गेम्स | अशोक कुमार
गेम्स | अशोक कुमार

गेम्स | अशोक कुमार – Games

गेम्स | अशोक कुमार

‘हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ’ यह बात जब तुलसीदास जी ने रामायण में लिखी थी तब विधि का मतलब होता था विधना का लिखा हुआ भाग्य। वो तब की बात थी। अब के भारत में विधि का मतलब होता है ‘कानून’ जो किताबों में होता है, जिसके दम पर देश का, अदालतों का, समाज का तंत्र चलाया जाता है और जो भी भी बड़ा/पैसे वाला/रसूख वाला – या तो होता है या होना चाहता है – वो जितना इस कानून को तोड़ता है उसी बल पर आगे बढ़ता है और उतना ही बड़ा/पैसे वाला/रसूख वाला बनता है। पैसे वालों के दायरे में सिर्फ पैसा बोलता है। उसी से वो लोग चीजें, दिमाग, साधन, सामान सब कुछ खरीद लेते हैं। वो हर खेल पैसे से खेलते हैं और समयानुसार जो भी दुनिया में नए नए खेल ईजाद होते हैं उन्हें भी वो पैसे से ही खेल लेते हैं… पैसा ही उनका खेल भी होता है और खेल का साधन और मोहरा भी। पैसे की खासियत है कि वो पैसे वालों में घमंड और जौम का संचार आते साथ कर देता है। इसलिए लोगों में ‘एरोगेंस’ और गुस्सा बढ़ जाता है। इसलिए हर खेल खेलते समय उनकी सोच सिर्फ किसी भी कीमत पर जीतने पर लगी रहती है। हारना उनकी समझ के बाहर होता है।

उनकी औलादें भी यही सीखती हैं और उन्हें भी दुनिया की सारी खरीदी जाने वाली चीजों को बटोरने और नए नए खेल खेलने की आदत पड़ जाती है। इसलिए ये लोग दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं डालते और दिमाग/लियाकत विकसित करने के लिए प्रयास भी नहीं करते। फिर आज इंटरनेट के जमाने में तो ये बात सोलह आने से भी कई और आने सत्य लगती है।

गुडगाँव सुशांत लोक के सेक्टर ५६ में रहने वाले तरुण चोपड़ा भी पैसे वाले थे। पोस्ट ऑफिस के बगल वाली ५०० गज के प्लाट पर बनी दुमंजिला ‘कोठी’ के पोर्टिको में उनकी एक समय में कम से कम चार पाँच गाड़ियाँ तो हमेशा खड़ी रहती थीं, लेकिन जब नए मॉडल की बी.एम.डब्ल्यू. वहाँ खड़ी दिख जाए तो समझिए कि चोपड़ा साहेब घर पे हैं। हालाँकि वो ज्यादातर घर पर होने की बजाए अपने भोंडसी वाले फार्म हाउस में होते थे। उनका बहुत फैला हुआ बिजनेस था – जायदाद की खरीद फरोख्त का। सस्ते में जमीनें खरीदीं, प्लाट काटे, इधर उधर चारदीवारी लगाई और लोगों को आसमानी भाव में बेच दिए। अक्सर जमीनों को खेती से ‘नॉन-एग्रीकल्चर’ करवाने के लिए इनको नेताओं और जरा ‘सख्त’ लोगों का सहारा लेना पड़ता था और ऐसे लोगों से मेल-जोल बनाए रखने के लिए पार्टियों से बढ़िया और क्या बात हो सकती थी! जिस सब के लिए भोंडसी का फार्म हाउस ‘फर्स्ट क्लास’ था! शराबें, डीजे, लड़कियाँ, बार बे क्यू, लेन देन… ये सब कोई घर में करता है क्या!

