कल वसंत पंचमी थी
हम घूमते रहे थे
शहर में
शहर की कई फुलवारियों में
फूलों का निमंत्रण
मादक हो न हो
होता है पवित्र निश्छल विश्वासभीना
मैंने कल ही जाना यह
तुम्हारे साथ चलते हुए
और आज इस क्षण
जब घर में पूरा कर रहे हैं हम
अपने-अपने हिस्से का काम
तुमने बाँध रखा है सिर को तौलिए से
निकाल रही हो जाले कोने-अंतरे से
उन्हीं में से एक-दो आ गिरे हैं तौलिए पर
लटक रहे हैं तुम्हारे गालों पर
ऐसे में तुम अजब-गजब दिखती हो
मेरे टोकने पर हँस देती हो
और सचमुच बदल जाता है मेरी आँखों का रंग
मुझे महसूस होता है
जैसे सृष्टि के सारे फूलों का रंग
उतर आया है तुम्हारी हँसी में।