “अरे नहीं यार …ब्रिटिश फार्मा की एक स्कीम थी कि डॉक्टर साल भर उनकी कंपनी की दवाइयाँ मरीज के लिए लिखे तो कंपनी डॉक्टर को इंग्लॅण्ड की डिग्री दिलवाएगी… घर बैठे… कहीं जाने की जरूरत नहीं… फार्मा वालों को मेहरा का नाम सुझाया किसने? मैंने!”

– ‘लेयो! …आपने तो उसको उसके बाप से भी ज्यादा सँभाला और वो ही आपसे लड़ रहा है!”

– “बंद कर दूँगा साले के पेशेंट्स लेना …बर्बाद कर दूँगा साले को…”

– “अरे दुनिया है बॉस …करने दो… अपने पैर पर क्यों कुल्हाड़ी मरते हो… दे दो साले को जो माँगता है… अपनी फीस बढ़ा दो… ढाई से तीन लाख कर दो।”

– “बहुत ज्यादा होगी… और तब तुम साले इंप्लांट वाले आपने पार्ट्स की प्राइस भी बढ़ा दोगे… मारवाड़ी अपने अस्पताल का चार्ज बढ़ा देगा… यू नो… चेन रिएक्शन हो जाएगा…”

– “कुछ नई होता… लोगों के विश्वास की कोई कीमत नई होती डॉक्टर भाटिया… ये साले नाम पे मरते हैं…। और बीमारों के लिए आसमान के भगवान के बाद धरती पर डॉक्टर ही भगवान होता है… भगवान से लोग मरीज के ठीक होने की दुआ माँगते हैं, डॉक्टर से मरीज को ठीक करने की भीख माँगते हैं! …स्टाइल वोई रखने का… डॉ. शर्मा वाला… थिएटर में पेशेंट लिए, दो मिनट बाद बाहर निकले, मरीज के रिश्तेदारों से कहा -‘एक घुटना करूँ कि दोनों? अभी अभी पता चला है कि खराब दोनों हैं। अभी नहीं करोगे तो दूसरा छः महीने बाद करोगे, फिर उतना पैसा खर्च करोगे… अभी एक साथ करना हो तो मैं दस पर्सेंट रिबेट देता हूँ…। तीन लाख के हिसाब से दो घुटनों का हुआ छः लाख …रिबेट चलो साठ हजार की बजाए पचहत्तर ले लो… तब भी फायदा ही फायदा है तुम्हारा।”

इतने में डॉ. भाटिया के सेल फोन से लता मंगेशकर के पुराने गाने – ‘अंग लग जा बालमा’ – की रिंग टोन बजी। “हू दि हेल इस दिस?” डॉक्टर ने हिकारत भरी नजरों से फोन उठा कर देखा।

– “पर्सनल नंबर पर किया है… कोई खास ही होगा!” देसाई ने नीबू चखते हुए कहा।

– “मरने दो साले को… रॉन्ग नंबर होगा।” डॉक्टर ने फोन काट कर रख दिया।

‘अंग लग जा बालमा’ फिर बजा। डॉक्टर ने चिढ़कर फोन लिया और स्पीकर ऑन कर दिया… “यस?”

– “फोन काट दिया!”

– “कौन चाहिए?”

– “डॉक्टर भाटिया?”

– “हाँ जी…”

– “मैं बिट्टा भाई का जमाई बोल रहा हूँ।”

– “कौन बिट्टा? …मैं तो किसी बिट्टा को नहीं जानता।”

– “बिट्टा…आ! …नई जानते!”

देसाई ने दबी जबान से मुँह के एक ओर हाथ लगा कर कहा,” बिट्टा… माफिया… दादा… अंडरवर्ल्ड…”

डॉक्टर ने पलकें ऊपर उचका कर जैसे देसाई की बात समझ ली।

– “बिट्टा… डॉन… अंडरवर्ल्ड… रोज पेपर में देखते हो… नई जानते!” फोन पर दूसरी तरफ से आवाज आई।

– “तो?”