जब पार्टी में कॉल गर्ल्स नहीं बुलाई जा रही होतीं तब चोपड़ा साहेब कभी कभी अपनी बीवी को भी साथ ले जाते थे। खास तौर से तब जबकि हाऊसिंग मिनिस्टर गिरिजा किशोर जी इन्वाइटेड होते। चोपड़ा को मालूम था कि गिरिजा किशोर की नजर उनकी बीवी पर है और इसलिए यदि उनसे अपनी कोई कोई बात मनवानी होती तो वे अपनी बीवी को आगे कर देते थे। यह बात चोपड़ा की बीवी भी जानती थी लेकिन इतनी बड़ी कोठी, बी.एम.डब्ल्यू., बेतहाशा लक्ष्मी की कृपा के सामने एक बूढ़े, खूसट, तोंदू और तंबाकू का भभका छोड़ते काले हुए मुँह वाले के बगल में जरा देर को चिपक लेना कौन बड़ी ‘प्राइस’ है!

चोपड़ा साहेब की दो औलादें थीं। एक लड़का – नीलाभ – जो फिलहाल दसवीं में पढ़ रहा था और जिसे पढ़ने से ज्यादा कंप्यूटर गेम्स खेलने, अपने कुत्ते ब्रूटो के साथ इधर उधर सैर करने (जो वो हमेशा मोटर की पिछली सीट पर ब्रूटो के साथ बैठ कर करता था, ड्राइवर को बेतरह तेज स्पीड से गाड़ी चलाने के लिए लताड़ते हुए) में परम आनंद आता था। घर के खाने से ज्यादा मैकडोनाल्ड के बर्गर और ले की चिप्स की पसंद ने उसके गालों पर सुर्खी ला रखी थी और वजन में जरूरत से ज्यादा इजाफा कर रखा था। चॉकलेट और मिंट से उसकी जेबें हमेशा भरी रहती थीं क्योंकि खुद तो खुद नीलाभ ने ब्रूटो को भी चॉकलेट की आदत लगा रखी थी। एक खुद खाता था तो दूसरी ब्रूटो को देता था। न दे तो ब्रूटो चॉकलेट देख कर बाकायदा हाथ मार मार कर चॉकलेट माँग लेता था। गाड़ी हो, घर हो, स्कूल की क्लास हो उसकी नजर हमेशा अपने आठ इंच के आई पैड या पाँच इंच वाले आई फोन पर लगी कोई न कोई गेम या पिक्चर या सीरियल या सनी लीओन जैसी किसी स्टार के वीडियो देखने में लगी रहती थी।

चोपड़ा साहेब की दूसरी औलाद थी उनकी लड़की – सोना – जो थी तो नीलाभ से दो साल छोटी लकिन हर बात में बड़ी बैठती थी – कद में, वजन में, आवाज की बुलंदी में, अपना भला देखने वाली बुद्धि में और घर में बनी हुई बार से चोरी चोरी शराबें उड़ेल कर पीने में। आठवें दर्जे और १३ साल की उम्र तक पहुँचते पहुँचते वो हिंदुस्तानी और इंटरनेशनल बीयरों, व्हिस्कियों, वाइनों और इनके तमाम तरह की वैरिएशंस के बारे में खासी जानकार हो चुकी थी। फुर्सत न बाप को थी न माँ को और न ही बेटा बेटी को कि कभी किसी का हाल चाल पूछें। पैसे से ताल्लुक था – उनको देकर पीछा छुड़ाने में, इनको लेकर गुलछर्रे उड़ने में!

लेकिन सोना का फ्रस्ट्रेशन ये था कि उसकी उम्र का कोई भी – न स्कूल में न इधर उधर – उसके ‘लेवल’ के तबादल-ए-ख्याल वाला नहीं था। और इसलिए उसका ले देकर एक ही दोस्त था – मुहम्मद जुबैर। जुबैर चोपड़ा साहेब के चार्टर्ड अकाउंटेंट का असिस्टेंट था – इंटरनी! एक आध बार जब उसे कुछ कागजात लेने घर आना पड़ा और उसका साबिका सोना से पड़ा तो जरा सी बात-चीत के दौरान ही सोना को जुबैर अपने ‘लेवल’ का लगा और सोना की सूरत/सीरत/अमीरी देख कर जुबैर की लार टपक गई। दो चार मुलाकातों में ये दोनों दोस्त बन गए और अच्छे दोस्त बन गए।

