आज बहुत दिनों बाद सोया
दोपहर में
उठा शीतल-नयन प्रसन्न मन
सब कुछ अच्छा-अच्छा लगा।

कभी दोपहर की नींद
हिस्सा थी दिनचर्या की
न सोए तो भारी हो जाती थीं रातें भी

कस्बा बदला
दिनचर्या बदली
दोपहर की नींद विलीन हो गई
अर्धरात्रि की निद्रा में

न जाने कहाँ बिला गया
दोपहर का संगीत

जाने कहाँ डूब गई वह मादकता
जो समा जाती थी
दोपहर चढ़ते-चढ़ते

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मुझे दुख नहीं
दोपहरी के नींद के स्थगन का
मुझे मलाल नहीं भागमभाग का
इसे मैंने चुना है फिर प्रलाप कैसा

जो है अपने हिस्से का सच है
लेकिन आज जो थी दोपहर में
आँखों में बदन में
और जो है उसके बाद मन में
वह भी सच है इसी जीवन का

आखिर क्या करूँ इस पल का
क्या इसे विसर्जित कर दूँ
किसी और सुख में
नहीं, नहीं कदापि नहीं
मैं इसे विसर्जित नहीं कर सकता
किसी भी अन्य सुख में

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यह पल आईना है
जीवन का
सुख का