– तो ये कि मेरी माँ को तुम्हारे दवाखाने ले गया था… तुम्हारे यहाँ कोई अंग्रेजी बोलने वाली लौंडिया बैठी थी …वो तुमसे बात नई करने देती और अपॉइंटमेंट देती है पंद्रह दिन बाद का…”

– “डेट फ्री नहीं होगी तो वो क्या करेगी…” डॉक्टर ने सँभल कर कहा।

– “इसके लिए तो हमको फोन करना पड़ा।”

– “तो पंद्रह दिन बाद आ जाइए आप माँ को लेकर …नाम लिखा दीजिए क्लीनिक में अपना।”

– “मैं क्या बोर्रा हूँ तू समझ ही नई रा… अबे पंद्रह दिन अपनी माँ को क्या दरगा में मन्नत माँगने भेजूँ कि हज करवाऊँ… वो दरद से मर रयेली है… और तू बोलता है… पंद्रह दिन बाद आओ…”

– “मैं इसमें क्या कर सकता हूँ?”

– ” तू डॉक्टर है कि हज्जाम! हं हं हं हं…! कल सुबु दस बजे तेरे दवाखाने में ले के आता है माँ को …देख ले।”

– “कल दस बजे तो मै बंबई में ही नहीं हूँ… संडे है… और मंडे से ले के थर्सडे तक मेरे ऑपरेशन्स फिक्स्ड हैं…”

– “ओये…!” आवाज डॉक्टर की बात काट कर चिंघड़ी। भाटिया ने फोन कान से हटा कर देखा और देसाई की तरफ नजर की। देसाई ने भाटिया को मुँह पर हाथ रख कर चुप रहने की हिदायत दी। भाटिया ने नजाकत समझ कर कहा, “देखिए अगर इतना अर्जेंट है तो मंडे को लाइए देख लेता हूँ।”

– “देख लेता नई… वो दरद से बेहाल है… हिप ट्रांसप्लांट करने का है… तो देख लेता नई… सीधा सोम्मार को ऑपेरशन करछ डाल… रोकड़ा फीस में ले के आताए। समझा न…”

– “मंडे को अपॉइंटमेंट है… किसी दूसरे का ऑपरेशन फिक्स्ड है।”

– “कौन है साला… बोल टपका डालता उसको… ऐं…! …सोम्मर को फजर में ऑपरेशन कर डाल… समझा न… नई तो अपना घोड़ा दब जएयंगा… क्या! …कल मैं हॉस्पिटल में अम्मी को एडमिट करता हूँ।”

फोन कट गया। डॉक्टर भाटिया का नशा उतर गया। अचानक चाँदनी की शीतलता उष्णता में बदल गई, समंदर के बीच का सुकून परेशानी में और शाम चिड़चिड़ाहट का बाइस बन गई। ईरा मुंशी की जिन नंगी / जवान / थिरकती / उचकती जाँघों के बीच मोहब्बत जवान होनी थी उन्हीं से तबियत उचाट होने लगी और नजर उधर से हट कर लग गई फोन पर। वक्त सेक्रेटरी को यह समझाने में लग गया कि किस तरह सोमवार वाले ‘केस’ को किसी और दिन और क्या वजह बता कर शिफ्ट किया जाए और बिट्टा के जमाई की माँ को कैसे फौरन कल ही अस्पताल में दाखिल करवाकर उसके ऑपरेशन के लिए तैयारियाँ करवा दी जाएँ। ईरा मुंशी ने डॉ. भाटिया की परशानी से अपना कोई सरोकार न समझते हुए अपने कानों में लगे हैडफोन्स में आते किसी ‘संगीत’ में डोलते उचकते हुए यॉट के नरम गद्दों का आनंद लिया और तेजा के साथ अपनी नई फिल्म के सपने देखे। देसाई ने पी पी कर दो तीन बार समंदर में उल्टियाँ कीं। सुबह दस के आस पास देसाई और ईरा – दोनों – वापस चले जाने वाले थे इसलिए वो सो गए। भाटिया को नींद नहीं आई।

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दूसर दिन इतवार था और भाटिया के तीन दोस्त यॉट पर खाने पर आमंत्रित थे। खाना बगल के पाँच सितारा होटल से आने वाला था। ओबेरॉय होटल ट्यूलिप स्टार के नाम से अवतरित हुआ हुआ था और वे किसी के लिए भी ऐसा नहीं करते थे लेकिन डॉ. भाटिया मालिक के दोस्त थे और इसलिए उन्होंने यॉट पर खाना पहुँचाना कुबूल किया था।

स्किन स्पेशलिस्ट डॉ. नौशिर इंजीनियर, कैंसर स्पेशलिस्ट डॉ. फड़नवीस और आई.वी. फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डॉ. मनचंदा – तीनों बारह के आस पास पहुँच गए। यॉट तक उन्हें लाने के लिए ‘बोट’ का इंतजाम था और आते साथ ‘चिल्ड’ बियर के साथ गरमा गर्म कबाब और बर्फ में लगा कर रखे गए मिनी हनी-डोनट्स का इंतजाम था। तीनों डॉ. भाटिया के दोस्त थे – इंजीनियर और फड़नवीस सायन मेडिकल कॉलेज में सहपाठी रहे थे और मनचंदा उनके ब्रिटेन में बने दोस्तों में से थे। डॉ. भाटिया एम.एस. (ओर्थोपेडिक) करने के बाद जब प्रैक्टिस में उतरे तो उनकी समझ में आया कि भारत में प्रैक्टिस करनी है तो नाम के साथ विलायत की कोई डिग्री जरूरी है। उन्होंने सोचा कि अगर वे लंदन से ऍफ.आर.सी.एस. कर आएँ तो उनका नाम भी बढ़ जाएगा और प्रैक्टिस भी। पैसे की चिंता थी नहीं। पिता कस्टम अफसर होकर रिटायर हुए थे और जायदाद के नाम पर उनके दो बंगले जुहू में थे और एक फार्म हाउस कर्जत में था। लेकिन लंदन जाकर भाटिया के सारे सपने ध्वस्त हो गए। बावुजूद एम.एस. के उन्हें एक मामूली हाउस सर्जन का काम मिला – वो भी बड़ी मुश्किल से क्योंकि वहाँ की हालत तो ये थी कि कुछ लोग जिन्होंने बड़ी बड़ी फीस दे कर मेडिकल डिग्री लंदन से पास की थी उन में से कई तो डाक्टरी की बजाय टैक्सी चला कर अपना गुजारा कर रहे थे।

इस हाउस सर्जन की नौकरी में भी इनका सीनियर अँगरेज काम तो भरपूर करवाता था लेकिन मौका बे मौका बेइज्जती करने से भी नहीं चूकता था। ऍफ.आर.सी.एस. में इन्होंने देखा कि सब ठीक होते हुए भी इन्हें फेल कर दिया गया – शायद – इन्हें लगा – इसलिए कि ये हिंदुस्तानी थे। तब भाटिया ने अक्ल लड़ाई और सीधे एडिनबरा (स्कॉटलैंड) का रुख किया और वहाँ से ऍफ.आर.सी.एस. की उपाधि हासिल की। एडिनबरा में ही इनकी मुलाकात डॉ. मनचंदा से हुई थी। दोनों पंजाबी थे और परदेस में अकेले थे। खाना-पीना, घूमना-फिरना, हँसना-रोना – जब मौका मिले तब – साथ साथ!

हालाँकि मनचंदा अपना इम्तहान दूसरी बार में पास कर पाया और भाटिया से दो साल बाद भारत वापस आया लेकिन बंबई में उसे सेटल करने में भाटिया का काफी सहयोग रहा। अब तीनों डॉक्टर अच्छे दोस्त थे और जब जब मौका मिलता – महीने में कम से कम एक रोज या शाम – साथ गुजार लेते थे।

– “अरे चंदू भाई जरीवाला का क्या मामला है यार? …न्यूज में बोलते हैं आई.सी.यू. में है… तीन दिन से…” मनचंदा ने यूँ ही पूछा।

– “मर गया है साला।”

– “डिक्लेर तो नहीं किया।”

– “कैसा करेंगा?” डॉ. इंजीनियर ने गर्म कबाब खाकर मुँह खुला रख कर बार बार हवा छोड़ते हुए जीभ को जलने से बचाते हुए कहा, ” दो हज्जार करोड़ का इंडस्ट्रियलिस्ट हाय…। वारिस तय हो रहे होएँगे …जायदाद के झगरे हो रहे होएँगे …दो लरका लोग हाय किसको क्या मिलेंगा… यु नो! …और दूसरे सरकार का भी दखल होएँगा… जब तक ये सब सेटल नई हो जाता उसको मरा कैसा डिक्लेअर कर देंगा।”

– “उसकी बीवी को तो कैंसर है न…” डॉ. भाटिया ने जोड़ा।

– ” वो कभी ठीक ही नहीं होगा…” मनचंदा ने बियर का घूँट लिया।

– “क्यों?”