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जुबैर मूल रूप से रहने वाला गाजियाबाद का था लेकिन नौकरी और अपने सी.ए. के चक्कर में नोयडा के मयूर विहार में एक कमरा किराये पर ले कर रह रहा था। दफ्तर उसका सरिता विहार दिल्ली में था। सरिता विहार और नोयडा में कोई खास दूरी नहीं थी इसलिए आराम था लेकिन जब से जुबैर की लार टपकी है और उसका गुड़गाँव में जी लगा है तब से आने जाने में ही उसकी नींदें हराम होने लगी है। घर से दफ्तर, दफ्तर से गुड़गाँव, गुड़गाँव से नोयडा! और राजीव चौक पर मेट्रो लाइन बदलना तो – बाप रे!

– “तो साले गाड़ी ले ले!” सोना ने इस बार फिर लताड़ा।

– “गाड़ी मेरा ससुर देगा?” जुबैर ने सर को झटका देकर कहा।

– ” देगा साला… जब ससुर बनेगा तब!”

– “तब तक?”

– “तब तक मेरी गाड़ी ले जा।”

– “और तू क्या बोलेगी बाप को?”

– “बाप साला है कहाँ कुछ बोलने सुनने के लिए! …होता भी तो क्या कर लेता!”

जुबैर ने हलके से सोना के गालों पर प्यार से हाथ फेरा।

– ” ऐ… मत भूल में जुविनाइल हूँ साले… ये सब करेगा तो जेल हो जाएगी।”

– “और तू भी मत भूल मैं मुसलमान हूँ साली मेरे लिए पुबर्टी वाली जायज है।”

– “अच्छा!” …और फिर सोना ने जुबैर को जकड़ कर उसके मुँह में अपनी जबान से वो गर्मी उड़ेली कि जुबैर का सर सोना की जाँघों के आगे झुकता चला गया।

घर के नौकरों को अंदाजा था लेकिन उन्हें शराब और पैसे की रिश्वत चुप रखती थी और नीलाभ को सोना क्या करती है या नहीं करती है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।

नीलाभ के दो दोस्त थे – एक ब्रूटो जो उससे कुछ नहीं कह सकता था और उसकी हर बात मानता था। दूसरा था उसका ड्राइवर सेवाराम। सेवाराम उम्र में जरा बड़ा था – आठ दस साल। आठवीं के बाद पढ़ना छोड़ चुका था और अब तक पान तंबाकू बेचने, सड़क के नुक्कड़ों पर फूलों के गुलदस्ते बनाने बेचने इत्यादि जैसे कई धंधों में हाथ बँटा चुका था। ड्राइवरी सीखने के बाद ये उसकी दूसरी नौकरी थी। पहली थी टैक्सी चलाने वाली जो उसे कतई पसंद नहीं थी। यह नौकरी उसे पूरी तरह रास आ गई। ‘भैय्या’ के मूड के हिसाब से आना जाना! स्कूल पढ़ने गए तो गए न गए न गए! भैय्या कभी कभी गोरी गोरी लड़कियों के वीडियो दिखा देते हैं, कभी कभी सिगरेट भी दे देते हैं और कभी कभी कनॉट प्लेस में रीगल वाली गली से ड्रग्स भी मँगवा लेते हैं – तो थोड़ी सेवाराम भी ले लेता है! पैसा भी मिल जाता है – तनख्वाह भी और एडवांस भी – जब चाहो तब! सेवाराम हमेशा भैय्या और बेबी की ड्यूटी पर रहता है। ‘साहेब’ के गाड़ी/ड्राइवर अलग है।

– “तूने कभी गन चलाई है? नीलाभ ने पिस्तौल दिखाते हुए पूछा।

– “नहीं भैय्या जी… हमारे पास गन कहाँ!” सेवाराम हाथ जोड़ कर फिक्क से हँसा।

– “तो ले… चला “

– “अरे नई नई…”

– “अबे चला… मैं हूँ न…”

– “नै नै…”

– “अच्छा मेरे ऊपर चला…। चला न…”

– “नई नई… देखो देखो… वो मेमसाब आ गईं।”

