नदी थक चुकी है
नदी थक चुकी है

नदी थक चुकी है बहते हुए
रात-दिन, शोक में मूँद कर आँखें
अब रोना चाहती हैं कुछ पल, कि कितनी सदियाँ लगीं खुद को समझने में।

नदी तोडना चाहती है तटबंध
और हरहरा कर फैलना चाहती है लहलहाते मैदानों में
पुचकारना चाहती है बैठाकर मन भर गोद में।

नदी बदलना चाहती है रास्ता
कि अब दिशाओं का मौन टूटा है
खेलना चाहती है बाग के नीम की डालियों पर बैठ कर जी भर
हम जोली संग।

See also  खिड़की

नदी सहेली बनाना चाहती है पुरवाई की,
पकड़ना चाहती है अपने गोद में डूबते हुए सूरज की डोर को…
बाँधना चाहती है चाँद के पतंग में तारों की डोर
नदी ने बना लिया है घोंसला समुद्र के मुहाने पर,
टाँक रही है सुनहले मनके और सतरंगी पंखों का इंद्रधनुष पीठ पर,
कह रही है सखियों से चलो उड़ें आकाश में पूरब क्षितिज की ओर।

Leave a comment

Leave a Reply