वक्त की दहलीज पर | जगदीश श्रीवास्तव
वक्त की दहलीज पर | जगदीश श्रीवास्तव

वक्त की दहलीज पर | जगदीश श्रीवास्तव

वक्त की दहलीज पर | जगदीश श्रीवास्तव

वक्त की दहलीज पर
ठहरे हुए।

हर शख्स गिरफ्तार है
अपने ही जाल में
डस रहे हैं घरों को
दीवार के साए
पाँव में सड़कों के
इतने पड़ गए छाले
चिमनियों के धुएँ से
चेहरे हुए काले
भिखारी फुटपाथ पर बहरे हुए।

See also  खाली प्लेटफार्म | प्रमोद कुमार तिवारी

हादसों के शहर में
क्या क्या ? नहीं होता
जहन में दहशत है
केवल घर नहीं होता
सिमट कर जब भूख
आँखों में समाती है
मौत को फिर जिंदगी
दर्पण दिखाती है
घाव मन के और भी गहरे हुए।

गली चौराहे सड़क भी
भीड़ में खो जाएँगे
लौटकर अपने घरों में
अजनबी हो जाएँगे
ये न सोचा था कि हमने
वक्त ऐसा आएगा
आदमी और गाँव को
सारा शहर खा जाएगा
त्रासदी है वक्त पर पहरे हुए।

Leave a comment

Leave a Reply