पराए शहर में माँ की याद | कुमार अनुपम
पराए शहर में माँ की याद | कुमार अनुपम

पराए शहर में माँ की याद | कुमार अनुपम

नींद नहीं आ रही और याद आ रही है माँ

हालाँकि कहीं भी कभी

आ जाती थी नींद मुझे लोरी के बिना भी

(जो माँ ने कभी नहीं गाया मेरी नींद के लिए)

आ जाती थी मुझे नींद कहीं कभी

मसलन, पापा के भीषण खर्राटों

और दारू की असह्य बू के बीच भी

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भले ही

चीथड़ा होती रहती थी मेरी नींद और आत्मा

लौटता था

पानी से सींच कर भूख का खेत

तो पड़ते ही खाट पर आ जाती थी नींद

पर जाने क्या बात है कि नींद नहीं आ रही

और याद आ रही है माँ

याद आ रही है माँ

जिसे नहीं देखा कभी हँसते हुए खुल कर

कभी गाते हुए नहीं देखा

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जिसे नहीं देखा नाचते हुए कभी

खिलखिलाती तो कैसी दिखती माँ?

कैसी दिखती गीत गुनगुनाती हुई माँ?

माँ ठुमुकती तो कैसी दिखती?

मशीन से इतर होती अगर

तो कैसी दिखती माँ?

जाने कितने रहस्य की ग्रंथियों का पुलिंदा

माँ

जो नहीं लिखती

पहली बार घर से दूर

अपने बेटे को एक चिट्ठी भी

बहन लिखती है चिट्ठी में अकसर –

‘भइया, जब से गए हो ट्रेनिंग के लिए घर से बाहर

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और रहस्यमय हो गई है माँ

जिस दिन बनाती हूँ कोई बढ़िया व्यंजन

अचानक बताती है माँ

कि आज तो उपवास है मेरा…’

माँ के उपवास की ऊष्म बेचैनी से लथपथ

मेरी नींद

कहीं माँ के आस-पास चली गई है

स्वप्न भर ऊर्जा की तलाश में

दुनिया की तमाम चिंताओं को स्थगित करती हुई

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