सुबह बेला

एक मुट्ठी रेत में उठता हुआ वह
एक तिनका
चमक उठता है चाँदनी सदृश
एक बूँद ओस के साथ

सुदूर घिसटती हुई ट्रेन की आवाज
कुहरे को ठेलती हुई
छिक-छिक करती

स्वप्न कुछ साकी जैसे इधर-उधर बिखरे
अलसाती नदी उठ रही है
तट सुहाने छोड़कर

एक मुट्टी रेत
चहुँ और वात प्रसरित
खेत हैं बस खेत

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कूचियाँ ये भर रहीं कुछ रंग
सूर्य है कि सिर नवाता
पाँव छूता
दे रहा है रेत को कुछ अंग

लोग हैं कि आ रहे
रूक रहे
झुक रहे
देख इनके ढंग!
   (‘रेत में आकृतियाँ’ संग्रह से)