हाशियों का घर | जगदीश श्रीवास्तव
हाशियों का घर | जगदीश श्रीवास्तव

हाशियों का घर | जगदीश श्रीवास्तव

हाशियों का घर | जगदीश श्रीवास्तव

अँधेरों के नाम
कर दी है वसीयत
हाशियों का शहर
जब से हो गया है।

इश्तहारों-सी टँगी दीवाल पर दहशत
हवाओं में जहर अब घुलने लगा है
गली सड़क चौराहे सुनसान रातों में
एक आदमखोर तम मिलने लगा है

इजाजत ये समय
अब देता नहीं है
जो बढ़ा आगे
कहीं अब खो गया है।

व्यवस्था को रोज हम देते रहे गाली
जहन में आक्रोश पहुँचे समारोहों में
काटते ही जा रहे हैं खून के रिश्ते
आदमी पत्थर हुआ है, अब निगाहों में

साजिशें भी दोगली
जब से हुई हैं
भीड़ में अस्तित्व भी
गुम हो गया है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *