एथेंस का पतन हो रहा है क्योंकि शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं।

(सुकरात , 469-399 ईसा पूर्व)

अच्छा, आज तुम्हें लफ़्फ़ाज़ की कहानी सुनाता हूँ, एक सच्ची कहानी। बहुत साल हो गए, शायद बीस या पचीस या उससे भी ज्यादा, जब से मैं उसे जानता था, और इधर अरसे से उसे नहीं देखा, फिर भी उसकी याद आती है तो किसी अज्ञात भय से काँप जाता हूँ। ‘जानता था’ यह कहना दरअसल बहुत अधिक है। इतने बरसों में मेरी उससे मुलाकातें ही कितनी हुईं, बस गिनती की दो या तीन, शायद चार, वह भी बहुत छोटी सी। इतने बरसों तक मैं कुछ पूछने या जानने के लिए उसका पीछा करता रहा, लेकिन कभी उसके करीब नहीं पहुँच पाया। जब भी उससे मिलने का क्षण आया, वह चकमा देकर दूर निकल गया। उसका असली नाम कुछ और रहा होगा लेकिन वह मुझे याद नहीं। मेरे जेहन में उसका यही नाम दर्ज है… लफ़्फ़ाज़, और इस कहानी में मैं उसे यही कहूँगा। वह खुद अपना परिचय यही कह कर देता था कि लफ़्फ़ाज़ हूँ मैं। एक बहुत चौड़ी, देर तक टिकी मुस्कराहट के साथ लपक कर हाथ मिलाते हुए – जी, मैं लफ़्फ़ाज़, और आप? वह चश्मे के पीछे से, या चश्मे को नाक के छोर पर टिका कर उसके ऊपर से, या चश्मा उतार कर उसकी कमानी चबाते हुए, कुछ देर या काफी देर, आपको गौर से देखता था, उसके चेहरे पर मुस्कराहट यकलख्त आती थी, यकलख्त जाती थी।

खटाक से मुस्कराना, खटाक से सीरियस। यह इतना डरावना लगता था कि कोई भी काँप जाए। उसके पास बेशुमार लफ्ज थे, लफ्ज ही लफ्ज, जो साफ उच्चारण और सटीक आरोहों अवरोहों में, उसी डरावनी मुस्कान या गर्वीले गुस्से के साथ, जैसी जरूरत हो, उसके मुँह से इस तरह निकलते थे जैसे साँपों की पांत, वह बिल्कुल सही जगहों पर बलाघात देते और सही जगहों पर खामोशियाँ अख्तियार करते, बोलता जाता था, बोलता ही चला जाता था, घंटों और दिन भर लगातार। तो इससे क्या, शायद तुम कहोगे, भला लफ्जों को कौन नहीं बरतता, और इस दुनिया का काम लफ्जों से ही तो चलता है। हाँ, बहुत से लोग बातूनी होते हैं, अपनी ही आवाज की गूँज पर फिदा, न बोलें तो मर जाएँ, मगर यह उनका सिर्फ स्वभाव होता है, किसी तरह की खामी नहीं, बल्कि इसके उलट अधिकतर तो वे ऐसा शफ्फाक प्याला होते हैं जिसमें से इनसानियत का अर्क छलकता है, अजनबियों के सामने भी एक खुली हुई किताब, हर एक के हमेशा मददगार। नहीं यार, लफ़्फ़ाज़ के मायने अगर तुमने सिर्फ यही समझे तो तुमने उसे समझा ही नहीं। लफ़्फ़ाज़ और बातूनी, दोनों में जमीन आसमान का फर्क होता है। लफ़्फ़ाज़ का हमेशा, हर जगह बातूनी होना जरूरी नहीं होता। बेशक वह बहुत बोलता है मगर बाज दफे लंबी मुद्दत तक चुप्पी के गर्त में पड़ा रह सकता है, इस तरह जैसे कहीं हो ही नहीं। उस दौरान वह कुछ सोचता, हिसाब या अंदाज लगाता, अपने लफ्जों को चमकदार बनाता, मन के थियेटर में कुछ रिहर्सल करता, कुछ वाक्यों को बार बार दोहराता, अपनी अदायगी को बेनुक्स करता है। और अपना लफ़्फ़ाज़ तो बाकायदा नोट्स बनाया करता था, किताबें पढ़ता था। दरअसल…।

छोड़ो यह सब। सीधे कहानी पर आता हूँ।

वह छोटा सा शहर था। एक नहीं, बल्कि दो शहर आसपास, एक दूसरे से सटे हुए। एक शहर सरयू नदी के किनारे था जहाँ एक पुरानी मस्जिद थी जो बाद में तोड़ दी गई। दूसरे शहर में बैंक की एक छोटी ब्रांच में मेरी पहली पोस्टिंग थी। एक भीगती रात में, चाकू की तरह काटती ठंडी हवाओं के बीच, एक टप टप टपकती ट्रेन में अपने शहर से मेरा सफर शुरू हुआ। स्टेशन की डबडबाती रोशनियाँ, उनके बीच हाथ हिलाते दोस्त, उनसे कुछ हट कर खड़ा मेरा छोटा भाई, पीछे छूट गए तो रुलाई आने लगी। वह बहुत लंबी, काली रात मुश्किल से बीती। जब सुबह आँखें खुलीं, उस वक्त मौसम बदला हुआ था। एक बेचैन करने वाली गर्मी थी, उमस भी। मैंने उठकर पूरे डिब्बे में एक चक्कर लगाया, देखा गिनती के लोग थे, खामोश बुतों की मानिंद खिड़कियों के परे नागफनियों के झुंडों और निर्जन गाँवों को अपलक ताकते हुए। खड़क खड़क आवाज के साथ गरमी बढ़ती जा रही थी। मेरा मन घबराने लगा। ट्रेन मुझे कहाँ ले जा रही थी। मेरा शहर कहीं हवा में विलीन हो गया था। लोग, दोस्त पीछे छूट गए। पेड़, मच्छर, आत्माएँ सब कुछ पीछे। सफर इतना लंबा लग रहा था कि जैसे खत्म ही नहीं होगा। फिर उस छोटे से शहर का तपता हुआ स्टेशन आया जहाँ मुझे अगले कई बरस बिताने थे और जहाँ लफ़्फ़ाज़ से मेरी मुलाकात होनी थी। अगस्त की दोपहर में स्टेशन का फर्श धूप में भभक रहा था। मैंने होल्डाल नीचे फेंका लेकिन चमड़े की अटैची फेंकते हुए ठिठक गया। उसमें वैद्यनाथ की आँवले के तेल की एक नई शीशी थी जो टूटती तो कपड़े खराब हो जाते। मैं सावधानी से एक हाथ से डिब्बे का हत्था और दूसरे से अटैची पकड़े धीरे धीरे नीचे उतरा। फर्श पर मेरे पैर रखने से पहले ही रेलगाड़ी रेंगने लगी थी।

लफ़्फ़ाज़, यह नाम सबसे पहले बैंक में ही सुना। इस नाम का एक लोन एकाउंट था और उससे संबंधित फाइल जिसमें सारे कागजात इसी नाम से थे। हाई स्कूल और इंटर की मार्कशीट्स, हाई स्कूल की सनद, बीए प्रीवियस की मार्कशीट और एक मकान की रजिस्ट्री और एक स्कूल का नक्शा। श्री लफ़्फ़ाज़, बस इतना ही। बीए फाइनल की मार्कशीट पता नहीं क्यों नहीं थी। वह शाखा का एक डिफाल्टर था, ‘विलफुल डिफाल्टर’ यानी उनमें से एक जो लोन लेने के बाद लापता हो जाते हैं। न किस्त चुकाते हैं न शक्ल दिखाते हैं – यही नहीं उस पते से भी गायब हो जाते हैं जो उन्होंने बैंक में लिखाया होता है, बिना कोई निशान पीछे छोड़े। फाइल में जो फोन नंबर होता है, जाहिर है कि वह भी फर्जी निकलता है। मैनेजर किसी मातहत के साथ उस पते पर पहुँचता है तो पता चलता है कि वहाँ बरसों से कोई और रहता है और लोन लेने वाला, उसका तो वहाँ किसी ने नाम भी नहीं सुना। लेकिन लोन देते वक्त मैनेजर जब फील्ड विजिट पर गया था तो वह शख्स उसे वहीं मुस्कराता हुआ मिला था, उसी गली, उसी मकान, उसी बैठक, उसी सोफे, उसी कोने में, दीवार पर टँगी उन्हीं स्वामी विवेकानंद की तस्वीर की पृष्ठभूमि में। पास के इसी दरवाजे से तो उसकी मोटी, मस्त, खुशमिजाज बीवी एक चुभने वाले पीले परिधान में इठलाती चाल से भीतर आई थी। उसके पीछे एक नौकरानी थी, खरामा खरामा एक ट्राली खिसका कर भीतर लाती हुई जिस पर एक रंग बिरंगी टीकोजी में लिपटी चाय थी और कुछ नाश्ता।

– जी? मकान का निवासी कहता है जो एक दुकानदार है। – टिकोजी विकोजी हम क्या जानें। न हमारे घर कोई ट्राली है। हाँ, चाय जरूर पिलाएँगे, बैठिए।

– तो फिर वह शख्स? मैनेजर का सिर चकराने लगता है।

– कौन? दुकानदार कहता है। – यह तो हमारे बाप दादों का मकान है जी।

मैनेजर एक डूबती, सवालिया निगाहों से अपने मातहत को देखता और घबराई आवाज में कुछ अस्फुट कहता है। वह जानना चाहता है सारी चीजों के मायने। लेकिन मातहत जो उससे बीस साल छोटा है और इस नौकरी में नया, दुनियादारी के मामले में शून्य, उससे क्या कहे, वह खुद सन्नाटे में है। जिंदगी के इस पहले आघात को जज्ब करने में उसे वक्त लगेगा। वह सिर्फ मुड़कर मैनेजर को उसकी आँखों में देखता और खामोश, बुझी निगाहों से ही कहता है – एलीमेंटरी, डॉक्टर वाटसन, वह एक धोखेबाज था, जो भी था। एक इंपोस्टर या फ्रॉडस्टर या कॉनमैन। यू हैव बीन ड्यूप्ड, मैनेजर।