– “डॉ. सहाय की पेशेंट है वो… और डॉ. सहाय इज ऐन इंटेलीजेंट मैन… उसने देखा इतनी बड़ी इंडस्ट्रियलिस्ट की वाइफ है अगर उसका कैंसर जड़ से निकाल दो तो फिर वो दोबारा क्यों आएगी? और वो नहीं आएगी तो माल भी नहीं आएगा… इसलिए उसने ९०% तो जला दिया है, १०% सेल्स छोड़ दी हैं। अब हर छह आठ महीने में उसके इलाज का सिलसिला चलता रहता है। वो समझती है कैंसर बीमारी ही ऐसी है कि कभी ठीक नहीं होती और डॉ. सहाय को भरोसा है कि ये पेशेंट तो परमानेंट है… हं हं हं हं।” मनचंदा ने मजा लेकर कहा।

– “करते तो साले तुम भी वो ही हो…”

– “तुम क्या मतलब? तुम नहीं करते? …सब करते हैं! …पेशेंट वापस आना चाहिए…”

– “नो… मैं नई करता… आई ऍम ऑनेस्ट।” इंजीनियर ने सर हिलाया।

– “चल रहने दे इंजीनियर,” फड़नवीस ने चुटकी ली, “फिल्म स्टार शिखा चोपड़ा का गोनोरिया तो तू आज तक ठीक नहीं कर पाया …हं हं हं… या जानबूझ कर… हं हं हं हं…”

– “धीरे बोल,” इंजीनियर ने दाँत चबाकर धीमी आवाज में कहा, “किसी ने सुन लिया तो मीडिया पीछे पड़ जाएगा और लड़की बेचारी बदनाम हो जाएगी।”

– “लड़की बदनाम हो जाएगी पर तेरी तो चल जाएगी कि साला फिल्म स्टार्स का डॉक्टर है… हं हं हं हं”

– “यार ये फिल्म स्टार्स को पेशेंट्स बनाने के लिए क्या करना चाहिए?” भाटिया ने सीरियसली पूछा।

– “करना क्या,” इंजीनियर बोला, “तू तो ऑर्थो है… तोड़ डाल सालों की हड्डियाँ! …हं हं हं हं हं…”

हू-हक होता रहा। खान पान चलता रहा। सभा समाप्त हुई शाम के छः के आस पास। बोट से वापस किनारे तक आकर सब अपनी अपनी एयर कंडिशंड गाड़ियों में अपने अपने घरों को चले गए।

सोमवार की दोपहर चार के आसपास जब बिट्टा के जमाई की माँ का ऑपरेशन करके डॉ. भाटिया बाहर निकले तब अस्पताल की बारादरी में जबरदस्त जमावड़ा था और जोर जोर से आवाजें लगा कर अस्पताल और किसी डॉक्टर को गालियों पर गालियाँ दी जा रही थीं। बिट्टा के जमाई ने अपने लंबे कुर्ते की लटकती बाँहें चढ़ा कर लोगों से पूछा ‘क्या हुआ’ तो पता चला कि अस्पताल के एक डॉक्टर ने ससुर की मौत की जगह बहू को मृत घोषित कर दिया था और रिश्तेदारों में इसी का रोष था।

– “लाखों रिश्वत ले के मेडिकल में भर्ती करेंगे तो ऐसाइच्छ होएँगा न…” बिट्टा का जमाई हँसा।

– “लाखों ले के नई… रिजर्वेशन दे दे के गधे गधे पास करवा देते हैं।”

– “कैंची और छुरी तो अच्छे अच्छे आजकल पेट में ही छोड़ देते हैं…”

तमाम आवाजें एक साथ कुछ न कुछ कहने लगीं। लेकिन तब तक बिट्टा के जमाई का इंटरेस्ट इसमें समाप्त हो चुका था और वो वापस बेंच पर आकर अपनी जगह बैठ गया।

