यह समन्दर की पछाड़
तोड़ती है हाड़ तट का –
अति कठोर पहाड़।
पी गया हूँ दृश्य वर्षा का :
हर्ष बादल का
हृदय में भर कर हुआ हूँ हवा-सा हलका।
धुन रही थीं सर
व्यर्थ व्याकुल मत्त लहरें
वहीं आ-आकर
जहाँ था मैं खड़ा
मौन;
समय के आघात से पोली, खड़ी दीवारें
जिस तरह घहरें
एक के बाद एक, सहसा।
चाँदनी की उँगलियाँ चंचल
क्रोशिये से बुन रही थीं चपल
फेन-झालर बेल, मानो।
पंक्तियों में टूटती-गिरती
चाँदनी में लोटती लहरें
बिजलियों-सी कौंदती लहरें
मछलियों-सी बिछल पड़तीं तड़पती लहरें
बार-बार।
स्वप्न में रौंदी हुई-सी विकल सिकता
पुतलियों-सी मूँद लेती
आँख।
यह समन्दर की पछाड़
तोड़ती है हाड़ तट का —
अति कठोर पहाड़।
यह समन्दर की पछाड़
[1945]