रिमझिम के फूल झरे
रिमझिम के फूल झरे

रिमझिम के फूल झरे रात से,
बूँदों के गुच्‍छे मारे मेघा।

कल तक देखे हैं हर खेत ने
अनभीगे वे दिन मन मारकर,
बिना बात अम्‍मा भी खुश हुई
हल-बैलों की नजर उतारकर
उमस-उमस उमर-कैद काटकर
जाने क्‍या सगुन विचारे मेघा।

पहली बौछारों-भीगी धरा,
दाह बुझा नदिया की देह का,
घुल-घुलकर धार-धार नीर में
मुँह मोड़े खारापन रेह का,
चमक उठी आकाशे जो स्‍वयं
बिजली के रूप सँवारे मेघा। 

See also  वह इतना निजी | पंकज चतुर्वेदी

लहराई जल-झालर इस तरह
रात-रात झूलों के नाम है,
घिरकर घहराई जो घन-घटा
लगता दिन-दुपहर ही शाम है,
दिशा-दिशा झूमझूम घूमकर
सागर का कर्ज उतारे मेघा।

क्षितिजों तक इंद्रधनु तना कभी,
उभरे है कभी स्वर्ण चित्र-सा
बार-बार किरन-घुले रंग में
महके कुछ मौसम के इत्र-सा
खोजे जाने किस को जन्‍म से,
जाने क्‍या नाम पुकारे मेघा?

Leave a comment

Leave a Reply