मंगलवार की दोपहर | गाब्रिएल गार्सिया मार्केज
मंगलवार की दोपहर | गाब्रिएल गार्सिया मार्केज

मंगलवार की दोपहर | गाब्रिएल गार्सिया मार्केज – Mangalavaar Ki Dopahar

मंगलवार की दोपहर | गाब्रिएल गार्सिया मार्केज

ट्रेन रेतीली चट्टानों की थरथराती सुरंग से प्रकट हुई और उसने बेहद लंबे और समतल केले के बागानों को पार करना शुरू कर दिया। हवा नम हो चुकी थी और उन्‍हें अब समुद्री हवा महसूस नहीं हो रही थी। डिब्‍बे की खिड़की से दमघोंटू धुआँ भीतर आ रहा था। पटरी के समानांतर सँकरे रास्‍ते से केले के हरे गुच्‍छों से लदी बैलगाड़ियाँ जा रही थीं, सड़क के पार बेमेल अंतराल पर बगैर जुती हुई जमीन पर छत पर लटके पंखों वाले दफ्तर, लाल ईटों की इमारतें, कुर्सियों और छज्‍जों पर डली छोटी मेज वाले मकान थे जो धूल भरे ताड़ के वृक्षों और गुलाब की झाड़ियों के इर्दगिर्द थे। सुबह के ग्‍यारह बज रहे थे और गर्मी अभी शुरू नहीं हुई थी।

‘अच्‍छा होगा तुम खिड़की बंद कर लो’, स्‍त्री ने कहा – ‘तुम्‍हारे बाल कालिख से भर जाएँगे,’ लड़की ने कोशिश की लेकिन जंग लगने के कारण खिड़की का पल्‍ला बंद नहीं हुआ।

तीसरी श्रेणी के अकेले डिब्‍बे में वे दो ही यात्री थे। इंजन का धुआँ खिड़की की राह डिब्‍बे में आ रहा था। लड़की ने अपनी सीट छोड़ी और उनके पास जो सामान था उसे नीचे रखा। एक प्‍लास्‍टिक का झोला जिसमें खाने-पीने की चीजें थीं और अखबार में लिपटा फूलों का एक गुलदस्‍ता। वह अब सामने की सीट पर आ बैठी जो खिड़की से दूर थी और उसकी माँ के सामने थी। वे दोनों जर्जर और गरीब शोक वस्‍त्र पहने हुई थीं। लड़की बारह साल की थी और और ट्रेन में बैठने का उसका यह पहला मौका था। स्‍त्री अपनी पलकों की नीली नसों, अपनी छोटी सी नम्र अनगढ़ देह और लबादे की शक्‍ल के पहनावे के कारण उसकी माँ से भी ज्यादा एक बुजुर्ग लग रही थी। अपनी सीट से रीढ़ को दबाए वह बैठी थी और दोनों हाथों में एक बेहद घिसा हुआ चमड़े का थैला लिए थी। गरीबी की आदी किसी स्‍त्री की तरह वह अपूर्व शांति से लैस थी। बारह बजे के आसपास गर्मी का प्रकोप शुरू हुआ। ट्रेन दस मिनट के लिए पानी लेने के कारण एक ऐसे स्‍टेशन पर रुकी जहाँ कोई कस्‍बा नहीं था।

बाहर बागानों की रहस्‍यमयी खामोशी में साफ सुथरी परछाइयाँ थीं लेकिन डिब्‍बे के अंदर ठहरी हुई हवा से बगैर पकाए गए चमड़े की बू आ रही थी। ट्रेन ने गति नहीं पकड़ी। वह एक से दिखने वाले कस्‍बों में रुकी जहाँ मकान चमकदार रंगों से पुते हुए थे। स्‍त्री का सिर हिला और वह नींद में डूब गई। लड़की ने अपनी जूतियाँ उतार दीं। फिर वह बाथरूम तक गई जहाँ उसने फूलों के गुलदस्‍ते पर पानी छिड़का। जब वह अपनी सीट पर लौटी उसकी माँ खाने के लिए उसका इंतजार कर रही थी। उसने उसे पनीर का एक टुकड़ा, मकई का आधा केक और एक बिस्‍कुट दिया और इतना ही हिस्‍सा खुद के लिए प्‍लास्‍टिक के झोले से निकाला। जब वे खा रहे थे, ट्रेन धीमी गति से एक लोहे के पुल को पार करने लगी और उसने पहले के कस्‍बों जैसा ही एक और कस्‍बा पार किया। फर्क सिर्फ यह था कि इस एक कस्‍बे में चौराहे पर भीड़ थी। दमनकारी सूरज के नीचे एक बैंड जीवन धुन बजा रहा था। कस्‍बे के दूसरी तरफ बागान एक मैदान में जाकर खत्‍म हो गए थे जहाँ जमीन सूखे के कारण दरारों से अँटी पड़ी थी। स्‍त्री ने खाना बंद किया। ‘अपनी जूतियाँ पहन लो’ उसने कहा। लड़की ने बाहर देखा। उजाड़ समतल मैदान के सिवा उसे कुछ नजर नहीं आया। ट्रेन ने फिर गति पकड़ी और बिस्‍कुट का आखिरी टुकड़ा उसने झोले में डाल दिया और जल्‍द से अपनी जूतियाँ पहन लीं। स्‍त्री ने उसे एक कंघी दी।