वह मातहत जो टोहती निगाहों से कमरे को, दुकानदार को और राख की तरह सफेद पड़ गए मैनेजर को ताक रहा था और जिसने खुद को शरलॅाक होम्स जैसा जासूस समझ लिया था, मैं ही था यार, बैंक का असिस्टेंट मैनेजर। और वह डरा हुआ डाक्टर वाटसन? वह चीफ मैनेजर था, मेरा बॉस जो राजस्थान का रहने वाला था लेकिन दो तीन सालों से उस ब्रांच में काम कर रहा था। उसी ने लफ़्फ़ाज़ को लोन दिया था जिसमें से एक रुपये की भी वसूली न हुई थी और न होनी थी। यह कितनी गंभीर बात थी। नहीं, तुम नहीं समझे, तुम नहीं जानते। कोई बैंक मैनेजर, वह नहीं जो करप्ट और तोंदिल होता है और नोट पर नोट छापे चला जाता है, मेरा मतलब है कोई तुम सरीखा सीधा सादा और ईमानदार – तुम्हारा दोस्त हो तो उससे पूछो कि उसके द्वारा दिया गया कोई बड़ा लोन इस तरह डूब जाने का उसके लिए क्या मतलब होता है। उसके कैरियर का क्रियाकर्म, भविष्य के सारे सपनों का नाश। उसकी नौकरी पर एक नाजुक धागे से बँधी तलवार लटक जाएगी। बची भी रहे तो बहुत दूर कहीं तबादला कर दिया जाएगा जहाँ मच्छर होंगे और मलेरिया। उसके घर में श्मशान जैसी मुर्दनी छा जाएगी, चेहरे पर एक स्थायी थकान चली आएगी।

वह चिड़चिड़ा हो जाएगा, पीना शुरू कर देगा, आँखों में गुलाबी डोरे छाने लगेंगे, पपोटे भारी हो जाएँगे। वह रातों में दुःस्वप्न देखेगा और हर आहट पर चौंक कर जागेगा कि आई सीबीआई। जी, मामला सीबीआई या डीआरआई या ईडी तक भी जा सकता है जिनकी जाँच इस बिंदु से शुरू होगी कि वह शख्स जो इतना बड़ा लोन लेकर कहीं हवा में विलीन हो गया, क्या पता मैनेजर का ही साथी रहा हो, दोनों ने मिलकर बैंक को चूना लगाया हो। कौन कह सकता है कि शातिर और चालाक लोगों का कोई अंडरग्राउंड गैंग नहीं जो कहीं तहखानों या वीरानों में सीक्रेट मीटिंग्स करते हैं और इस तरह के सफेदपोश अपराधों की योजनाएँ बनाते हैं। कौन कह सकता है कि यह मासूम और निष्कलुष नजर आता मैनेजर… यही उस गिरोह का सरगना नहीं। कौन कह सकता है कि यह डा. जैकिल और मि. हाइड वाला एक और मामला नहीं। दुनिया में सब कुछ मुमकिन है और सारी संभावनाओं की जाँच करनी होती है। इस तरह के ख्यालों से कुचला जाता मैनेजर एक बार-बार दोहराए जाने वाले सपने में देखता है एक काले ओवरकोट और तिरछे हैट में धुंध के बीच धीरे धीरे बढ़ा आता कोई रहस्यमय शख्स, और उसके पीछे एक काला कुत्ता। वह पास आकर अपना आई डी कार्ड दिखाएगा, फिर उस झपटने को तत्पर कुत्ते की निगरानी में अपने साथ ले जाएगा। पीछे बेटी चीखती रहेगी… पापा… पापा… और पत्नी सिसकती रहेगी। मैनेजर ऐसे भयानक ख्यालों में गुम रहता है और उसका बदला मिजाज देखकर घर वाले भी सहमे रहते हैं। बस यह समझ लो कि उसके हँसते खेलते घर को घुन लग जाता है। मगर ये सब बातें मामूली हैं, एक अदने से बैंक मैनेजर की किसे परवाह? असल बात यह है कि धोखा खाने के बाद एक निष्कपट इनसान जीवन भर दहला रहता है, दुनिया उसके लिए बियावान बन जाती है, उसकी हँसी जमकर मुखौटा हो जाती है और दिल में बचते हैं बस हर एक के लिए नफरत, कड़वाहट और बेयकीनी, यह किसी एक शख्स का नहीं, समूची मनुष्यता का नुकसान होता है। हाँ, सोचकर देखो तो, सारी की सारी मानव-जाति गरीब होती है।

खामोश चलते हुए हम वह कच्ची ईंटों की लंबी गली पार कर मेन सड़क पर आए जहाँ मैनेजर की पुरानी, जगह जगह पिचकी प्रीमियर पद्मिनी खड़ी थी। तनाव में फटती नसों के साथ उसने किस तरह कार चलाई, वही जानता होगा। भीड़ भरी सड़कों से होते हुए हम जब वापस पहुँचे, वह बैंक बंद होने का वक्त था। एकाध को छोड़कर सब कर्मचारी जा चुके थे। चपरासी भी थोड़ी देर में ताला लगाकर जाने वाला था। मगर उस दिन हमारे लिए न छुट्टी का कोई मतलब था, न भूख, प्यास या रात या नींद का। हमें देर रात तक वहीं रुकना था। उस खाते के बारे में सावधानी से एक लंबी रिपोर्ट बनानी थी, सुबह बैंक खुलते ही कूरियर या स्पीड पोस्ट से रीजनल आफिस भेजने के लिए।

वही रिपोर्ट इन्क्वायरी का आधार बनेगी, वही पुलिस की कार्यवाही का और मामला ऋण वसूली ट्रायब्यूनल में गया तो अदालती फैसले का भी। उसे रिपोर्ट के हर हर्फ पर चीखते वकीलों को जवाब देना होगा, जज साहब की टोहती निगाहों का सामना करना होगा। इसलिए एक एक लफ्ज सोचकर लिखना होगा, ध्यान रखते हुए कि कोई गलतबयानी न हो, कोई बात छुपाई न जाए, और तथ्यों में कोई अंतर्विरोध न हो। मैनेजर सामने दोनों हाथों में माथा थामे बैठा था जैसे उसकी दुनिया लुट गई हो, वह बरबाद हो चुका हो। वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था, बीच बीच में अपने में ही कुछ बुदबुदाता था। चपरासी आया। वह घर जाना चाहता था। मैनेजर ने उसे डूबती आँखों से देखा, राख के रंग की आँखें जिनका सारा रक्त निचुड़ चुका था। इशारों से ही उसे जाने की इजाजत दी, भरसक कुछ न बोलते हुए, इसलिए कि कुछ कहा तो आवाज की कँपकँपी प्रकट हो जाएगी। उसके जाने के बाद उसने अपने घर फोन किया कि उस रात वह कितने बजे तक लौटेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। खाना? देखा जाएगा। वैसे उस रात खाने का ख्याल भी किसे आएगा। धीरे धीरे गहराती उस ठंडी रात में खाली बैंक में बस हम दोनों थे, और बीच में वह नामुराद फाइल।

मैंने फाइल खोली और देखा पहले ही पेज पर एप्लिकेशन के ऊपरी कोने में उन जनाब यानी श्रीमान लफ़्फ़ाज़ का फोटो। मैंने उसे देखा तो देखता ही रहा। वह तो एक संत जैसा मासूम, निर्विकार चेहरा था। आँखों में देखो तो वहाँ नश्वर संसार के प्राणियों के दुखों के लिए करुणा दिखती थी और होठों पर ऐसी सौम्य मुस्कान जैसे उसे स्थितप्रज्ञता हासिल हो गई हो, या कायनात के रहस्यों की कुंजी या कोई अंतिम, चरम सत्य जिसके लिए दुनिया भटक रही है। मेरा ध्यान भंग हुआ जब मैनेजर जो आँखें मूँदे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था, बुदबुदाया, इस मुल्क का क्या होगा?

– जी। मैंने सिर झुकाए हुए कहा। – आप सही कहते हैं।

मैनेजर ने आँखें खोली। मुझे अजीब निगाहों से देखता रहा।

– तुम गलत समझ गए यार। उसने कहा। – यह मेरी बात नहीं है। यह तो वह कहता था बात बात में। धीरे धीरे सब याद आ रहा है।

– मतलब? मैंने कहा।

– यह शख्स, हाँ, यही जनाब। जिनकी यह फाइल है। हर दूसरी साँस में… इस मुल्क का क्या होगा। इस देश को किसका अभिशाप लग गया है। सब कुछ बिगड़ गया है।

मैं चुपचाप मैनेजर का चेहरा देखता रहा। वह जैसे अपने आप से ही बातें कर रहा था।

– हाँ, इस तरह की बातें। उसने कहा। – उसकी जानकारियाँ जबरदस्त थीं। देश में आजादी के बाद जितनी सरकारें हुई हैं, हर स्टेट की, सेंटर की, इलेक्शन, आँकड़े… आपको कुछ भी जानना हो वह तुरंत बता देता था। हर चीज का एनेलिसिस करता था। देश के भविष्य के बारे में सोचता था। उसके चेहरे पर गहरी तकलीफ होती थी। थिंकर था यार वो। एक फिलासफर।

– फिलासफर?

– हाँ यार। उसने कहा। – वह कोई मामूली शख्स नहीं था। बातें करते हुए रुँआसा हो जाता था, तकरीरें करने लगता था। जो भी उसे सुनता था, शर्मिंदा हो जाता था कि देश कैसी मुसीबत में है, और वह…। वह हर वक्त उद्विग्न नजर आता था। हमने गलत रास्ता चुन लिया है। हम जिस ओर जा रहे हैं, वहाँ बरबादी है, केवल बरबादी। हाँ, बस इतना ही कहता था वह। कहाँ क्या गलत हुआ और कैसे ठीक किया जाए, इसके बारे में कुछ नहीं। एक बार मेरे केबिन में उस वक्त आए किसी और कस्टमर ने, जो उसकी बातें सुन रहा था, यूँ ही कहा कि भाई जी, इतना टेंशन न लो। क्या होगा चिंता करने से? देश बदलेगा मगर आपके फिक्र करने से नहीं और रात भर में नहीं। कभी अपने को ढीला भी छोड़ा करो। वह आग बबूला हो गया। उसने कहा, आप जैसे आत्मतुष्ट मध्यवर्गीयों की वजह से ही ये हालात हैं। आप नहीं जानते आप कितने बड़े गुनहगार हैं। जिस दिन लोन के डाक्यूमेंट्स साइन होने थे, वह बहुत आवेश में था। जैसे रात भर सोया न हो। इसी कुर्सी पर बैठा था, जहाँ तुम बैठे हो, मेरे सामने। दस्तखत करने के साथ ही वह तकरीर करने लगा। ऊँची आवाज में। हमें नए सिरे से शुरुआत करनी होगी, एक छोटी सी, नन्हीं सी शुरुआत। अँधेरा है, लेकिन कब तक इसका शोक मनाएँगे। बेहतर है कि एक शमा खुद जलाई जाए। उसकी आवाज दूर तक जा रही थी। सब लोगों का ध्यान आकर्षित हो गया। स्टाफ उसकी बातें सुनने मेरे कमरे में चला आया। मुझे सख्ती से डाँट कर उन्हें उनकी सीटों पर भेजना पड़ा।

– लेकिन वह?

– ओह, अब समझ में आ रहा है। मैनेजर ने कहा। – यह उसकी एक सोची समझी चाल थी। सब कुछ प्लान्ड था। जिसे देश के भविष्य की ऐसी चिंता हो, भला किसके मन में ख्याल आएगा कि उसकी मार्कशीट्स, कागजात नकली भी हो सकते हैं। आप तो कागजात का मुआयना भी नहीं करेंगे। बस एक सरसरी निगाह से देखकर फाइल में रख लेंगे। किसके ख्याल में आएगा कि वह शख्स कोई ठग या दगाबाज होगा?

– जो कुछ याद आए, बताते जाइए। मैंने कहा। – रिपोर्ट में सारी बातें लिखनी होंगी।

– वह लिनेन के झक सफेद कुर्ते में था जब पहली बार आया। काली बंडी। मैनेजर ने याद करते हुए कहा। – वह लोन स्कीमों की जानकारी लेने आया था। उस दिन वह खामोश था। सिर्फ मुझे देखे जा रहा था, एकटक, लगातार। कभी मुस्कराता, कभी सीरियस हो जाता। मेरी बातें सुनकर कुछ सोचता, हिसाब लगाता। ओह, अब समझ में आ रहा है। वह मुझे स्टडी कर रहा था।

मैनेजर ने आगे बताया – फिर वह अक्सर आने लगा। उसने बताया कि उसका एक छोटा सा पुराना, पुश्तैनी स्कूल था। फैमिली के बँटवारे में उसके हिस्से में आया था। वह उसे रेनोवेट करवाना था। नई क्लासेज के लिए कमरों का, लैबोरेटरी का, लाइब्रेरी का निर्माण करवाना था। साइन्स के उपकरण खरीदने थे। एक हॉल बनवाना था। वह जानना चाहता था कि क्या इसके लिए लोन मिल सकता है। उसके चेहरे पर बेपनाह चिंता होती थी कि मुल्क का मुस्तकबिल क्या है। मुल्क को कोई अभिशाप लगा है। फिर वह बच्चों पर आकर रुका… बच्चे… बच्चे। हमें बच्चों को बचा लेना होगा, वह कहता था, पेश्तर इसके कि…। हमें नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। वह कहता था कि मेरा सपना है अपने स्कूल को एक मॉडल स्कूल, एक मिसाल बनाने का। एजूकेशन शॉप नहीं, एक नया इनसान गढ़ने वाली वर्कशाप। नए ख्याल, नए सपने, एक नई मानवात्मा। यही प्रोजेक्ट था, जिसके लिए उसे लोन चाहिए था। वह मुझे अपने साथ घर भी ले गया। वही घर था यार, जहाँ हम लोग आज गए थे। वही बैठक। उसकी बीवी भी मिली थी। वहाँ चाय भी पी थी। हम बहुत देर तक बैठे रहे थे।

– और स्कूल का विजिट? जिसके लिए लोन दिया था? मैंने पूछा।

– वह भी किया था। मैनेजर ने बताया। – वही ले गया था अपने साथ, अपनी कार में। ऐसी चमकदार कार कि अपना चेहरा देख लो। सफेद वर्दी में शोफर चला रहा था और अपहोल्स्टरी…। गलियों के भीतर गलियाँ, पता नहीं कहाँ। शायद वे जानबूझ कर टेढ़े मेड़े रास्तों से ले गए थे, जिन्हें याद रखना संभव न हो। उन दिनों छुट्टियाँ चल रही थी। लोहे का काफी ऊँचा फाटक था, ऊपर बोर्ड लगा था। उसने चौकीदार को आवाज दी। फाटक के बीच एक छोटा दरवाजा चर्र की आवाज के साथ खुला। सब कमरे बंद थे। बीच में मैदान था जहाँ ऊँची घासें थीं। पानी जमा था। वह आग बबूला हो गया। कस के डाँट लगाई चौकीदार को कि छुट्टियाँ हैं तो उसे मस्ती सूझ रही है। बैठे बैठे मुफ्त की खा रहे हो, शर्म नहीं आती… स्साले कामचोर। हमने स्कूल के सुनसान गलियारों का चक्कर लगाया। वह माफी माँगता रहा कि स्कूल बंद होने के कारण वह मुझे कहीं बिठा नहीं सकता, न चाय वगैरह…। उसने बताया कि प्रिंसिपल के कमरे की चाभी उन्हीं के पास रहती थी और वे छुट्टियों में गाँव गए हुए थे। वह इतना बड़ा स्कूल था कि केवल व्हाइट वाश कराने में लाखों लगने वाले थे। चलते चलते रुककर एक सुनसान कोने में मेरे हाथों को थामकर विनती करने लगा कि बच्चों के मासूम दिल अभी बचे हुए हैं। बस यही अकेली उम्मीद है। मुस्तकबिल बचाना है तो यहीं से शुरुआत करनी होगी। मगर वक्त कम है। बर्बर लोग, नरभक्षी जो बच्चों के मासूम, मीठे दिलों के शौकीन हैं, क्या अपनी जगहों पर निश्चिंत बैठे होंगे? क्या वे भी अपने ठिकानों से चल न दिए होंगे जहर की पुड़ियाएँ लिए? इट्स ए रेस अगेन्स्ट टाइम, मैनेजर, उसने कहा। – मिल जाएगा न लोन? बच्चों को बचाना है, बार बार यही कहे चला जाए। ओह वह किस कदर चिंतित था। मेरा मन भर आया। मुझे लगा कि मैं एक महान शख्स की संगत में था और वह मेरी जिंदगी का एक असाधारण दिन था जो रोज रोज नहीं आते। मैंने भी काँपते हुए हाथों से उसकी हथेलियों को कस कर थाम लिया।

वह कयामत की रात पलकों में बीत गई। शायद तीन बजे होंगे जब रिपोर्ट पूरी हुई। उसने ध्यानपूर्वक दो तीन बार पढ़ा, उसका एक एक शब्द। फिर मुर्दा हाथों से इस तरह दस्तखत किए जैसे अपनी ही मौत का परवाना लिख रहा हो। फिर देखते ही देखते, चंद लम्हों में ही वह अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे गहरी नींद सो गया, उसका सिर आगे की ओर लटक गया। इस अंदाज में जैसे फाँसीयाफ्ता मुजरिम जल्लाद को अपनी गर्दन पेश करता होगा। वही गहरी नींद जो दोस्तोयेव्स्की के मुताबिक उस शख्स को आती है जिसे अगली सुबह चौराहे पर सरेआम कोड़े लगाए जाने हों। मैंने उसके केबिन की बत्ती बुझाई और बाहर के हिस्से में, कांउटर्स और कैशियर के केबिन के बीच, दो मेजें जोड़कर लेट गया। नींद किसे आनी थी? लफ़्फ़ाज़ के बारे में ही ख्याल आते रहे। पूरा गैंग रहा होगा – उसकी असली या नकली बीवी, नौकरानी, शोफर, चौकीदार। इस मैनेजर को अपने जाल में फँसाने के लिए उन्होंने कितनी रिहर्सलें की होंगी। वे इस वक्त कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे। यही सब सोचता दूर से देखता रहा मैनेजर के पीछे की खिड़की में चांद को बिल्लियों के रुदन के बीच रात को धीरे धीरे कुतरते। बहुत देर के बाद पहाड़ियों के पीछे से सूरज एक नए दिन को पकड़ कर लाया, मगर यह झुलसा हुआ था, काला।

उस खाते का क्या हुआ, यह जानने की जिद में न अपना वक्त बरबाद करो, न मेरा। मुझे कई महीनों के बाद उस शख्स, लफ़्फ़ाज़ से जो पहली मुलाकात हुई, उसके बारे में बताना है। जल्दी से जान लो कि रिपोर्ट भेजने के चौथे दिन मैनेजर को निलंबित करने का आर्डर लेकर रीजनल आफिस से खुद एक अफसर आया। काँपते हाथों से मैनेजर ने बंद लिफाफा खोला और कुर्सी पर मिट्टी के ढेर की तरह ढह गया। फिर किसी तरह खुद पर काबू कर स्टाफ में किसी से मिले बिना, बिना किसी से हाथ मिलाए, सबसे नजरें चुराता अपना ब्रीफकेस उठाकर चुपचाप बैंक के बाहर चला गया। दो तीन महीने के बाद उसका निलंबन रद्द किया गया लेकिन तबादला बंगलादेश बार्डर पर कर दिया गया, मेदिनीपुर। स्टेशन पर उसे छोड़ने के लिए सिर्फ मैं ही गया था। वह वहाँ अकेले ही गया। फैमिली को उसे राजस्थान भेज देना पड़ा, अपने पुश्तैनी घर। ट्रेन चलने तक मैं कहता रहा, सब ठीक हो जाएगा, सर, धीरज रखें। वह शख्स जो भी है, इसी शहर में है। मेरा वादा है, मैं उस तक जरूर पहुँचूँगा और उससे इस खाते के बारे में… लेकिन उसने सुना ही नहीं, और न ट्रेन में सवार होते समय मुड़कर देखा। लोन खाते को एआरएमओ ट्रांसफर कर दिया गया। एआरएमओ समझ लो ऐसे खातों के लिए एक अलग, खास दफ्तर जहाँ कानून के जानकार होते हैं। वे ही पुलिस या सीबीआई और वकील, अदालतों से निपटते हैं। छह महीनों के बाद…

