मेरी जिन्दगी बहन | बोरीस पास्तरनाक
मेरी जिन्दगी बहन | बोरीस पास्तरनाक

मेरी जिन्दगी बहन | बोरीस पास्तरनाक

मेरी जिन्दगी बहन | बोरीस पास्तरनाक

मेरी जिन्‍दगी बहन ने आज की बाढ़
और बहार की इस बारिश में
ठोकरें खाई हैं हर चीज से
लेकिन सजे-धजे दंभी लोग
बड़बड़ा रहे हैं जोर-जोर से
और डस रहे हैं एक विनम्रता के साथ
जई के खेतों में साँप।

बड़ों के पास अपने होते हैं तर्क
हमारी तर्क होते हैं उनके लिए हास्‍यास्‍पद
बारिश में बैंगनी आभा लिए होती हैं आँखें
क्षितिज से आती है महक भीगी सुरभिरूपा की।

मई के महीने में जब गाड़ियों की समय सारणी
पढ़ते हैं हम कामीशिन रेलवे स्‍टशेन से गुजरते हुए
यह समय सारणी होती है विराट
पावन ग्रंथों से भी कहीं अधिक विराट
भले ही बार-बार पढ़ना पड़ता है उसे आरंभ से।

ज्‍यों ही सूर्यास्‍त की किरणें
आलोकित करने लगती हैं गाँव की स्त्रियों को
पटड़ियों से सट कर खड़ी होती हैं वे
और तब लगता है यह कोई छोटा स्‍टेशन तो नहीं
और डूबता हुआ सूरज सांत्‍वना देने लगता है मुझे।

तीसरी घंटी बजते ही उसके स्‍वर
कहते हैं क्षमायाचना करते हुए :
खेद है, यह वह जगह है नहीं,
पर्दे के पीछे से झुलसती रात के आते हैं झोंके
तारों की ओर उठते पायदानों से
अपनी जगह आ बैठते हैं निर्जन स्‍तैपी।

झपकी लेते, आँखें मींचते मीठी नींद सो रहे हैं लोग,
मृगतृष्‍णा की तरह लेटी होती है प्रेमिका,
रेल के डिब्‍बों के किवाड़ों की तरह इस क्षण
धड़कता है हृदय स्‍तैपी से गुजरते हुए।

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