‘अपने बालों में कंघी कर लो,’ उसने कहा – लड़की जब अपने बालों में कंघी कर रही थी तब ट्रेन ने सीटी बजाई। स्‍त्री ने लड़की की गर्दन का पसीना और चेहरे का तेल अपनी उँगुलियों से पोंछ दिया। जब लड़की ने कंघी करना बंद किया, ट्रेन एक विस्‍तृत लेकिन पिछले तमाम कस्‍बों से ज्यादा उदास कस्‍बे के मकानों के पास से गुजर रही थी। ‘यदि तुम कुछ करने जैसा महसूस कर रही हो तो कर लो,’ स्‍त्री ने कहा। ‘बाद में प्‍यास से मर भी रही हो तो भी कहीं पानी मत पीना और रोना-धोना बिल्‍कुल नहीं।’

See also  जलती झाड़ी | निर्मल वर्मा

लड़की ने अपना सिर हिलाया। खिड़की से सूखी जलती हुई हवा का झोंका भीतर आया। उसके संग इंजिन की सीटी का शब्‍द और रेल के डिब्‍बों की खड़खड़ाहट भी सुनाई दी। स्‍त्री ने प्‍लास्‍टिक के झोले को तह किया जिसमें बचा हुआ खाना था और उसे चमड़े के बैग में रखा। एक क्षण के लिए कस्‍बे का समूचा चित्र उस चमकीले अगस्‍त के मंगलवार को खिड़की पर दिखलाई दिया। भीगे हुए अखबार में लड़की ने गुलदस्‍ते को सँजोया। खिड़की से जरा आगे बढ़ी और अपनी माँ की ओर देखने लगी। बदले में उसे माँ से एक सुखद अहसास मिला। ट्रेन ने सीटी दी और चल पड़ी। एक क्षण बाद वह रुक गई।

स्‍टेशन पर कोई नहीं था। गली की दूसरी तरफ बादाम के पेड़ों वाले रास्‍ते पर मनोरंजन कक्ष खुला हुआ था। कस्‍बा गर्मी की तपन में तैर रहा था। स्‍त्री और लड़की ट्रेन से उतरे और परित्‍यक्‍त स्‍टेशन को उन्‍होंने पार किया। वहाँ उखड़ी हुई फर्शियों के बीच घास उग आई थी।

दो बज रहे थे। उस प्रहर में ऊँघ में डूबा हुआ कस्‍बा दोपहर के आराम के वक्त झपकी ले रहा था। दुकानें, कस्‍बे का दफ्तर और पाठशाला ग्‍यारह बजे बंद हो चुके थे और चार बजे ही वे सब खुलने को थे, उस वक्त ट्रेन वापिस लौट रही होती। सिर्फ स्‍टेशन के सामने स्‍थित होटल, उसका शराबघर, मनोरंजन कक्ष और चौराहे के एक ओर स्‍थित तारघर ही खुला हुआ था। मकान जिनमें से बहुत से केले की कंपनी के नक्‍शे पर तामीर किए गए थे, अंदर से बंद थे और उनके परदे गिरे हुए थे। उनमें से कुछ में गर्मी ऐसी थी कि उनके रहवासी बरामदे में बैठे खाना खा रहे थे। कुछ दूसरे दीवारों के सहारे कुर्सियाँ डाले बादाम के वृक्षों के बीच दुपहर की झपकी में डूबे हुए थे। बादाम के वृक्षों की सुरक्षित छाया में स्‍त्री और लड़की ने दुपहर के आराम को व्‍यवधान पहुँचाए बगैर कस्‍बे में प्रवेश किया। वे सीधे पादरी के घर पहुँचे। स्‍त्री ने अपने नाखूनों से दरवाजे की लोहे की जाली पर आवाज की और एक क्षण की प्रतीक्षा की। उसने दोबारा ठकठकाया। अंदर बिजली का पंखा चल रहा था। उन्‍होंने पदचापें नहीं सुनीं। दरवाजे की चरमराहट भी बमुश्‍किल सुनी और एकाएक धातु से बनी जाली के पास एक चौकस आवाज सुनाई दी – कौन है? स्‍त्री ने जाली के पार देखने की कोशिश की।

