रात-रात भर | माधव कौशिक
रात-रात भर | माधव कौशिक

रात-रात भर | माधव कौशिक

रात-रात भर | माधव कौशिक

रात-रात भर
रहे सिसकते
संसद के गलियारे।

बौने-बौने लोगों ने की
बातें ऊँची-ऊँची
सूरज के चेहरे
पर मल दी
कालिख साफ-समूची

जुगनू का आखेट खेलने
निकल पड़े अंधियारे।

‘सत्यमेव-जयते’
के नीचे
झूठ अकड़ कर बैठा
शोर-शराबे में सन्नाटा
सन्नाटे से ऐंठा

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सच्चाई की गरदन छोटी
भारी-भरकम आरे।

भाषा को निर्जीव
समझ कर
ऐसे पत्थर मारे
झरनों की झोली में डाले
सब ने सागर खारे

जोर जबरदस्ती शबनम को
दे डाले अंगारे।

हँसी-ठिठोली
चुहलबाजियाँ
व्यंग्य जहर में डूबे
सारहीन चर्चाएँ सुनकर
दरवाजे भी ऊबे

उहापोह असमंजस में हैं
लोकराज के नारे।

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