विकृति | रविकांत

विकृति | रविकांत

गहरे हरे रंग की चाह में
खेतों की जगह
बनाता हूँ
घास के मैदान

सौंदर्य को हर कहीं
नमूने की तरह देखता हुआ
किसी विकट सुंदरता की आस में भटकता हूँ

हर पर्दे में झाँक कर देखता हूँ
छुप कर डायरियों को पढ़ता हूँ जरूर
किसी भव्य रहस्य की प्यास में
चीरता हूँ छिलके, मांस, गुठलियाँ और शून्य

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सीधे से कही गई कोई बात
सीधी-सी नहीं लगती
बहुत सारे सरल अर्थों को तोड़कर
खोजता हूँ कोई गहरा अर्थ