‘मुझे पादरी की जरूरत है’ स्‍त्री ने कहा।

‘वे अभी सो रहे हैं’।

‘यह एक आपातकालीन परिस्‍थिति है’, स्‍त्री ने जोर देकर कहा।

उसकी आवाज में एक संयत दृढ़ता थी। बगैर आवाज किए दरवाजा खुला और एक मोटी बुजुर्ग स्‍त्री प्रकट हुई। उसकी त्‍वचा बेहद जर्द और बाल लोहे की रंगत लिए हुए थे। चश्‍मे के मोटे शीशों के पार उसकी आँखें बेहद छोटी दिखलाई दे रही थीं। ‘अंदर आओ’ उसने कहा और दरवाजा खोल दिया। वे उस कमरे में प्रविष्‍ट हुए जो फूलों की बासी खुशबू से भरा हुआ था। घर की स्‍त्री उन्‍हें लकड़ी की बेंच तक ले गई और बैठने का संकेत दिया। लड़की बैठ गई लेकिन कहीं खोई सी वह स्‍त्री अपने झोले को दोनों बाँहों में दबाए खड़ी रही। बिजली के पंखे के पार कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।

घर के अंतिम सिरे के दरवाजे से स्‍त्री दोबारा प्रकट हुई। उनका कहना है कि तुम्‍हें तीन बजे के बाद आना चाहिए। उसने धीमे स्‍वरों से कहा! अभी पाँच मिनट पहले ही बिस्‍तर पर लेटे हैं।

‘ट्रेन तीन बजकर तीस मिनट पर छूट जाएगी’, स्‍त्री ने कहा। यह एक संक्षिप्‍त और माकूल जवाब था लेकिन आवाज ठीक ठाक और निहितार्थों से भरी। घर की स्‍त्री पहली बार मुस्‍कराई, ‘ठीक है’, उसने कहा।

See also  आनर किलिंग | हुश्न तवस्सुम निहाँ

जब दरवाजा बंद हुआ, स्‍त्री लड़की के पास बैठ गई। वह संकीर्ण प्रतीक्षालय साफ-सुथरा लेकिन दयनीय लग रहा था। लकड़ी से खड़ी की गई आड़ की दूसरी तरफ काम करने की मेज जिस पर मेजपोश बिछा था और फूलदान के बाजू में एक पुरातन टाईपरायटर। चर्च के दस्‍तावेज इसके बाद थे। कोई देख सकता था कि यह एक ऐसा दफ्तर था जो एक अविवाहिता स्‍त्री चला रही थी। दरवाजा खुला और इस बार पादरी प्रकट हुए। वे रूमाल से अपना चश्‍मा साफ कर रहे थे। जब उन्‍होंने चश्‍मा पहना तभी यह ज्ञात हुआ कि वे दरवाजे पर आई स्‍त्री के भाई हैं।

‘मैं तुम्‍हारी मदद कैसे कर सकता हूँ?’, उन्‍होंने पूछा।

‘मुझे कब्रिस्‍तान की चाबियाँ चाहिए’, स्‍त्री ने कहा।

लड़की अपनी गोद में फूल लिए बैठी थी। बेंच के नीचे उसके पैर आपस में गुँथे हुए थे। पादरी ने उसे देखा। फिर स्‍त्री को देखा और खिड़की की तार से बनी जाली से बादल रहित चमकीले आकाश को ‘ऐसी गर्मी में’, उन्‍होंने कहा – ‘तुम्‍हें सूरज डूबने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए थी’ स्‍त्री ने खामोशी से सिर हिलाया, पादरी लकड़ी की आड़ के पार गया और अलमारी से उसने एक नोटबुक, लकड़ी की कलम और स्‍याही की दवात निकाली। वह मेज के पास बैठ गया। उसके हाथों पर जरूरत से ज्यादा बाल थे जो उसके गंजे सिर पर बालों की कमी को जैसे पूरा कर रहे थे।

‘तुम किस कब्र को देखना चाहती हो’, उन्‍होंने पूछा।

‘कार्लो सेंटेनो की कब्र’ स्‍त्री ने जवाब दिया।

‘कौन?’

‘कार्लो सेंटेनो’ स्‍त्री ने दुहराया। पादरी को कुछ भी समझ में नहीं आया।

‘वह एक चोर था जो पिछले सप्‍ताह यहाँ मारा गया था’, स्‍त्री ने उसी स्‍वर में जवाब दिया, ‘मैं उसकी माँ हूँ।’ पादरी ने उसे गौर से देखा, अपने पर काबू रखते हुए स्‍त्री ने उसे देखा और पादरी शरमा-से गए। उन्‍होंने सिर झुकाया और लिखने लगे। जब वे पृष्‍ठ भर चुके, उन्‍होंने स्‍त्री से तस्‍दीक करने के लिए कहा और ब्‍यौरों को पढ़ते हुए बगैर संकोच के वह जवाब देती रही। पादरी को पसीना आने लगा। लड़की ने अपनी बाईं जूती का बक्‍कल खोला और एड़ी बाहर निकाल कर बेंच के पायदान पर पैर रख दिया। उसने दाएँ पैर का भी यही किया।

वह सब पिछले सप्‍ताह के सोमवार को सुबह के तीन बजे यहाँ से कुछ दूर ही घटित हुआ था। रेबेका जो एक अकेली विधवा थी और अनर्गल चीजों से भरे अपने घर में रहती थी। उसने बारिश की फुहारों के बीच सुना कि मुख्‍य द्वार को कोई बाहर से खोलने की कोशिश कर रहा है। वह उठी और अलमारी से उस पुरातन रिवाल्‍वर को ढूँढ़ने लगी जिसे ‘कर्नल आरेलियानो बुएंदिया’ के जमाने से किसी ने इस्‍तेमाल नहीं किया था। और बगैर बत्ती जलाए वह शयनकक्ष में पहुँची। ताले के करीब घटित हो रही ध्‍वनियों से नहीं, बल्‍कि अपने अट्‌ठाइस वर्षों के एकाकी जीवन के कारण पैदा हुए भय से उसने कल्‍पना में उस दरवाजे को ही नहीं देखा, ताले की वास्‍तविक ऊँचाई का आकलन भी कर लिया। रिवाल्‍वर उसने दोनों हाथों में थामा और ट्रिगर दबा दिया। जीवन में पहली बार वह रिवाल्‍वर चला रही थी। धमाके के तुरंत बाद उसने जस्‍ते की छत पर गिरती बारिश की बुदबुदाहट के सिवा कुछ भी नहीं सुना फिर उसने सीमेंट के आँगन में किसी के गिरने की धातुई आवाज सुनी जो बेहद धीमी, खुशनुमा और भयावह रूप से थकी हुई लगी, ‘आह! मेरी माँ!

सुबह जब दरवाजे़ के बाहर उन्‍होंने उस आदमी को पाया, उसकी नाक के चिथड़े उड़ चुके थे। वह फलालैन की कमीज, रोजमर्रा की पतलून जिसमें धारीदार बेल्‍ट एक रस्‍सी थी, पहने हुए था और उसके पैर नंगे थे। कस्‍बे में किसी ने उसकी शिनाख्त नहीं की। जब पादरी ने लिखना बंद किया, वे बुदबुदाए, ‘तो उसका नाम कार्लोस सेंटेनो था।’

See also  आत्म-हत्या | अशोक कुमार

‘सेंटेनो अयाला’, स्‍त्री ने कहा, ‘वह मेरा इकलौता बेटा था।’

पादरी दोबारा अलमारी तक गए। उसके द्वार के भीतर दो जग लगी चाबियाँ लटक रही थीं। लड़की ने कल्‍पना की, जैसे कि माँ ने, जब वह लड़की हुआ करती थी, कल्‍पना की होगी और स्‍वयं पादरी ने कभी कल्‍पना की होगी वे संत पीटर की चाबियाँ हैं। उन्‍होंने चाबियों को उतारा। खुली नोटबुक पर रखा और अपने लिखे हुए पृष्‍ठ की ओर अँगुली से संकेत किया ‘यहाँ दस्‍तखत करो’, उन्‍होंने कहा। स्‍त्री ने अपनी बगल में झोला दबाए हुए अपना नाम लिखा। लड़की ने फूल उठाए और आड़ के समीप आकर सावधानीपूर्वक अपनी माँ को देखने लगी।

