पूरब के घोड़े

खिड़की के ऊपर लटकते झोले पर
हाथों का सहारा बनाकर औंधे मुँह टिक गया
मैंने सुना भर था, घोड़े सो लेते हैं खड़े खड़े

वे वापस जा रहे थे किसी तीज-त्योहार में
तिल धरने भर जगह सिर्फ मुहावरों में ही नहीं
फिर भी किसी तरह धँसे हुए थे

जब चले तो पैर टिकाने, बैठने उठंगने भर जगह के लिए
मारामारी काँवकाँव के बीच अचानक झलक जाता
दिल्ली और आसपास की खड़ी बोली में से
मगही मैथिली भोजपुरी अवधी का कोई फुरफुराता सा शब्द
धीरे धीरे बातचीत में बढ़ने लगे बोलियों के शब्द
बदलने लगी वाक्य संरचना
रुक्ष खड़ेपन की जगह उभरने लगा दूसरी तरह का लोच
जैसे गा रहे हों
छोटी छोटी चीजों के विनिमय के साथ लगातार बतियाने लगे
जैसे खानपान के सूखेपन को रसदार बना रहे हों,
लगा अब आने वाला है वह इलाका जहाँ बसती है उनकी आत्मा

See also  भेदिए डिब्बे | आलोक पराडकर

घोड़े दिल्ली में पैदा नहीं हुए,
आते हैं सिर झुकाए पीठ पर ढोते रहते हैं दिल्ली
उनके सुम नहीं हैं, सूज जाते हैं पैर
भूलकर भी अपशब्द नहीं बोलते दिल्ली के बारे में
उनके मुँह में रहती है प्यारी सी लगाम

वे इतने ताकतवर नहीं हैं कि
दिल्ली उन्हें प्यार करे
या दिल्ली के प्यार में वे पागल हों जाएँ

Leave a Reply

%d bloggers like this: