स्वप्न | महेन्द्र भटनागर
स्वप्न | महेन्द्र भटनागर

स्वप्न | महेन्द्र भटनागर

स्वप्न | महेन्द्र भटनागर

पागल सिरफिरे
किसी भटनागर ने
माननीय प्रधन-मंत्री… की
हत्या कर दी,
भून दिया गोली से!!

खबर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको –
‘भटनागर है,
मारो… मारो… साले को!
हत्यारा है… हत्यारा है!’

मैंने उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख कर समझाया –
भाई, मैं वैसा ‘भटनागर’ नहीं!
अरे, यह तो फकत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नहीं!
मैं
‘महेंद्रभटनागर हूँ,
या ‘महेंद्र’ हूँ
भटनागर-वटनागर नहीं,
भई, कदापि नहीं!
जरा, सोचो-समझो।

लेकिन भीड़ सोचती कब है?
तर्क सचाई सुनती कब है?
सब टूट पड़े मुझ पर
और राख कर दिया मेरा घर!!

इतिहास गवाही दे –
किन-किन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह विभीषिका,
यह जुल्म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
दरिंदगी की ऐसी रौ में
मानव समाज
हो पथ-भ्रष्ट बहा?

वंश हमारा
धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों
नामों से, उपनामों से?
कोई सहज बता दे –
ईसाई हूँ या मुस्लिम
या फिर हिंदू हूँ
(कार्यस्थ एक,
शूद्र कहीं का!), स
कहा करे कि
‘नाम है मेरा – महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म!’
(न और कोई मर्म!)

अतः कहना सही नहीं –
‘क्या धरा है नाम में!’
अथवा
‘जात न पूछो साधु की!’
हे कबीर!
क्या कोई मानेगा बात तुम्हारी?
आखिर,
कब मानेगा बात तुम्हारी?

‘शिक्षित’ समाज में,
‘सभ्य सुसंस्कृत’ समाज में
आदमी – सुरक्षित है कितना?
आदमी – अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही,
दे, सत्य गवाही!

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *