दिन गीत-गीत हो चला
दिन गीत-गीत हो चला

एक क्षण तुम्‍हारे ही मीठे संदर्भ का,
सारा दिन गीत-गीत हो चला।

फैलने लगे मन से देह तक
चाँदनी-कटे साये राह के,
अजनबी निगाहों ने तय किए
फासले समानांतर दाह के,
अग्नि-झील तक हम को ले गई
जोड़ भर गुलाबों की श्रृंखला।
तोड़कर घुटन वाले दायरे
एक प्‍यास शब्‍दों तक आ गई,
कंधों पर मरुथल ढोते हुए
हरी गंध प्राणों पर छा गई,
पल में कोई तुम से सीखे –
मन को फागुन करने की कला।

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