छह नहीं तो आठ महीने। बैंक में ही दोपहर में फोन आया, मेरे पुराने दोस्त राकेश कुदेसिया का, लेकिन पुराने शहर से नहीं। उतनी दूर से तो ट्रंककाल आती जो एक दिल दहलाने वाली आवाज में बजा करती थी। वह मोबाइलों से पहले का जमाना था, पी सी ओ की आमद से भी पहले का। वह पड़ोस के शहर से बोल रहा था, जहाँ वह अपने एक ‘कजिन’ की शादी में आया हुआ था। वही शहर जहाँ वह मस्जिद… लेकिन यह पहले ही बता चुका हूँ। ‘कितना अरसा हो गया मिले हुए और सूरत देखे। वहीं आ जाओ न।’ उसने ‘कजिन’ के मकान का पता नोट करवाया। – क्यों न आऊँगा दोस्त, मैंने कहा। मैं भी तो इस शहर में इतना अकेला हूँ, तुम सबसे इतनी दूर। यह अजीब शहर है। दीवारों पर देखो कैसे नारे लिखे हैं। सड़कों पर धूल के बगूले उड़ते हैं, जिनके बीच मैं भी एक बगूले, एक तन्हा बगूले की तरह डोलता रहता हूँ। किसी से बातें करने को तरसता हूँ। दौड़कर आऊँगा, बल्कि उड़कर। बेहतर होता कि तुम मेरे ही पास आते, मेरे साथ ठहरते। अभी कोई ढंग का कमरा नहीं मिला, स्टेशन के पास एक सस्ती लॉज के एक ठंडे कमरे में रहता हूँ, तो क्या हुआ। मैं फर्श पर सो जाता, तुम आराम से मेरे पलंग पर… बशर्ते नींद आती। मैं उस दिन बैंक से जल्दी ही चल दिया। कैशियर से उसका स्कूटर उधार ले लिया।

वह अहिस्ता उतरती सर्दियों की शाम थी। जलती बुझती झालरों से सजे एक तिमंजिले मकान की हर मंजिल में, हर कमरे में औरतें ही औरतें थीं, युवा, अधेड़, वृद्धाएँ। शादी में शरीक होने के लिए अलग अलग शहरों से आए मेहमान और रिश्तेदार। वे बरात के लिए अपने को सजा रही थीं। मर्द पहली मंजिल के आँगन में जमा थे, यूँ ही कुर्सियों पर बैठे, कुछ चारपाइयों पर पसरे। यह वर्ण व्यवस्था के दायरे के भीतर हो रही एक पारंपरिक शादी थी जिसमें रस्मों और रिवाजों का एक तयशुदा हिसाब होता है। जरूरी होता है कि रस्में ठीक समय पर, सही तरीके से, सारी सूक्ष्मताओं के साथ पूरी होती जाएँ। प्यार की गारंटी नहीं होती लेकिन यह तय हो जाता है कि मानव जाति की निरंतरता बनी रहेगी। बाहर एक उजड़े हुए पार्क के कोने में बैंड वाले अपनी वर्दियों में साजों और हंडों के संग जमीन पर बैठे थे, एक लंबी कार मकान के सामने खड़ी थी, फूलों से सजी। सबको बारात के शुरू होने का इंतजार था, लेकिन अभी उसमें देर थी। मैं और राकेश कुदेसिया उसी उजड़े पार्क की बेंच पर बैठे बातें कर रहे थे जब उसके ‘कजिन’ यानी दूल्हे ने एक लड़के को भेज कर हमें बुलवाया।

– अभी काफी देर लगेगी। हमारे पहुँचने पर उसने कहा। – आप लोग ऊब रहे होंगे।

– नहीं, हम ठीक हैं। दोस्त ने जल्दी से कहा। – ऊबने का कोई प्रश्न ही नहीं। हमारी चिंता न करो। बस अपने आप पर ध्यान दो।

– नहीं, आप लोग इतनी दूर से आए हैं। आपका वक्त अच्छा बीते यह देखना भी तो मेरा फर्ज है। यह कहने के बाद वह उसी लड़के से मुखातिब हुआ। – सुनो, ये मेरे खास मेहमान हैं। इन्हें लफ़्फ़ाज़ की महफिल में ले जाओ।

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– किनकी महफिल… कौन? कुछ समझ न पाकर मैंने कहा।

– लफ़्फ़ाज़ यार। ‘कजिन’ दूल्हे ने कहा। – तुम नहीं जानते। अभी जान लोगे।

– लफ़्फ़ाज़? मेरे मुँह से अचानक निकला।

शायद मैं करीब आ पहुँचा हूँ, यह सोचकर मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा। मकान से बाहर आकर हम तीनों पीछे की अंधकारावर्त, चक्रव्यूह सरीखी गलियों में चलने लगे। वे अनगिनत मोड़ों और मरोड़ों से भरी बहुत लंबी गलियाँ थीं। कहीं ईंटों के टीले थे, कहीं बालू के। बीच में कहीं टूटे फूटे मकान भी आए, कहीं सीमेंट की सीढ़ियाँ जिन पर चढ़ने और उतरने के बाद दूसरी गली आ जाती थी। कहीं कहीं वह बिल्कुल बंद हो जाती थी लेकिन साथ के सँकरे दरवाजे में सिर झुकाकर प्रवेश करने और थोड़ा चलने के बाद फिर शुरू हो जाती थी। यह तो जैसे एक छाया के पीछे पीछे एक सपने में चलना था, इतनी देर तक कि पीड़ा से मेरे पैर चिलकने लगे। वह लड़का काफी आगे चला गया था। – रुको, मैं उसके पीछे चिल्लाया।

वह गली के अर्ध-अँधेरे में एक दुमंजिले मकान के सामने ठहर कर हमारा इंतजार कर रहा था।

– बस, यहीं तक। उसने कहा।

उसने मकान के दरवाजे को धक्का दिया जो अँधेरे में खामोशी से खुल गया। एक छोटे, अँधेरे, निर्जन आँगन को पार करने के बाद लोहे की वर्तुलाकार सीढ़ियाँ आईं जिनकी ठंडी रेलिंग्स को पकड़कर सावधानी से चढ़ते हुए हम ऊपर की मंजिल पर पहुँचे। लड़के ने एक कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी। मैं साँस रोके खड़ा था, लेकिन धड़कन और भी तेज हुई जाती थी। दरवाजा खुलते ही जैसे वह खामोश, ठंडा, सहमा हुआ घर थरथरा गया, आपस में गडमड, उलझी, एक दूसरे को छीलती आवाजों का एक रेला बाहर बह आया। ऊँची आवाजों में कोई वार्तालाप, ठहाके। ओह, यह मामला था।

मैंने समझा था कि शायद वह लफ़्फ़ाज़ का गुप्त अड्डा था, उसका सारे जमाने से छुपा हुआ ठिकाना, जहाँ वह… मगर यह तो एक रंगीन महफिल थी। वे दोस्त के ‘कजिन’ के स्थानीय दोस्त थे जो उसकी शादी की खुशी में खाने पीने और गप्पें मारने के लिए वहाँ जमा थे। तमाम तरह की शराबें थीं, अलग अलग रंगों की। दस बारह जने बिस्तर और कुर्सियों पर बेतरतीब बैठे हुए थे। आनन फानन, बिना कुछ कहे ही हमें भी महफिल का हिस्सा बना लिया गया। वहाँ रोशनी बहुत कम थी और न ही उसकी कोई जरूरत। सबसे पीछे, बिस्तर के एक किनारे हम लोग भी धँस गए। तत्काल, त्वरित गति से दूसरे छोर से हाथों हाथ चलते दो गिलास हमारे पास आए और पीछे कागज की प्लेट में कुछ नमकीननुमा। शराबियों की एकता जिंदाबाद। मगर मेरी दिलचस्पी सिर्फ लफ़्फ़ाज़ में थी और उससे बातें करने, बहुत कुछ पूछने जानने में। बीचोंबीच एक पैंतीस साल का शख्स बैठा था, क्या वही था वह, मैंने सोचा। वह कोई किस्सा सुना रहा था। हमारे आ पहुँचने से क्षण भर का व्यवधान आया होगा। कमरे में एक अकुलाती खामोशी थी और सब लोग अधीर भाव से, एक छलकते हुए औत्सुक्य के साथ उसकी ओर देख रहे थे। – आगे क्या हुआ, किसी ने धीरज खोकर कहा और उस शख्स ने किस्सा आगे सुनाना शुरू किया – हाँ, तो… वह साली जो खेली खाई थी, वहाँ पहुँच कर कहने लगी कि नहीं, मुझे शर्म आती है।

नहीं, यह वह शख्स नहीं, मैंने सोचा। यह कोई और है। उसका वह होना नामुमकिन है। वह जो भी था और जो भी उसने किया था, उसे मुल्क के मुस्तकबिल की कुछ फिक्र थी, बच्चों को बचाने की चिंता थी। यह तो कोई इंद्रियभोगी लंपट था जो खाल के धरातल पर जीता था बाजाप्ते उसने एक महफिल सजा रखी थी, यह साबित करने को कि औरतों के मामले में वह किस दर्जे का उस्ताद है। उन लोगों में से एक जिनके पास अनगिनत औरतों के साथ संसर्ग के किस्से होते हैं। किसी महफिल में जरा सा छेड़ो, वे एक कामविह्वल आवाज में रुक रुक कर सुनाने लगेंगे और लोग – जवान बूढ़े, वयोवृद्ध – एक अप्रतिरोध्य, अनियंत्रित जिज्ञासा से खिंचे चले आएँगे। उन किस्सों में कितना झूठ होता है और कितना सच, यह तो बस वही जानते हैं या उनका खुदा। वे बताते हैं कि वे किसी भी परिस्थिति में किसी भी औरत से मिलें (झूठ, कोरी गप्प) और किसी भी विषय पर बात करें, बस कुछ ही क्षण लगेंगे बात को ‘वहीं’ ले आने में। पन्ना पलटने या एक स्विच ऑन करने में जितना वक्त लगता है, बस उतना। अगली ही मुलाकात में वह अपना जलता जिस्म उनके हवाले कर देती, खुशी से चिल्लाती है।

वह ऐसा ही कोई किस्सा सुना रहा था और सब साँसें रोके, चमकती आँखों के साथ सुन रहे थे। किसी दूसरे शहर में किसी दूसरी शाम वह किसी को जिसे उसने कहा था ‘खाई खेली’, किसी नीची छत और बदरंग दीवारों वाले कमरे में लेकर आया था। उसके किसी दोस्त का किराये का कमरा, जो उसने दो तीन घंटे के लिए उधार लिया था। वह जो भी रही होगी, उसकी रुचियाँ बहुत परिष्कृत थीं। उसने वहाँ पहुँचकर पहली नजर में ही कमरा रिजेक्ट कर दिया। वह उसे मनाता रहा, वह ‘नहीं, नहीं’ कहते हुए सख्ती से इनकार करती रही। आखिरकार इस शर्त पर मानी कि वहाँ कंप्लीट डार्कनेस रहे, रोशनी का धुँधला सा आभास भी नहीं। लफ़्फ़ाज़ ने कमरे की बत्ती बुझाई, मगर दूर के एक लैंप पोस्ट की रोशनी खिड़की बंद करने पर भी दरारों से आती रही। किसी तरह हमारे लफ़्फ़ाज़ ने खिड़की पर कपड़े लटका कर कमरे में एक तसल्लीबख्श अँधेरा पैदा किया। अब उसके सब्र का प्याला छलकने को था कि वह अरिस्टोक्रेट या कलाप्रेमी औरत, न जाने कौन, एक नई फरमाइश पेश कर देती है, कोई मंद मंद म्यूजिक चलाने की। अब म्यूजिक वहाँ कहाँ धरा था लेकिन तलाश करने पर दोस्त की अलमारी में एक पाकेट ट्रांजिस्टर निकल आया। अँधेरे में वह उसकी सुइयाँ घुमाकर संगीत निकालने की कोशिश करता रहा। मगर वह औरत कोई मामूली नहीं, ऐसी नक्शेबाज थी कि उसके लिए मुकेश, तलत वगैरह सब ‘बिलो स्टैंडर्ड’ थे। उसे अंग्रेजी गाने चाहिए थे। आखिर वह जहाँ जाकर टिकी वह थी किसी विदेशी स्टेशन से आती एक मैक्सिकन लोकधुन, एक उठती गिरती आवाज में।

मैं आगे बढ़़कर लफ़्फ़ाज़ का चेहरा साफ साफ देखना चाहता था और उसके हाव भाव भी। उसका उस फोटो से मिलान करना चाहता था जो मैंने बैंक की फाइल में देखा था। मगर वहाँ बहुत कम रोशनी थी, महफिल पर लटकते एक मटमैले चिथड़े जैसी। फकत तीन गज दूरी रही होगी मगर लोगों को पार कर आगे जाना मुमकिन नहीं था। मैं महफिल के सबसे पीछे उसकी कामुकता में लिथड़ी आवाज सुनता बैठा रहा, धीरे-धीरे नोटिस करते हुए कि उस दुबले से दिखते शख्स में कुछ खास बात थी। किस्सा कितना ही छिछला हो, जो जाहिर है कि झूठा भी था… अरिस्टोक्रेट औरत, मैक्सिकन लोकधुन… भला ऐसा कहीं होता है – लेकिन उसका बयान और अंदाज बेहद आकर्षक थे। वह बिना शक एक उस्ताद किस्सागो था, सुनने वालों पर कोई सम्मोहन तारी कर देता, उन्हें अपने साथ बहा ले जाता था। आवाज के उतार चढ़ाव में किस्सा जैसे जैसे आगे बढ़ता था, सुनने वालों की धुकधुकी बढ़ती जाती थी, फिर एक लम्हा आता था कि भीतर कुछ काँच की तरह टूटता था, सुनने वालों के लिए उनकी दुनिया अजनबी हो जाती थी और एक नई, अज्ञात, अनपहचानी दुनिया अपनी।

यह शख्स जो भी है, एक माहिर अफसानानिगार है, मैंने सोचा, और तय किया कि महफिल के बाद उससे मिलना होगा, बहुत सारी बातें करनी होंगी। उसके रहस्य की थाह लेनी होगी। वह आवाज के उतार चढ़ाव से महफिल की धड़कनों को यूँ संचालित कर रहा था जैसे एक माहिर कंडक्टर आर्केस्ट्रा का करता है, बैटन को कभी हल्की जुंबिश देते और कभी तलवार की तरह नचाते हुए। वह धड़कनों को पतंग की तरह उठाता जाता था, ऊँचे ऊँचे और ऊँचे… फिर कुछ पलों की ढील, जिसमें सुनने वाले दिल थामते थे, फिर यकबारगी राकेट की तरह आसमान में। क्लाइमेक्स का क्षण करीब आता, फिर दूर चला जाता था। सुनने वाले उसका यूँ अनुसरण करते थे जैसे किसी ड्रग के असर में हों। बीच बीच में वह कोई लतीफा सुना देता था या उर्दू के शेर – लेकिन मैं चौंक गया जब उसने एक जगह एक संस्कृत का टूटा फूटा श्लोक चिपका दिया। एक कामुक श्लोक, कमीने किस्म का। ‘रति रहस्य’ जैसी किसी किताब से। मैं एक एक लफ्ज ध्यान से सुनता हुआ खामोश बैठा था। जाहिर था कि उसने काफी अभ्यास से एक लंबे अरसे में अपने लफ्जों को चमकदार और अदायगी को परफेक्ट बनाया था। उसने शेरों और श्लोकों और कोटेशंस के नोट्स लिए थे। बार बार दुहरा कर उन्हें याद किया था। अपने बंद कमरे में या मन ही मन उसने कितनी रिहर्सलें की होंगी। अब उस शख्स को पूरी तरह जानना मेरे लिए जरूरी हो चुका था।

बहुत देर चलने के बाद किस्सा वहीं तमाम हुआ, जहाँ होना था। जैसे भूकंप में कोई मीनार या बिल्डिंग जमींदोज हो, उस तरह बेतरतीब साँसों में जिस्मों का ढहना। ऐसे किस्सों के कोई दो चार अंत तो होते नहीं, इसलिए इसे यहीं छोड़ो। मगर उसकी किस्सागोई का कमाल था कि अभी तक लोग स्तब्ध बैठे थे। जैसे कोई तमाशा या ड्रामा खत्म हुआ हो। मस्त किस्से के बाद एक पस्त खामोशी। फिर वे धीरे धीरे, जैसे अनिच्छा से खड़़े हुए। जैसे अब याद आया हो कि उन्हें किसी शादी में जाना था। मगर मुझे उसे, लफ़्फ़ाज़ को पास से देखना था। मैं आगे बढ़कर उसके पास आया, हाथ बढ़ाया। जितनी भी रोशनी थी, उसे ध्यान से देखा।

यह वही शख्स था।

हाँ यार, साफ साफ वही, बिना किसी शक या शुबहे के। श्रीमान लफ़्फ़ाज़, बैंक का लापता डिफाल्टर। जो नकली कागजात पर इतना बड़ा लोन लेकर गायब हो गया था। जिसका नाम चौक बजाजा के पुलिस थाने की फाइल में था। जिसकी बदौलत वह भोला भाला मैनेजर परिवार से इतनी दूर मेदिनीपुर फेंक दिया गया था। वहाँ ट्रांसफर होने के बाद उससे बस एक ही मुलाकात हुई थी जब वह उस लोन खाते की विभागीय जाँच में कोई बयान देने आया था। वह बहुत कमजोर हो चुका था, कंधे झुक गए थे और उसकी आँखें…। खाना खाता हूँ तो मच्छर दाल में गिरते हैं, उसने बताया था। यह जगह बेशक सुंदर है, बंगाल की शस्य श्यामल, हरी भरी धरती, लेकिन मुझे तो अपनी रेत की ही याद आती है। हरारत रहती है, नींद नहीं आती। सीना दुखता है। आँखों से शरारे फूटते हैं। वह वहाँ सुबह शाम आलू उबाल कर खा रहा था और यहाँ उसका असली मुजरिम कानून और सारे जमाने से छुपकर कामुक किस्से सुना रहा था। मेरे भीतर गुस्सा और उदासी एक साथ उमड़ आए।

मैंने अपना परिचय दिया। वह यकबारगी मुस्कराया। जैसी उस फोटो में थी, बिल्कुल वैसी ही मंद, कातिल, दिलफरेब मुस्कान।

– आप कहीं बाहर से आए हैं? उसने कहा।

– हाँ। मैंने कहा। – ज्यादा दूर से नहीं, यहीं पास वाले शहर से।

– आप रमेश के रिश्तेदारों में से हैं? उसने कहा। रमेश, मेरे दोस्त का कजिन।

– नहीं, वह तो…।

राकेश कुदेसिया पीछे से सामने आया, उसका हाथ थाम कर देर तक हिलाया। साफ जाहिर था कि वह अभी तक उसके किस्से के असर में था। हम बाकी लोगों के पीछे पीछे बाहर की ओर चलने लगे। – आप क्या करते हैं? उसने चलते हुए पूछा।

– मैं… एक बैंक में…। मैंने बहुत धीमी आवाज में कहा, रुक रुक कर, इस तरह जैसे यह कोई रहस्योद्घाटन हो।

– बैंक? कौन सा बैंक?