नीलाभ ने खिड़की से बाहर नजर कर के अपनी माँ को गाड़ी से निकल कर घर के अंदर आते देखा और लापरवाही से फिर नौकर को बंदूक दिखा कर आँखों से “क्यों? …चलाता है?” का इशारा किया। इतने में माँ ने दरवाजे से गुजरते हुए नीलाभ को सेवाराम पर बंदूक ताने हुए देखा।

– “ये क्या हो रहा है बेटा?” माँ ने कदम रोक कर कमरे में अंदर की तरफ सर मोड़ कर पूछा।

– “मैं इस को मार डालूँगा…”

– “भैय्या जी खेल खेल रहे हैं… हं हं हं हं…” नौकर ने चापलूसी की।

– “ऐसा नहीं करते बेटा…”

– “इसको मैं इससे थोड़ी मारूँगा… ऐसे तो ये आसानी से मर जाएगा… इसे तो मैं पत्थर से इसका सर फोड़ कर मारूँगा… साले का खून बहेगा और भेजा बाहर आकर सड़ेगा…”

माँ ने फौरन दौड़कर दोनों हाथों से नीलाभ के कंधे थामे, “व्हाट नॉन सेंस आर यू टॉकिंग…! …यही पढ़ाते हैं स्कूल में?”

– “गेम्स में तो मर्डर इससे भी खतरनाक होते हैं… तड़पा तड़पा कर मारते हैं… मैं तो इसे डेसेंटली मारूँगा… ये मेरा दोस्त है।”

माँ ने लंबी साँस भरी। सेवाराम खामोश हो गया।

– “सेवाराम!” …माँ ने कंसर्नड हो कर कहा, “इस पर नजर रखो …ये कंप्यूटर पर क्या देखता सुनता है… तुम करते क्या हो? …तुमसे इतना भी नहीं होता? …अगर इसके हाथ में असली बंदूक होती और चल जाती तो…?”

सेवाराम ने सर नीचे कर लिया।

– “असली तो डैडी की ड्रॉवर से मैंने निकाली नई नई तो साला ये मर गया होता।” नीलाभ ने जाते जाते मुड़ कर कहा।

माँ आखिर माँ थी। इकलौते लड़के को इस रास्ते जाते व्यथित हो गई। रात को अपने पति – चोपड़ा साहेब – के आने तक जागती रही। चोपड़ा जब आया तब रात के दो बजे थे और वह नशे में धुत था।

– “सुनो, तुम अपनी पिस्तौल ताले में रखा करो …ऐसे ड्रावर में नहीं।”

– “क्यों…?” चोपड़ा हँसा, “चोरी हो गई क्या?”

– “देखो नीलाभ बंदूकों से खेलने लगा है…”

– “आजकल सभी बच्चे बंदूकों से खेल रहे हैं…”

– ” वो आज सेवाराम को मार डालने की धमकी दे रहा था।”

– “हं हं हं… मार डालो साले को… वैसे भी वह गाड़ी खराब चलाता है… तीन बार चालान करवा चुका है… हं हं हं हं।”

– “नीलाभ बिगड़ता जा रहा है…”

– “अरे छोड़ बे…बेकार की बातें… सुन! …मंत्री जी ने तुम्हें न्योता दिया है… उनके साथ और सिर्फ उनके साथ डिनर का… कल… चली जाना…”

– “मैं नई जाती उस बुड्ढे के पास अकेले।”

– “क्यों?”

– “तुम जानते हो क्यों।”

– “तो क्या हुआ…? एक बार बुड्ढे के पास जरा बैठ लेगी तो क्या हो जाएगा… कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा! तेरा तो मेनोपॉज भी हो चुका है!”

– “मैं नई जाऊँगी…” मिसेज चोपड़ा बड़ी जोर से चिल्लाईं। इतनी जोर से कि रात का सन्नाटा काटती हुई आवाज घर के आस पास तक गूँज गई। सोना जो अब तक फेसबुक पर चैट कर रही थी उठ कर दबे पाँव माँ-बाप के कमरे के दरवाजे तक चली आई। अंदर से आवाजें उसे साफ सुनाई देने लगीं।

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– “तीन करोड़ की डील है… हंड्रेड परसेंट का प्रॉफिट है। मंत्री एक पैसा नहीं माँग रहा है। उसे सिर्फ तुम्हारे साथ डिनर करना है… बस… तीन करोड़ के लिए एक डिनर में क्या खराबी है…” बाप नशे में चिल्ला रहा था।

– ” तुम जानते हो ये सिर्फ डिनर नहीं है…”

– “वो तेरी लेना चाहता है यार…” चोपड़ा चिल्लाया, “है न! …तो क्या हुआ …तू अब कोई सोलह बरस की तो है नहीं …बुढ़िया है और साली ढीली ढाली बुढ़िया है …जरा देर के लिए उसे घुसेड़ लेगी तो क्या हो जाएगा… तीन करोड़ का मामला है…” चोपड़ा ने गंदी सी हिचकी ली, “मिनिस्ट्री री-शफ्फल होने वाली है। हो सकता है ये मंत्री न रहे। जाते जाते साला अपनी फाइल तो क्लीयर कर जाए…”

बाप की आवाज घटने लगी। अंत के शब्द बोलते बोलते शायद उसे नींद आ गई और वो धड़ाम से गिर पड़ा। शायद सोफे या बिस्तर पर। सोना चुपचाप अपने कमरे में लौट आई।

चोपड़ा को उनकी पत्नी ने नशे और नींद में गिरते हुए देखा और सिर्फ देखा। वे न उसे बचाने गईं न उठाने। फिर वे हाथ झटक कर बैडरूम के बाहर खुले वरांडे में आ गईं। दो मिनट वहाँ खड़ी रहीं। फाल्गुन का महीना था। रात के समय हवा में हलकी हलकी खुशनुमा ठंडक थी। वे ड्राइंगरूम जा कर एक गिलास में अपने लिए ‘शैरी’ और एक सिगरेट सुलगा कर ले आईं। एक घूँट लेकर उन्होंने सिगरेट का एक लंबा कश खींचा, पास पड़ी कुर्सी पर टाँग पर टाँग धर कर वे बैठ गईं और आकाश की ओर बेमतलब सा निहारने लगीं। कृष्ण पक्ष की पंचमी थी। अँधेरा था। घर की बत्तियाँ बंद थीं और स्ट्रीट लाइट पेड़ों से छनी छनी बहुत कम अंदर आ रही थी। जरा देर में अपना गिलास खाली कर के उन्होंने अपनी आधी बची सिगरेट वहीं पैरों के नीचे मसल दी और अंदर आ गईं। आते आते उन्होंने देखा नीलाभ अपने कमरे में कंप्यूटर पर कोई गेम खेल रहा था। बैडरूम में चोपड़ा सोफे पर गिरा पड़ा ही सो चुका था। वे बिस्तर में आकर लेट गईं और देर तक खिड़की के शीशे से बाहर ताकती रहीं। उनके ख्याल में कितनी ही बार गुजरा की वे फौरन ड्रावर से पिस्तौल निकल कर चोपड़ा पर गोलियाँ बरसा दें। खत्म कर दें सारा सिलसिला और आजादी पा जाएँ इस जंजाल से। वे सोचने लगीं कि उन जैसी सीधे सादे संभ्रांत परिवार में जन्मी, पली, बढ़ी लड़की कब और कैसे इस प्रपंच, वैभव और पैसे के लालच में कहाँ से कहाँ आ गई। फिर उनकी इसी सीधी सादी और शरीफाना सोच ने उन्हें तमंचा उठाने से रोक दिया। अपनी इस स्व-जनित मजबूरी पर उनकी आँखें बह निकलीं। वे सिसकने लगीं और उन्हें खुद से, अपने शरीर से, अपने आकर्षक होने से ग्लानि होने लगी। आखिर इधर उधर किसी गैर के गले लग जाना, प्यार से बातें करना और बात है और बाकायदा किसी के साथ सो जाना बिलकुल दूसरी! उनके ख्यालों की शृंखला टूटी तब जब चोपड़ा के खर्राटे जोर पकड़ने लगे। वे बैडरूम से निकल कर ड्राइंगरूम में आकर सोफे पर लेट गईं। रोते रोते उन्हें न जाने कब नींद आ गई।

दूसरे दिन शाम को उन्होंने शीशे के सामने अपने काले और सफेद गाउन्स को अपने ऊपर लगा कर देखा। काला उन्हें पसंद आया। “काले कामों के लिए काला”- उनके मन में ख्याल गुजरा और एक तन्जिया मुस्कराहट उनके चेहरे पर लहरा गई। “परफ्यूम भी डाल लो मिसेस चोपड़ा”, उन्होंने अपने आप से कहा, “गंदगी में कुछ तो खुशबू रहे!” नौकर को बुला कर उन्होंने ड्राइवर को गाड़ी में ए.सी. स्टार्ट कर देने को कहा। पाँच मिनट बाद जब वे अपना पसंदीदा बैग लिए कमरे से निकलीं तो अचानक उनके ऊपर कहीं से एक काली छिपकली गिरी और भाग गई। उनके मन में उभरा ‘कहीं ये अपशकुन तो नहीं’ फिर उन्होंने इस ख्याल को दकियानूस कह कर नकार दिया और जाकर गाड़ी में बैठ गईं।

आठ बजे उन्हें हिल्टॉन के कमरा नंबर १११० में पहुँचना था। मंत्री जी पहुँच चुके थे और शायद अपनी ‘टीचर्स’ व्हिस्की के दो चार लगा चुके थे। मिसेस चोपड़ा की उन्होंने बड़ी फुर्ती और मोहब्बत से आवभगत की। कई तरह का खाना आर्डर किया गया। फिर मुद्दे पर आते हुए नेता जी ने कहा, “यु आर सो बयूटीफुल, मैं तुम्हारे साथ पूरी जस्टिस कर सकूँ इसलिए ये देखो, “उन्होंने वियाग्रा की गोलियाँ दिखा कर कहा, “ये लेता आया हूँ… हं हं हं हं …है न!”

जब मामला शुरू हुआ तो नेता जी ने चार पाँच गोलियाँ नीट व्हिस्की के पैग के साथ गटक लीं और फिर लेट गए बिस्तर में। “आओ …आओ…” कह कर जैसे ही नेता जी मिसेज चोपड़ा के ऊपर होने को हुए तो निढाल गिर गए। मिसेज चोपड़ा घबड़ा गईं, फिर जब देखा की नेता जी की धड़कने बंद हो गईं हैं तो एकदम चीख पड़ीं। उन्होंने अपने पति को फोन किया – “ये मर गया!”

एक पल खामोशी के बाद पति का जवाब आया, ” वैरी गुड… सुनो… इसका एक फोटो ले लो अपने ऊपर नंगा लेता हुआ… बाकी में सब देख लूँगा।”

– “में यहाँ नहीं रुक सकती… चली जाऊँ तो पुलिस केस…”

– ” अरे कुछ नहीं यार…” चोपड़ा ने बात काटी, ” चली आओ… लेकिन फोटो लेकर आना अपने साथ उसकी – नंगी!”

फिर चोपड़ा ने चीफ मनिस्टर को फोन लगाया और इसकी खबर दी। “तो सर,” चोपड़ा ने कहा, “मेरी वाइफ को अब आपको कंपेंसेट तो करना पड़ेगा… नहीं तो क्रिमिनल केस भी बनता है और आपकी सरकार भी गिर सकती है।”

– “ब्लैकमेल?!”

– “नहीं सर, सौदा है।”

– “क्या चाहते हो?”

– “मेयर की जगह खाली हो रही है…”

– “वो तो मैं प्रॉमिस कर चुका हूँ।”

– “सोच लीजिए” चोपड़ा ने कहा।

– “और क्या हो सकता है?”