डॉ. भाटिया चेंज करके कॉरिडोर में अवतरित ही हुए कि लोगों ने घेर लिया और उनके साथ साथ चलते बतियाते/पूछते-कहते रहे। तब तक ड्राइवर ने गाड़ी दरवाजे से सटाकर खड़ी कर दी और दरवाजा खोल दिया। डॉ. भाटिया अपनी लेटेस्ट मॉडल की ऑटोमैटिक बी.एम.डब्ल्यू. में बैठ कर बगैर किसी की तरफ देखे चले गए। बिट्टा का जमाई जब उनके पास आया तो उन्होंने उसे अपने जूनियर से मिलने का इशारा कर दिया। जूनियर ने उसे उसकी माँ के कमरा नंबर की जानकारी दे दी। गाड़ी में पीछे बैठ कर भाटिया ने एक फोन लगाया, “रंजन जी! …मैं क्लिनिक जा रहा हूँ… छः के आस पास मिल सकते हैं?” लीगल फर्म राजीव रंजन एंड एसोसिएट्स के मालिक ने उधर से कहा, “आपके लिए एनी टाइम! आ जाइए।”

– “डॉक्टर साब!” एक सीधे सादे पैंतीस चालीस साल के किसी क्लर्कनुमा दिखते सज्जन ने जूनियर का ध्यान आकर्षित किया।

– “हाँ?”

– ” सर एक तो जमा कर दिया है… लेकिन और तीन लाख का बंदोबस्त अचानक हो नहीं पा रहा है।”

– “पहले ही पूछा था… इन्शुरन्स है? …आप बोले है…” जूनियर ने लंबी साँस ले कर बड़ी तकलीफ से आँखें बंद करते हुए कहा।

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– “आपने इन्शुरन्स पूछा तो मैं समझा आपने मेरे लाइफ इन्शुरन्स के बारे में पूछा है…। मैंने कहा हाँ…”

– “मेडिक्लेम इन्शुरन्स यार… अस्पताल में आपकी लाइफ से हमें क्या मतलब!”

– “वैसे भी सर पिताजी की उम्र सत्तर पार की है… उन्हें तो मेडिक्लेम मिलता ही नहीं है।”

– “तो मैं क्या करूँ, बताइए ?”

– “सर अब मैं क्या करूँ …कुछ टाइम दीजिए…”

– “जब तक पैसे नहीं आएँगे पेशेंट रिलीज नहीं होगा… और तब तक हॉस्पिटल का बिल बढ़ता जाएगा …ठीक है!” जूनियर डॉक्टर ने मुँह मोड़ कर दूसरे की दिखाई हुई रसीद देखकर कहा, “पूरे पाँच लाख जमा करा दिए… वेरी गुड… ले जाइए पेशेंट को… दो हफ्ते बाद अपॉइंटमेंट लेकर चेक-अप के लिए ले आइएगा …ओ.के.!”

शाम साढ़े छः के आस पास डॉ. भाटिया नरीमन पॉइंट के रहेजा चैंबर्स की लिफ्ट से उतर कर चौथी मंजिल पर दाखिल हुए। दाहिनी तरफ राजीव रंजन एंड एसोसिएट्स – एडवोकट्स, नोटरीज एंड सॉलिसिटर्स का ऑफिस था। रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कुरा कर अभिवादन किया और सीधे रंजन साहेब के केबिन का दरवाजा खोल कर उन्हें दाखिल होने दिया।

– “डॉ. भाटियाआ…आ!” रंजन ने गर्मजोशी से कुर्सी से उठ कर हाथ मिलाया और दराज से निकाल कर स्विस चॉकलेट के एक बॉक्स को खोल कर उनके सामने किया। भाटिया ने एक चॉकलेट उठाकर उसका रैपर आहिस्ता आहिस्ता खोलना शुरू किया तो रंजन ने बात शुरू की, “जी तो डॉक्टर साब!”

भाटिया ने बताया की किसी पेशेंट का तीन साल पहले उन्होंने शोल्डेर रिप्लेसमेंट का ऑपरेशन किया था जो थोड़ा ‘कंप्लीकेट’ हो गया। इस वजह से वह ऑपरेशन उन्हें दोबारा करना पड़ा लेकिन उससे भी मरीज की तकलीफ ठीक नहीं हुई। पहले तो वो शिकायत करता रहा फिर उसने डॉक्टर के खिलाफ कंस्यूमर कोर्ट में कैसे कर दिया।

– “इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में कोई है क्या अपना दोस्त?” वकील साहेब ने पूछा।

– “जैसे सब असोसिएशन्स में हैं वहाँ भी नेता लोग हैं… और नेता कब से दोस्त होने लगे… वैसे भी सक्सेसफुल आदमी से तो सब लोग जलते हैं… सो वहाँ का तो छोड़िए…”

रंजन ने पूछा – “कोई करेस्पोंडंस?”

भाटिया ने एक फाइल में लगे हुए कुछ कागजात सौंपे। रंजन ने कागजों पर सरसरी नजर मारते हुए कहा, “नॉट टू वरी डॉक्टर!” फिर उसने नजर उठा कर भाटिया की तरफ देखा और कागज मेज पर रख दिए, “न लटका दिया सालों को दस साल तो हमारा तो दुनिया में आना ही बेकार है… हं हं हं हं हं…”

– “और वो गुंडे वुंडे ले के आ गए तो?”

– “ऐसे कैसे गुंडे ले के आ जाएँगे… पुलिस कंप्लेंट न कर देंगे हम …डरिए मत… मामला कोर्ट में है वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे… मीडिया में दे दूँगा, साले मर जाएँगे…”

– “किसी मीडिया वाले को जानते हो…”

– “मीडिया वालों को जानने की जरूरत ही नहीं है… आजकल जरूरत होती है पी.आर. एजेंसी वालों को जानने की। मीडिया वालों को पी.आर. वाले ही उँगलियों पर नचाते हैं। मेरे दोस्त की एक पी.आर. एजेंसी है जिसके कई केस हमारी फर्म के पास हैं।”

– “तो मेरा एक काम करेंगे प्लीज?”

– “आप कहिए तो “

– “थोड़ा मीडिया हाइप हो जाए अपनी तो…”

– “उनकी एक फीस होती है हर काम करने की।”

– “नो प्रॉब्लम… एनीवे… सॉरी… केस की बात कर रहा था…”

– “ये तो आपका मामूली केस है… अभी हाल ही में एक केस हुआ कि एक डिलीवरी करते में औरत को ऑक्सीजन देनी पड़ी… ज्यों ज्यों ऑक्सीजन देयो उसका बदन नीला पड़ता जाए… आखिरकार वो मर गई। डॉक्टर भी परेशान कि ऐसा हुआ कैसे। बाद में पता चला कि ऑक्सीजन सिलिंडर सप्लाई करने वाले ने सिलिंडर में नाइट्रोजन सप्लाई की थी! केस हुआ। इन्क्वायरी बैठी। हर्जाना मुकर्रर हुआ। अस्पताल अपने दोस्त का था, हमने हर्जाने की रकम वन थर्ड करवा के केस सेटल करवा दिया… एनी वे… ये मैं रख लेता हूँ, और कोई पेपर्स आएँ तो वो भी हमें भिजवा दीजिएगा …इसका रिटेन रिप्लाई में भिजवाए देता हूँ।”

मीटिंग तकरीबन साढ़े सात पर खत्म हुई। बाई बाई के बाद रंजन भाटिया को लिफ्ट तक छोड़ने आए। रहेजा चैंबर्स के गेट पर अपनी गाड़ी में बैठते हुए डॉ. भाटिया ने ड्राइवर को आदेश दिया – “ताज”! गाड़ी दाहिने तरफ मुड़ गई।

ताज होटल की पहली मंजिल पर सी-लाउंज में भाटिया को देख कर पियानो प्लेयर और उसके साथियों ने झुक कर उनका अभिवादन किया। भाटिया ने हलके से मुस्कुरा कर जवाब दिया और फिर उनकी नजरें इधर उधर किसी को ढूँढ़ने लगीं।

समंदर की तरफ खिड़कियों के पास एक दो-कुर्सी वाली टेबल पर उन्हें वह दिख गई। साँवले रंग वाली लंबे कद की एक लड़की जिसने अपने बाल ऊपर को बाँध रखे थे, जिसकी आँखें बड़ी बड़ी थीं, नाक लंबी और जरा सी गोलाई लिए हुए थी और उसने एक चितकबरा टॉप और काली चुस्त जीन्स पहन रखी थी, जो अपनी चप्पलें उतारकर समंदर की तरफ की रोशनियाँ तकती हुई अपनी डी-कैफिनैटेड कॉफी की चुस्की ले रही थी।

डॉ. भाटिया की “हाय मैरीएन!” से उसका सर पलटा और उसने अपने उभरे उभरे दाँतों को उघाड़ते हुए नजरों से शहद टपकाते डॉ. भाटिया को बैठने का इशारा किया और पूछा, ” व्हाट विल यू हैव? …पीच मलबा ऐज यूजुअल!”