मैंने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए, एक एक लफ्ज पर जोर देते हुए बैंक का नाम बताया, ब्रांच का भी। शायद मैंने सोचा था कि उसके चेहरे पर कुछ उभरेगा, परेशानी या बेचैनी की कोई लकीर, किंचित घबराहट, या डर या शर्म। यह सब नहीं तो कम से कम किसी भूली हुई याद की छाया। वह तो उल्टा बैंकों की आलोचना करने लगा। कर्मचारी कोई काम नहीं करते, कस्टमर्स को परेशान करने के नए नए तरीके ईजाद करते हैं। मैं उसकी बातें चुपचाप सुनता रहा। यह सब अपनी जगह जनाब, मैं कहना चाहता था, लेकिन उस लोन का क्या? क्या उसे याद नहीं कि उसने बैंक से कोई लोन लिया था, वह भी जाली कागजों के आधार पर? इसके लिए उसने एक सीधे सादे मैनेजर को निशाना बनाकर पहले स्टडी किया था और उस पर मनोवैज्ञानिक फंदे डाले थे। उसे शब्दों की शराब पिला कर बेहोश किया था। दरअसल यही नहीं, मैं उससे और भी कुछ, बहुत कुछ कहना चाहता था। क्या उसे थोड़ा भी एहसास था कि वह पैसा किन लोगों का था? दर्जियों का, भिश्तियों का, पहलवानों का, डाकियों, ड्राइवरों का। खानसामों और चौकीदारों का। भट्टियों में काम करने वाले लोग, ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करने वाले, साइकिलों पर तेजी से जाते हुए अपने दफ्तर या कारखाने। उन्होंने सुइयाँ चलाकर, पानी का छिड़काव करके, खाना पकाकर, कुश्तियाँ लड़कर, न जाने क्या क्या कर थोड़े से पैसे कमाए थे। उनके चेहरे झुलस गए थे, गलों से खून निकल आया था। आप आए और कुछ लफ्ज फेंक कर, वह भी झूठे, नकली, जाली, सारे पैसे समेट कर चलते बने। क्या आपमें थोड़ी भी नैतिकता…

– आप क्या काम करते हैं? खामोशी असहनीय हो जाने पर मैंने कहा।

– कुछ नहीं, बस यही। उसने कहा।

– यही? मैं समझा नहीं।

– लफ्जों का काम। उसने कहा।

– लफ्जों का? मैं अब भी नहीं समझा। मैंने कहा। – शायद आप… कविताएँ, या शायरी, या…

– नहीं, नहीं। उसने जल्दी से कहा।

– और यह नाम… लफ़्फ़ाज़, यह तखल्लुस होगा। उर्दू में ऐसे नाम रखने का चलन है।

– नहीं, नाम ही है। मैं कोई लेखक या शायर नहीं।

हम लोग चलते चलते लोहे की गोल, बर्फ जैसी ठंडी सीढ़ियाँ उतर कर नीचे अँधेरी गली में पहुँच चुके थे जहाँ बाकी लोग इंतजार कर रहे थे। हम एक झुंड में शादी वाली जगह की ओर चलने लगे। लोग ऊँचे स्वर में बातें करते चल रहे थे। मैं जानना चाहता था कि लफ्जों के काम से उसके क्या मायने हैं और उसके अजीब नाम का क्या मतलब है। लेखक नहीं तो क्या वह पत्रकार है या मास्टर, प्रोफेसर, प्रूफ-रीडर या यह नहीं तो वकील, नोटरी, नकलनवीस, और यह भी नहीं तो… कोई कैलिग्राफर? कब्रों पर कतबे उकेरने वाला? ट्रकों के आगे पीछे शेर लिखने का काम करने वाला? शेर नहीं तो ’13 मेरा 7 रहे’ जैसी इबारतें। ‘लफ्जों का काम?’। और उस लोन का क्या हुआ? उस स्कूल का क्या हुआ? असली से भी असली दिखते जाली कागजात कहाँ से लाया? गिरोह के बाकी लोग कौन हैं? वह मैनेजर को उस दुकानदार के घर में कैसे ले गया? उस शोर में कुछ पूछना नामुमकिन था। एकांत मिलने के इंतजार में मैं खामोश चलता रहा, उसके बिल्कुल करीब, लगभग सट कर। अँधेरी गलियों में एक पान वाले का खोखा आया जहाँ एसिटिलीन लैंप की चमकदार, धुएँदार रोशनी थी।

घुप अँधेरे के बीच एक जलती, तीखी रोशनी का घेरा जैसे अचानक उजागर हुआ। लफ़्फ़ाज़ ने पहली बार मुझे ध्यान से देखा और पता नहीं, क्या देखा, देखता ही रहा। कोई साधारण देखना नहीं, एक टिकी हुई टकटकी, सर्प जैसी नुकीली निगाह जो मुझे भीतर तक, आर पार देख रही थी। वह इस तरह क्यों देख रहा था? जैसे कुछ अंदाज लगा रहा हो, मन ही मन कुछ उलट पुलट रहा हो। उसकी मुस्कराहट उसके चेहरे पर जम गई, उसके चेहरे की चमक भी बुझ गई। जैसे कोई जलता चिराग एकाएक दम तोड़ दे, या स्विच ऑफ हो जाए।

– क्या आप रा… रा…? उसने हकलाते हुए कहा।

– जी? मैंने कहा।

– नहीं, कुछ नहीं। उसने कहा। लेकिन कुछ देर के बाद फिर पूछा – क्या आप…?

वह क्या जानना चाहता था? हम फिर अँधेरे में चलने लगे और हमारा शोर भी हमारे साथ, लेकिन लफ़्फ़ाज़… वह अपने में गुम था। जो थोड़ी देर पहले एक लहकता किस्सा सुना रहा था, अब एक बंद गठरी था, कस कर गाँठ लगी हुई। मैं चाहता था कि वह खामोश न रहे, कुछ न कुछ कहता रहे। कोई भेद खुले, कुछ उजागर हो। वह जो इतना बड़ा लोन लिया था, उसका क्या किया? उसकी चमकती काली कार कहाँ है और वह सफेद वर्दी वाला शोफर, उसकी मोटी बीवी, नौकरानी, चौकीदार? उस स्कूल का क्या हुआ? कब से उसका गिरोह काम कर रहा है? वे कहाँ मीटिंग्स करते हैं? मुझे मेदिनीपुर के मैनेजर का ख्याल आया और उसकी ओर से, और दर्जियों, क्लर्कों, लकड़हारों, पहलवानों और नाइयों और नानबाइयों की ओर से भी, उस शख्स से इंतकाम लेने की इच्छा भड़क उठी। मगर इन सारे सवालों से अलग मेरी प्रबल इच्छा, असल जिज्ञासा कुछ और थी।

मैं उस बहुत अजीब शख्स के अस्तित्व की वास्तविकता में पैठना चाहता था। जानना चाहता था कि वह असल में कौन था… मुल्क के मुस्तकबिल का खैरख्वाह या लार टपकाता लंपट जो थोड़ी देर पहले फटे गले से चहक रहा था, या दोनों एक साथ, या दोनों ही नहीं, बस एक क्रिमिनल, धोखेबाज? मैं चाहता था कि उसकी पूरी कहानी जान सकूँ, उसकी असली, सच्ची कहानी, उसकी शुरुआत, उसका विचारलोक, उसका इतिहास, उसके दिल की गिरहें, उसके अंतर्मन का हर परमाणु, जेहन का एक एक कोना। एक लफ्ज में कहूँ तो उस शख्स का ‘सत्य’। बेशक वह मुजरिम था और उसे कानून के हवाले करना मेरा फर्ज था, मगर उसके पहले…।

थोड़ी देर के बाद जब रोशनियों का इलाका आया तो वह शख्स हमारे साथ नहीं था। वह जैसे अँधेरे में ही घुल गया था, उसी अँधेरे में, जहाँ से निकल कर आया था। वह पूरी शादी के दौरान कहीं नजर नहीं आया। वहाँ नाच गाने थे, आतिशबाजी, रोशनियाँ… एक मस्ती भरा शोरगुल – मगर मैं सिर्फ उसे ही तलाशता रहा। वह कहीं नहीं था। मैंने शादी की भीड़ में एक एक शख्स का चेहरा गौर से देखा, मंडप के एक से दूसरे छोर तक चक्कर लगाए। वे सब लोग नजर आए जो कुछ देर पहले उस महफिल का हिस्सा थे, बस वही नहीं। मैंने उनमें से एक जानकार दिखते शख्स को रोककर, एक किनारे ले जाकर उसके बारे में पूछा। उसने बताया कि वह इसी तरह आता था, इसी तरह गायब हो जाता था। उसका कुछ पता ठिकाना… मैंने कहा, जिसके जवाब में उसने मायूसी से सिर हिलाया।

उस बरस के उन दिनों में रातें बहुत लंबी थीं और धूल भरी तेज हवाएँ चलती थीं जिनकी आवाज, खिड़की के पल्लों के आपस में टकराने की आवाज से मिलकर, बहुत डरावनी लगती थी।

ह्न वा ऽऽऽऽऽऽऽऽ वा ऽऽऽऽऽऽऽऽ वा ऽऽऽऽऽऽऽऽ ठक ठक…. ठक….ठक ठक ठक ठक… वा ऽऽऽऽऽऽऽऽ ठक ठक ठक… वा ऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ ठक ठक… वा ऽऽऽऽऽऽ

नींद देर रात तक नहीं आती थी। आ भी जाए तो भी वह आवाज सपने में भी सुनाई देती रहती थी। सपनों में ही सुनाई देती थीं रात भर ट्रेनों के आने की आवाजें और इंजन की सीटियाँ, कुछ देर के बाद यात्रियों का कोलाहल। ट्रेन आकर खामोश खड़ी होती थी और तकरीबन चालीस सेकेंड के बाद रात्रि की निस्तब्धता को भंग करता यात्रियों का रेला बाहर आता था। वह लॉज जहाँ पचास रुपये रोज के किराये पर रहता था, स्टेशन के सामने ही तो थी, बस सड़क पार कर। उन दिनों सारी ट्रेनें ठुँसी हुई आ रही थीं, छतों तक भरी हुई। ‘मार तमाम लोग’, लाखों की तादाद में। कहाँ कहाँ से, विदर्भ, चिकमगलूर, फाफामऊ, नजीबाबाद। लॉज के पीछे एक इंटर कालेज के मैदान में उन दिनों चप्पे चप्पे पर चूल्हे ही चूल्हे थे। आग ही आग। आँच ही आँच। रोटियाँ और बाटियाँ। उन चूल्हों का मिला-जुला धुआँ लॉज में मेरे कमरे तक आता था। हँसी की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, कभी फुसफुसाहटें और कभी ऊँची आवाज में तीखी बहसें, नारे। कसम राम की…। लॉज का किचन ग्राउंड फ्लोर पर था जहाँ से देर रात तक खट-खट की आवाजें आती थीं। उन दिनों सुबह और शाम वहीं खाता था और दिन में बैंक की कैंटीन में। किचन में भी खाने की व्यवस्था थी, लेकिन शामों का एक-एक पल कीमती होता था, इसलिए खाना अपने कमरे में ही मँगाता था। चुपके से नन्हे, जिसे मैं कहता था नन्हा फरिश्ता, दरवाजा खोलता था और कम से कम आवाज करते हुए टिफिन उस कुर्सी पर रख जाता था जिसकी पुश्त पर अगले दिन पहनी जाने वाली कमीज लटकी होती थी। दाल सब्जी चावल सलाद और रोटियाँ, बस बीस रुपये में।

मैं उन दिनों सारी शाम लिखता था नहीं तो चिट्ठियाँ लिखता था। घर वालों को लिखता था कि यहाँ मन नहीं लगता। यह अजीब शहर है। हवा में हर वक्त अदृश्य चाकुओं जैसी कोई फुसफुसाहट रहती है, मगर साफ समझ में नहीं आती। हर वक्त घर की याद आती है, और पुराने शहर की, वहाँ के दोस्तों की। मगर ट्रांसफर होने में अभी वक्त लगेगा। छोटे भाई को, कि अपना ख्याल रखे और बहन का भी, माँ का भी, इसलिए कि घर में अब वही जिम्मेदार मर्द है, पिताजी तो…। सारे दोस्तों को। मेदिनीपुर के उस मासूम मैनेजर को भी, सर, पुलिस तो हाथ पर हाथ धरे बैठी है। वे कहते हैं कि यह कानून के हिसाब से एक सिविल मामला बनता है, न कि क्रिमिनल, और उनके पास फुरसत भी कहाँ है। सारी पुलिस फोर्स तो वहाँ उस इलाके में तैनात रहती है, जहाँ रामलला…। लेकिन सर, धीरज रखिए और मुझ पर भरोसा रखिए। मेरा वादा है, मैं उस शख्स तक जरूर पहुँचूँगा, चाहे कुछ भी हो जाए। उससे जवाब तलब करूँगा। एक एक पैसा वसूल होगा सर, बमय ब्याज। वह शख्स, लफ़्फ़ाज़, इसी शहर में, इन्हीं दोनों शहरों में कहीं है, कहीं आसपास। एक बार नजर भी आया था, मगर चकमा देकर निकल गया। रिकवरी हो जाए तो शायद आपका वापस ट्रांसफर आसान होगा। मैं स्टेशन पर ही मौजूद मिलूँगा, एक बहुत बड़ा गुलदस्ता हाथ में लिए। बस इन्हीं कामों और ख्यालों में ट्रेनों और हवाओं की आवाजें सुनता जागता रहता था, देर रात उस घड़ी तक जब सब कुछ धुँधला हो जाता था और नींद की नदी में धप से मेरी लाश गिरती थी।

उस दिन की बात बताता हूँ जब मस्जिद गिराई गई। सुबह खिड़की से आती चीखते कौवों की आवाज ने मुझे जगाया था। वे बदहवास मँडरा रहे थे, हवा में गोल गोल। उठने की कोशिश की तो सिर चकरा गया। उस कुर्सी का सहारा लेना पड़ा जिस पर मेरी कमीज लटकी रहती थी। माथा तपता महसूस हुआ। खिड़की के परे आसमान पीला था और नीचे सड़क पर मंजर और भी पीला। सब कुछ एक पीली पन्नी में लिपटा, जो शायद तेज बुखार का असर था। सड़कें खचाखच भरी थीं, पीली। पीले लोग, पीले साधु, उनकी पीली पताकाएँ। वे पीले पैरों और जूतों को पीली सड़कों पर घसीटते धीमे धीमे पड़ोस के शहर की दिशा में चल रहे थे। एक अजीब खामोशी थी, खड्गों के खट से खुलने, खून बिखरने के पहले की घनी शांति। नन्हे ऽ ऽ ऽ ऽ मैंने आवाज दी, लेकिन वह बमुश्किल गलियारे तक गई होगी। थोड़ी देर के बाद वह रोज की तरह चाय लेकर आया। मेरे चेहरे पर कुछ रहा होगा कि चाय की प्याली मेज पर रखकर वह सीधे मेरे पास चला आया।

– बुखार। मैंने कमजोर आवाज में इतना ही कहा।

उसने मेरा माथा छुआ।

– हाँ, सर जी, आपकी तो तबीयत खराब है।

– आसपास कोई डाक्टर है ?

– डाक्टर? उसने कहा। – आज इतवार है। फिर शहर का माहौल…

– कोई बात नहीं। मैंने कहा। – मामूली बुखार ही है। शाम तक ठीक हो जाएगा।

– नहीं, सर जी, लापरवाही ठीक नहीं। उसने कहा। – क्लीनिक बंद होंगे तो क्या हुआ, सरकारी अस्पताल तो है। कुछ दूर है, पैदल चल सकेंगे? कोई सवारी मिलना आज मुश्किल होगा।

कुछ देर के बाद किसी तरह कपड़े बदलकर लॉज की ऊँची सीढ़ियाँ सावधानी से उतरता मैं नीचे पहुँचा जहाँ नन्हे मेरा इंतजार कर रहा था। सड़क पर अजनबी मस्तकों और पगड़ियों की एक उफनती नदी थी। बीच बीच में पताकाएँ, बैनर्स, लाउडस्पीकर और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला एक असहनीय शोर। एक पीला, बीमार मंजर। सड़क पर पाँव रखना मुश्किल था। हम कुचल जाते या भीड़ के संग बहता नन्हे कहीं जा निकलता और मैं कहीं और। वह पीछे के एक आमतौर पर बंद रहने वाले दरवाजे से मुझे बगल की गली में ले आया। हमें मेन सड़क से नहीं, पीछे की गलियों की भूल भुलैया से गुजरते हुए जिला अस्पताल जाना था। रास्ते नन्हे को ही पता थे, मैं सिर्फ ढीले जूते घसीटते हुए उसका अनुसरण कर रहा था। उस दिन शहर की सारी मुख्य सड़कों पर जैसे खुदाई में उत्खनित जीवाश्म चल रहे थे, किसी जादू से पुनर्जीवित। ओह, उनकी मुर्दा, ठंडी आँखें। शहर के बाशिंदे अपने घरों में कैद थे या भीतर की गलियों में। एक गली से दूसरी गली हम कीचड़, सूखते कपड़ों की गंध, पुराने मकानों और जंग लगे दरवाजों के बीच से गुजरते रहे। जगह जगह लोग झुंडों में जमा थे। फुसफुसाहटें तैरती आती थीं, हवा में बिखर जाती थीं। ताजी त्चचाओं वाले कमसिन और खुरदुरी खालों वाले, दुनिया देख चुके बूढ़े, जिनकी झुर्रियों में वक्त जम चुका था, सबकी आँखों में एक ही सवाल था कि वहाँ, पड़ोस के शहर में क्या हो रहा होगा। ‘रैपिड एक्शन फोर्स’ की गाड़ियाँ हूटर्स बजाते हुए तेज रफ्तार में आगे बढ़ीं लेकिन आगे कहीं सड़क पर खड़े किए बैरिकेड्स के बीच फँस गईं। खबर आई कि वे अपने औजारों समेत छत पर पहुँच गए। जिगर में उठते एक बेचैन दर्द को किसी तरह काबू में रखते मैं उस नन्हे फरिश्ते के पीछे पीछे चलता रहा। तभी वह आवाज सुनाई दी।

एक बहुत पुराना तीन चार मंजिलों का जर्जर मकान था जो किसी जमाने में एक अजीमुश्शान हवेली रहा होगा। उसके अहाते से बाहर गली तक एक भीड़ जमा थी। उसी भीड़ में से एक आवाज आई… यह जो बह रहा है, इतिहास का अशुद्ध रक्त है, हिस्ट्री का मवाद। इसे बह जाने देना होगा, वरना इस मुल्क का समूचा जिस्म…। आवाज धीमी थी, मगर बहुत परिचित। यह तो वही लगता था। वही लहजा, वही आवाज।

वही था यार। जनाब लफ़्फ़ाज़ उर्फ…। नन्हा फरिश्ता बहुत आगे चला गया था मगर उसकी चिंता छोड़कर, कमजोरी के बावजूद, भीड़ को चीर कर मैं भीतर घुसा और उसे उकसाते सुना… जाओ, कर डालो। हर राष्ट्र के जीवन में एक घड़ी आती है जब तुम तमाशबीन नहीं रह सकते। तुम्हें शिरकत करनी होती है। जब हिस्सा लेना एक फर्ज होता है। वह किसे उकसा रहा था और किस बात के लिए? तो ये थे उसके असली ख्याल, मैंने सोचा, और वे सब उसके अपने लोग। वह वही लिनेन का सफेद कुर्ता पहने था जिसमें पिछली बार मिला था लेकिन उस दिन सिर पर पगड़ी भी थी, केसरी रंग की। बुखार में जलती आँखों से भी मैंने उसे तत्काल पहचान लिया। इतिहास… प्रतिशोध… सगर्व… राष्ट्र… पुनर्जागरण… हुंकार, ऐसा कुछ कह रहा था वह, और हाँ, मुहम्मद बिन कासिम, अब्दाली और…। लंगड़ा तैमूर कहते कहते वह चुप हो गया। उसने मुझे देख लिया था।

कुछ पलों की खामोशी छायी रही।

वह अपनी तकरीर को रोककर भीड़ के पीछे छुपने की कोशिश में था। मुझे लगा, वह फिर भागेगा, नजरों से ओझल हो जाएगा। मगर क्यों? क्यों मुझे देखकर वह हर बार भाग जाना, कहीं छुप जाना चाहता है। मुझसे वह दस बारह बरस बड़ा होगा और फिर वह इसी शहर का बाशिंदा है जबकि मैं… और इस वक्त वह अपने लोगों के बीच है। उसे मुझसे क्या भय हो सकता है? मेरे जेहन में जैसे कोई माइन फटी हो, मैं उसका पीछा करना चाहता था। उसके झक सफेद लीनन कुर्ते को मुट्ठी में पकड़कर खींचते हुए किसी कोने में ले जाना, कहना चाहता था कि यह लुकाछिपी छोड़ो, निगाहें मिलाकर बात करो। बताओ साफ साफ कि तुम कौन हो और तुम्हारे इरादे क्या हैं। मुल्क के मुस्तकबिल की बातें करते हुए तुम चुपके से मुल्क का खजाना खाली कर देते हो। ओह, शायद ज्यादा कह गया। पूरी तरह खाली नहीं, बस जरा सी चोरी, एक मुट्ठी के बराबर। और यहाँ इतिहास की, कल्चर की, गुजरी शताब्दियों की बातें… अब क्या चाहते हो? तुम असल में कौन हो? तुम्हें थोड़ा थोड़ा जानने लगा हूँ – एक शख्स जो नहीं जानता कि लफ्जों के कोई मायने भी होते हैं। बेमायने लफ्जों का उस्ताद, यानी एक लफ़्फ़ाज़। फिर भी पूरी तरह नहीं जानता। मुझे सब कुछ बताओ साफ-साफ। क्या तुम जानते हो कि तुम जिन रास्तों से गुजरते हो, एक तबाही तुम्हारे पीछे पीछे चलती है। और वह लोन…? मैं उस शख्स को पकड़कर एक बोतल की तरह उलटना चाहता था, यह देखने के लिए कि कुछ टपकता है या नही। कोई एक बूँद या कोई एक मायना।

