मुलाकात | बोरीस पास्तरनाक
मुलाकात | बोरीस पास्तरनाक

मुलाकात | बोरीस पास्तरनाक

मुलाकात | बोरीस पास्तरनाक

सब रास्‍ते भर जाते हैं बर्फ से
छत की दलानों पर बर्फ के ढेर।
निकलता हूँ बाहर सैर के लिए
कि खड़ी मिलती हो तुम किवाड़ के पास।

अकेली, पतझर के मौसम का ओवरकोट पहने
टोपी और दस्‍तानों के बिना,
लड़ रही होती हो तुम अपनी उद्धिग्‍नता से
और चबाती रहती हो गीली बर्फ।

हट जाते हैं पीछे अंधकार में
सारे पेड़ और बाड़।
हिमपात के बीच अकेली
खड़ी रहती हो तुम एक कोने में।

सिर पर बँधे रूमाल से टपकती हैं बूँदें
आस्‍तीनों से होती हुई कलाई तक,
ओसकणों की तरह वे
चमकती हैं तुम्‍हारे बालों में।

बालों की श्‍वेत लटों में
आलोकित है मुखमण्‍डल
रूमाल और शरीर
और यह ओवरकोट।

बरौनियों पर पिघलती है बर्फ
और आँखों में अवसाद
पूरी-की-पूरी तुम्‍हारी आकृति
बनी हो जैसे एक टुकड़े से।
मेरे हृदय के बहुत भीतर
घुमाया गया है तुम्‍हें
पेच की तरह,
सुरमे से ढके लोहे के टुकड़े की तरह।

तुम्‍हारे रूप की विनम्रता
कर गई है घर हृदय के भीतर
अब मुझे कुछ लेना-देना नहीं
दुनिया की निष्‍ठुरता से।

इसीलिए धुँधली और अस्‍पष्‍ट
दिख रही है यह रात इस बर्फ में,
संभव नहीं मेरे लिए खींच पाना
तुम्‍हारे और अपने बीच कोई लकीर।

कौन होंगे हम और कहाँ
जब उन बरसों में से
बची होंगी सिर्फ अफवाहे
और हम नहीं होंगे इस संसार में।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *