विवेक के चक्रवात में,
एक ही चक्रवात में
आओ, चल दें हम सब देवी के पीछे !
हंस के पंख की तरह
लोगों ने उठा रखी है श्रम की ध्वजा।
स्वतंत्रता की जलती आँखें !
आग की लपटें भी ठंडी पड़ जाती हैं उनके सामने
उनकी भूख के
निर्मित हाने दो बिंब नए नए !
मित्रो, आओ, चल दें गीतों की ओर !
स्वतंत्रता के लिए कदम बढ़ाओ – आगे !
हम वे देश होंगे जो जी उठा है फिर से
हममें से हर एक हो उठेगा जीवित अब !
आओ, चलें उस खूबसूरत राह की ओर
कदमों की स्पष्ट आवाज सुनते हुए,
यदि देवता भी हो बँधे हुए बेड़ियों से
हम उन्हें भी प्रदान करें स्वतंत्रता !