मैरीऐन सेक्वेरा एक नामी फाइनेंस कंपनी की सीनियर रिलेशनशिप डायरेक्टर थी जो पोर्टफोलियो मैनेजमेंट, आई.पी.ओ. और उससे जुड़े तमाम काम करती थी। जो बात ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम थी वो ये कि यह कंपनी बड़े बड़े पैसे वालों के पैसे विदेशी बैंकों में सुरक्षित जमा करवाने में भी मदद करती थी।

वेटर जब आर्डर ले कर चला गया तो डॉ. भाटिया ने पूछा, “सो?”

– “पच्चीस करोड़ हो चुके हैं। लेकिन एक साथ इतना पैसा एक ही देश में रखना मैंने ठीक नहीं समझा इसलिए इसमें से दस करोड़ हम मॉरीशस ट्रांसफर कर रहे हैं।”

– “पच्चीस करोड़…” भाटिया ने भौंहों पर बल डाल कर, आँखें मिचमिचा कर कुछ सोचते हुए कहा, “तो एक काम करो… एक आई.पी.ओ. (पब्लिक शेयर इशू) प्लान करो… मैं एक अस्पताल खोलना चाहता हूँ, जिसमें इस पच्चीस करोड़ में से दस करोड़ एन.आर.आई. फंडिंग दिखा देना, बाकी पब्लिक से आ जाएगा…”

– “हाउ वेरी ह्यूमन ऑफ यू! …ये अस्पताल आप विकलांग बच्चों के लिए खोलने चाहते हैं!”

– “नो नो… ये ऑर्थोपेडिक स्पेशलिटी हॉस्पिटल होगा।”

– “ओह! आई आम सॉरी… मैंने सोचा शायद आप अपने विकलांग बच्चे का सोच कर…”

डॉक्टर ने अपनी झुँझलाहट छुपाते हुए अपने कपड़े के नैपकिन को जोर से झटका दिया और मन में अपनी बीवी को विकलांग बच्चा पैदा करने के लिए कई भद्दी सी गालियाँ दीं। इतने में आइसक्रीम आ गई और मैरीऐन ने सब समझ कर बात बदल दी।

ताज से निकलते निकलते दस बजने लगे थे। बंबई की जवान रोशनियाँ और जवानी पर थीं। गाड़ी मरीन ड्राइव से गुजर रही थी। चौपाटी के समंदर के ऊपर हवा में तने किसी कंपनी का इश्तिहार करते एक गैस के बड़े गुब्बारे को देख कर भाटिया के मन मैं आया, ‘आदमी को ऐसा होना चाहिए। सबसे ऊपर, सबसे ऊँचा, सबको अपने नीचे देखते हुए’! गुब्बारा पीछे छूट गया, गाड़ी सिग्नल से बबुलनाथ मंदिर वाली सड़क पर मुड़ गई।

अल्टामाउंट रोड की सीगल बिल्डिंग की छठवीं मंजिल पर पहुँच कर भाटिया ने अपने फ्लैट की ‘बेल’ बजाई। नौकर ने दरवाजा खोला, बीवी फौरन अंदर वरांडे के सिरे पर आ गई, शायद इंतजार ही कर रही थी। भाटिया को देख कर ‘हेलो’ में मुस्कुराई, “आज तुम्हारी फेवरेट पाव भाजी बनी है, आ जाओ।”

भाटिया ने मुँह फेर कर अपनी टाई ढीली की। इतने में फोन पर ‘अंग लग जा बलमा’ बजा’।

– “यस?”

– “डॉ. भाटिया?”

– “यस।”

– “आई एम रिया फ्रॉम सी.एन.बी.सी. …हमारा एक प्रोग्रैम है ‘यंग डॉक्टर्स’ हम उसमें आपका इंटरव्यू करना चाहते हैं।”

जब बात खत्म हो गई तब भाटिया त्योरियों पर बल देकर ये सोचने लगा कि क्या यह इंटरव्यू रंजन ने फिक्स करवाया होगा! फिर उसने इस ख्याल को बर्खास्त करते हुए सोचा कि ‘मैं हूँ ही इतना बड़ा कि मुझे किसी की रिकमेन्डेशन की क्या जरूरत है!’

फिर डॉ. भाटिया अपने आप पर खुश होकर, मुस्कुराते हुए पाव-भाजी खाने बैठ गया।

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धरती पर भगवान – Dharti Par Bhagwan

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