– “और “…चोपड़ा ने सोच कर कहा, “और सर वो जो दरूहेड़ा में जयपुर हाईवे के बगल में ५० एकड़ का प्लाट खाली पड़ा है वो दिलवा दीजिए।”

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– “पचास एकड़! …मेरे बाप का है क्या…? सरकार भी पैसे दे रही है…”

– “तो लीज पे हमें डेवेलप करने के लिए दिलवा दीजिए… एक रुपया एकड़…”

– “देखता हूँ…”

मामले को कैसे सुलटाया जाए इस बाबत मुख्यमंत्री ने फौरन अपने खास एडवाइजर से मशविरा किया।

दूसरे दिन सुबह पाँच बजे नेता जी की लाश को एक सरकारी लाल बत्ती वाली अंबेसडर गाड़ी में रख कर एयरपोर्ट की तरफ भेजा गया और दूसरी तरफ से भेजी गई एक तेज रफ्तार खटारा जीप। दोनों का एक्सीडेंट करवा दिया गया। खबर बनाई गई कि नेता जी एयरपोर्ट जाते समय एक्सीडेंट में समाप्त हो गए। अखबारों में छप गया। पार्टी की छवि और नेता जी की लाज रह गई। मृतक को तिरंगे में लपेटकर अग्नि के हवाले कर दिया गया। पाँच दिन बाद चोपड़ा को तमाम सौदेबाजी के बाद ५० एकड़ वाली जमीन में से १० एकड़ मिसेज चोपड़ा के नाम पर लीज पर दिलवाई गई। इस शर्त पर कि वे इस जमीन पर प्लाट काट कर गरीब और जरूरतमंद महिलाओं के लिए स्कूल, छोटे मोटे स्व-रोजगार के कारखाने और जिनके पास रहने की जगह नहीं है उनके लिए छोटे रिहायशी मकान बनाएँगीं। इस सब के लिए वे ३०% प्लाट बाजार भाव पर बेचकर अपनी लागत को वसूल सकती हैं।

– “तुम बड़े बाप के बेटे न पढ़ते हो न दूसरों को पढ़ने देते हो… सिवाय आई पैड पर गेम्स देखने के तुम्हारे पास कोई और काम है?” क्लास टीचर ने क्षुब्ध होकर हाफ इयरली रिजल्ट की कॉपी नीलाभ को वापस करते हुए कहा।

– “सो! …व्हाटस योर प्रॉब्लम…?” नीलाभ ने टीचर पर आँखें तरेरते हुए क्लास में चारों तरफ देख कर कहा।

– “प्रॉब्लम! प्रॉब्लम मुझे नहीं तुम्हें होना चाहिए… लाइफ में करोगे क्या…” टीचर को लगभग गुस्सा आ गया।

– “लिसेन! …यु जस्ट डु योर जॉब… ओ के …लीव मी अलोन… नहीं तो तेरी नौकरी गई! …समझे न!” नीलाभ ने तर्जनी दिखाते हुए चेतावनी दी।

– ” गेट आऊट… गेट आउट ऑफ माय क्लास…!”

नीलाभ बैठा रहा। दो मिनट बाद टीचर खुद ही क्लास से बाहर चला गया। नीलाभ के एक दोस्त – जो खुद भी किसी बड़े बाप की औलाद था – ने पूछा, “व्हाई यू टेक हिम सीरियसली?”

– “आई वुड किल द बास्टर्ड!” फिर जैसे नीलाभ को अपना बड़प्पन याद आ गया। उसने पूछा, “यू नो हाउ तू किल?”

– “या आई नो… हाउ तू किल …आई हैवे सीन इट इन वन ऑफ दी गेम्स।”

– “या… किलिंग इस नथिंग बट ए गेम… आई हैव सीन इट इन मेनी गेम्स।”

हाफ इयरली में फेल होने की खबर जब माँ बाप को लगी तो उनका पुत्र प्रेम और पैरेंटल जिम्मेदारी दोनों फॉर्म में आ गए। मिसेज चोपड़ा के कहने पर चोपड़ा ने नीलाभ को ठीक से पढ़ाई करने को कहा। “हाई स्कूल बोर्ड है बेटा… उसमें पास करवाना बड़ा मुश्किल है… ठीक से पढ़ा कर…”

– “या… मैं कर रहा हूँ।” नीलाभ बोला

– “तो ये रिजल्ट कैसे?” चोपड़ा ने मार्क्स शीट दिखा कर पूछा।

– “माई टीचर इज ए बास्टर्ड।”

– “लिसेन …ग्रेजुएट हो जाओ …किसी भी तरह… बस…”

– गेट लॉस्ट…! नीलाभ को गुस्सा आ गया और वो उठ कर जाने लगा।

– “व्हाट…? व्हाट डिड यू से… यू सन ऑफ ए बिच… कम हियर…” चोपड़ा नीलाभ को पकड़ने गया। नीलाभ ने साइड टेबल पर रखी एक चीनी मिट्टी की सोविनियर प्लेट उठाई और टेबल पर दे मारी। प्लेट उसके हाथ में आधी हो कर रह गई… चोपड़ा ने भाग कर नीलाभ को बाईं बाँह से पकड़ा। नीलाभ ने टूटी तश्तरी से बाप के गले पर रेत दिया। चोपड़ा का बॅलन्स बिगड़ गया। वो गिर पड़ा और उसने अपनी गर्दन से निकलते खून को देख कर नीलाभ को एक भद्दी सी गाली दी। नीलाभ ने झटके से बगल का ड्रावर खोला और उसमें से पिस्तौल निकाल कर बाप के सामने कर दी। चोपड़ा घबड़ा गया। अपनी पत्नी का नाम लेकर चिल्लाया। जब तक मिसेज चोपड़ा आतीं नीलाभ ने दो गोलियाँ बाप के शरीर में गाड़ दीं। खून तो बह ही रहा था, जान भी निकल गई। चिल्लाहट सुन कर ब्रूटो और सेवाराम भी कमरे में आ गए। ब्रूटो इधर उधर सूँघ साँघ कर वापस चला गया। सेवाराम आँखें फाड़े देखता रह गया। चोपड़ा को अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसे मृतक घोषित कर दिया गया। लेकिन गोली लगी थी इसलिए ‘केस’ पुलिस को सौंप दिया गया। गोली किसने चलाई यह तो सबको मालूम था। लेकिन चोपड़ा खानदान का इकलौता लड़का जेल जाए ये कोई नहीं चाहता था। पुलिस के सुझाव पर सेवाराम को नाथा गया। उसके परिवार की सारी जिम्मेदारी का वादा और पाँच लाख रुपये नकद दिए गए। सेवाराम ने गुनाह कुबूल लिया। एफ.आई.आर. दर्ज हो गई।

चोपड़ा के चौथे के दो दिन बाद मुख्यमंत्री की पार्टी के यहाँ से मिसेज चोपड़ा के लिए बुलावा आया।

– “पार्टी के लिए कुछ डोनेशन…”

– “अभी तो दिया था…”

– “वो तो पहले… पाँच लाख… अब तो मर्डर हो चुका है… बचना है तो देना पड़ेगा…”

– “तो…?”

– ‘तो…पाँच करोड़!”

– “इतना…? मैं कहाँ से लाऊँ इतना पैसा…?”

– ” लड़के की कीमत तो कहीं ज्यादा है मैडम… उसके सामने पाँच करोड़ की क्या औकात…!”

– “ये ब्लैकमेल है…”

– “पुलिस को सँभाल रही हैं… तो हमें भी तो सँभालिए… पुलिस आखिर हमारे ही अंडर में है।”

– “इज दिस ए गेम यू आर प्लेइंग…?!”

– “एवरीवन इज प्लेइंग गेम्स ऑल दी टाइम… कोई इस तरह कोई उस तरह… कोई धंधे में कोई कंप्यूटर पर कोई आपसी व्यवहार में… एवरीवन इज प्लेइंग गेम्स…! …कोई जल्दी नहीं… हफ्ते भर बाद भिजवा दीजिए…”

मिसेज चोपड़ा आँखें फाड़े पहले तो देखती रह गईं। फिर उठीं और कमरे से बाहर जाते जाते अपना फोन दिखा कर पलट कर बोलीं, “मैंने भी आपकी बातें रिकॉर्ड कर ली हैं। अब या तो आप एक करोड़ पर मान जाइए…। या फिर कहिए तो ये मैं प्रेस को दे दूँ…”

पार्टी दफ्तर में बैठा मंत्री फटी आँखों से उन्हें कमरे से बाहर जाते देखता रह गया।

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