पादरी ने आह भरी, ‘उसे सही रास्‍ते पर लाने के लिए क्‍या तुमने कभी कोशिश की थी?’ दस्‍तखत करने के बाद स्‍त्री ने जवाब दिया ‘वह एक बहुत अच्‍छा इनसान था।’ पादरी ने पहले स्‍त्री और बाद में लड़की की ओर देखा और एक किस्‍म के पवित्र अचरज में डूबकर महसूस किया कि वे दोनों रोने नहीं जा रहीं। स्‍त्री ने उसी स्‍वर में कहा, ‘मैंने उससे कहा था कि वह कभी ऐसी चीज न चुराए जो किसी के मुँह का निवाला हो सकती है और उसने मुझे विश्‍वास दिलाया था, बल्‍कि, दूसरी तरफ जब वह बॉक्‍सिंग किया करता था, बॉक्‍सिंग की चोटों से आहत तीन दिन बिस्‍तर पर ही व्‍यतीत किया करता था।

‘उसे अपने सारे दाँत निकलवाने पड़े थे,’ लड़की ने बीच में कहा।

‘यह सच है,’ स्‍त्री ने सहमति व्‍यक्‍त की, ‘उन दिनों मेरे मुँह का हर निवाला मेरे बेटे को शनिवार की रातों को पहुँचाई जाती चोटों के स्‍वाद से भरा हुआ होता था।’

‘ईश्‍वर की इच्‍छा तर्कों से परे है’ पादरी ने जवाब दिया। उसने सुझाव दिया कि लू से बचने के लिए वे अपने सिर ढककर रखें। जम्‍हाई लेते और लगभग नींद में गर्क होते हुए उन्‍होंने हिदायत दी कि कार्लोस सेंटेना की कब्र कैसे ढूँढ़ी जा सकती है और कि जब वे लौटें उन्‍हें दरवाजे पर दस्‍तक नहीं देना चाहिए। चाबियाँ दरवाजे के नीचे डाल दी जाएँ और उसी स्‍थान पर यदि वे कर सकें, चर्च के लिए दान करना चाहिए। स्‍त्री ने उनके निर्देशों को ध्‍यान से सुना लेकिन बगैर मुस्‍कराए उन्‍हें धन्‍यवाद दिया। दरवाजा खोलने से पहले पादरी को लगा कि कोई भीतर झाँक रहा है और लोहे की जाली से उसकी नाक सटी हुई है। बाहर बच्‍चों का एक झुंड था जब दरवाजा पूरी तरह खोल दिया गया, बच्‍चे तितर-बितर हो चुके थे। साधारणतः उस प्रहर में गली में कोई भी नहीं हुआ करता था। अब वहाँ केवल बच्‍चे ही नहीं थे, बादाम के वृक्षों के नीचे अलग-अलग झुंडों में लोग बाग खड़े थे। पादरी ने गर्मी से बजबजाती गली को देखा और वे सब कुछ समझ गए। हौले से उन्‍होंने दरवाजा बंद कर दिया। ‘एक पल रुको’ स्‍त्री की ओर देखे बगैर वे बोले। अपनी रात की कमीज पर काली जैकेट पहने और कंधों पर बाल गिराए उनकी बहन दरवाजे़ पर प्रकट हुई। वह खामोशी से पादरी को देखने लगी।

‘क्‍या हुआ’, पादरी ने पूछा।

‘लोगों को मालूम हो चुका है’, उनकी बहन ने फुसफुसाकर कहा।

‘बेहतर होगा तुम लोग बरामदे वाले दरवाजे से निकल जाओ’, पादरी ने कहा।

‘वहाँ भी वही कुछ होगा’, बहन ने जवाब दिया – ‘हर एक शख्स खिड़की से लगा हुआ है।’

स्‍त्री तब तक कुछ भी समझ नहीं पाई थी। लौह जाली के पार उसने गली में देखने की कोशिश की फिर उसने फूलों का गुलदस्‍ता लड़की से ले लिया। वह दरवाजे की ओर बढ़ी। लड़की उसके पीछे थी।

पादरी ने कहा – ‘सूरज डूबने तक रुक जाओ, धूप में तुम पिघल जाओगी।’

उनकी बहन बोली – ‘प्रतीक्षा कर लो और मैं अपनी छतरी तुझे दे दूँगी’।

‘धन्‍यवाद’ स्‍त्री ने कहा – ‘हम ठीक ठाक हैं’ उसने लड़की का हाथ पकड़ा और गली में निकल पड़ी।

Download PDF (मंगलवार की दोपहर)

मंगलवार की दोपहर – Mangalavaar Ki Dopahar

Download PDF: Mangalavaar Ki Dopahar in Hindi PDF

Leave a comment

Leave a Reply