आज के दिन | माहेश्वर तिवारी
आज के दिन | माहेश्वर तिवारी
लग रहा है
नहीं चौदह वर्ष बीते
आज के दिन भी।
खंडहर-सी हैं अयोध्याएँ
ढह चुकी हैं
सूर्य को अंकवार देती
गुंबदें-मीनार
हाथ में है एक टूटा धनुष
तरकस में
पड़े हैं तीर सारे
ढह गई है किले की दीवार,
आ गया कैसा समय
जो तेज चाकू की तरह
महसूस होती
पीठ में चुभती हुई पिन भी।
आज कितनी
नाप आए हैं
समय की दूरियाँ
आदमी के पाँव
किंतु अब भी है
खड़ा टूटी पतीली लिए
अपना ऊँघता-सा गाँव
दूसरों की जगह
वैसे ले चुकी हैं
छतें पक्की और
कुछ टिन भी।