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मैंने चारों ओर देखा। नन्हे बहुत दूर तक आगे जाकर वापस लौट आया था। वह आवाज दे रहा था, भाई साहब, भाई साहब। वह डरा हुआ लगता था। – कहाँ रह गए थे भाई साहब, चलिए वापस चलते हैं। माहौल खराब है। कर्फ्यू लग सकता है। भीड़ छितरने लगी थी। मैंने सड़क के बीच बिखरी ईटों पर एक एक पैर रखते हुए कुछ लोगों को दूसरे शहर से वापस आते देखा। उनके हाथों में एक चार सौ साल पुरानी इमारत के टुकड़े थे।

वे लाखों लोग जो मुल्क के अलग अलग इलाकों से आए थे, जिनके दिमागों में जमे हुए विचार थे और आँखों में एक जमा हुआ, रुका हुआ वक्त, दोनों शहरों की आबरू लूट कर, वहाँ के आसमानों को थर्रा कर, वहाँ चमकने वाले सूरज को एक बदनुमा दाग लगाकर वापस चले गए। हवा में कुछ जलने की एक कड़वी सी गंध वापस रह गई, और दोनों शहरों के लोकल निवासियों के फक, म्लान चेहरे। कौवे भी, उसी तरह चीखते। कुछ महीनों के बाद शहर में एक रात भर चलने वाला संगीत कार्यक्रम हुआ। ‘नफरत के खिलाफ’ या ऐसा ही कुछ नाम था उस कार्यक्रम का। शायद ‘आर्टिस्ट्स अगेन्स्ट कम्यूनेलिज्म’। नहीं, याद आया, ‘एक दखल मौसीकी का’। यह याद नहीं कि उसके आयोजक कौन थे, लेकिन उसमें देश के जाने-माने शास्त्रीय वादक और गायक आए थे। वाकई, दोनों शहरों को मौसीकी के मरहम की जरूरत थी, जख्म इतने गहरे थे। पिछले कुछ महीनों में वहाँ और सारे देश में हजारों लोग कटे मरे जले झुलसे कुचले और रोए थे। बहुत से लापता हुए थे और बहुत से धमाकों में छोटे छोटे टुकड़ों में दीवारों पर चिपक गए थे।

सितारवादक आए और सरोदवादक, वायलिन वादक, सारंगीनवाज, तबला और मृदंग वादक, पखावज वादक, दिलरुबा वादक, विचित्रवीणा वादक, वंशी और जलतरंग वादक, संतूर और सुरबहार वादक और शास्त्रीय गायक। दोनों शहर उमड़ पड़े। खचाखच भरे टाउन हॉल में जिसमें लोगों के न समाने के कारण बाहर का अहाता और छत तक जाती सीढ़ियाँ, सब कुछ ठसाठस भरा रहा, कार्यक्रम नौ बजे शुरू हुआ और सुबह सूरज उगने तक चलता रहा। उस रात म्यूजिक जैसे जार जार रोया, खुशी और गम दोनों से परे स्वर ऊपर उठते, खला में खो जाते रहे। शुरुआत में आयोजकों की ओर से कलाकारों का स्वागत करने और कार्यक्रम का उद्देश्य बताने के लिए एक सज्जन मंच पर आए। ”एक अजीमतरीन गुनाह हुआ है” उन्होंने एक गहरी, डूबती आवाज में रुक रुक कर कहा। ”ऐसा गुनाह जिसकी कोई माफी मुमकिन नहीं। वे आए और इस मुल्क की रूह में, महज हमारे दो शहरों की नहीं, एक खंजर उतार गए। उस काले दिन के बाद, दोस्तो, जब तुम अकेले में अपने देश का नाम लेते हो, क्या वह कोई पराया देश नहीं लगता? जब तुम आईने में खुद को देखते हो, क्या अपना आप भी पराया नहीं लगता? मगर…” अपना चश्मा उतार कर उसने झक सफेद कुर्ते के किनारे से उसे पोंछा, उसे दूर से आर-पार देखा ”…हमारी लड़ाई जारी रहेगी। नफरत को फैसलाकुन शिकस्त देने, नेस्तनाबूद कर देने तक हमारी लड़ाई जारी रहेगी। मगर उनके जैसे हथियारों से नहीं। उनके चक्कू, खंजर, उस्तरे और ब्लेड उन्हें मुबारक। हमारे पास आर्ट है, हमारी मुश्तरका कल्चर है, मौसीकी है और सदियों से बूँद बूँद जमा खूबसूरत विचार हैं।” मैं मंच से बहुत दूर था लेकिन उन जनाब को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई। उतनी दूर से आता उनका स्वर रुँधा हुआ लगता था, अभी रोया, अभी रोया। तुमने क्या पूछा कि वे सज्जन कौन थे? कितना भोला सवाल है।

लफ़्फ़ाज़ सपनों में आने लगा था। जिस तरह असली जीवन में, उसी तरह सपनों में भी बस थोड़ी देर के लिए आता था, पीछे तबाही छोड़कर गुजर जाता था। जैसे पेड़ों को उखाड़ते हुए तूफान गुजरता है, उसने मेरे सपने तहस नहस कर दिए। तकरीरें और तकरीरें, दुनिया के हर सब्जेक्ट पर। देश का अतीत भविष्य लोकतंत्र समाजवाद सेक्युलरिज्म मुसलमान अमरीका आदिवासी नक्सलवाद क्या कुछ नहीं। कौन नहीं करता, तुम कहोगे, और भला हम हिंदुस्तानियों से ज्यादा बहसबाज कौम कौन सी है? गरबीले बहसबाज, द आरग्यूमेंटेटिव इंडियन। तुम अब भी नहीं समझे? लफ़्फ़ाज़ की खासियत यह थी कि वह ‘दोनों तरफ से’ एक जैसे आवेग, एक जैसे यकीन और एक जैसे आँसुओं के साथ बहस करता था और देखते ही देखते ‘तरफ’ बदल सकता था। वह दोनों तरफ नजर आता था, बल्कि हर तरफ। चारों तरफ लफ़्फ़ाज़ ही लफ़्फ़ाज़। उन दिनों शामों को जब लिखने के लिए बैठता था, उसी का चेहरा नजर आता था। जैसे वह एक जंग थी, मैं एक तरफ से लफ्जों में मायने भरने की कोशिश करता था, वह दूसरी तरफ से उन्हें खाली कर देता था। मेरे लिए जरूरी हो गया कि अवचेतन को उसके ख्यालों से खाली करूँ जिसके लिए जरूरी था कि जल्दी से जल्दी उस तक पहुँचूँ। वह जो भी था, जहाँ भी था। उसे पूरी तरह जानूँ, भीतर बाहर, और उसे अपने लिए अंतिम रूप से परिभाषित करूँ। फिर मुझे मेदिनीपुर पटक दिए गए उस मासूम मैनेजर को दिया वचन भी निभाना था।

कुछ समय के बाद एक दिन लफ़्फ़ाज़ पकड़ा गया, आखिरकार। इस तरह।

2.

तुम उस शहर में जाओ तो तुम्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला के मकबरे जरूर ले जाया जाएगा जिसका स्थानीय नाम है गुलाबबाड़ी। उसके ठीक सामने की सड़क पर तकरीबन आधा कि.मी. चलने पर दाईं ओर एक पुरानी दुमंजिला बिल्डिंग आएगी। उस बिल्डिंग में उन दिनों दोनों शहरों का एक बैंकर्स क्लब हुआ करता था। दोनों शहरों के सभी बैकों के अधिकारियों के मिलने जुलने की जगह जहाँ बहुत पुराना फर्नीचर था और सफेदी को तरसती दीवारें। सिगरेट के धुएँ के बीच ताश या जुआ या शतरंज चलता था। शराब लगातार बहती थी। एक बिलियर्ड्स टेबल भी थी। अधिकतर नए भर्ती हुए युवा अधिकारी वहाँ आते थे, बैचलर्स, जो लॉन में बैठकर ओस भीगी लंबी रातों को गिलासों में निचोड़ते थे, एक दूसरे से होड़ लगाकर। नहीं नहीं, मेरे वहाँ जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। मुझे तो शामों को लिखना होता था न। एक एक पल कीमती था। फिर भी कभी कुछ अपवाद या व्यतिक्रम सरीखे दिन आते थे, कुछ खास मौके, जब वहाँ जाना होता था। यह बस एक संयोग था जो बाद में खुदा का करम महसूस हुआ कि एक शाम उस पार्टी में चला गया जो पड़ोस के शहर के एक दूसरे बैंक के मैनेजर ने दी थी। उसकी बेटी आल इंडिया प्री-मेडिकल परीक्षा में सफल हुई थी, इतने अच्छे रैंक के साथ कि प्रदेश के जिस मेडिकल कालेज पर उँगली रखती, वहीं पढ़ने जाती। मैनेजर दक्षिण भारत, शायद केरल या कर्नाटक का था।

उसके रिश्तेदार, भाई बहन बहुत दूर थे। वहाँ बैंक के सहकर्मियों के अलावा कौन था जिनसे वह अपनी खुशी बाँट सकता? दोनों शहरों के हर बैंक की हर ब्रांच में पार्टी का न्यौता गया था और उस दिन लोकल अखबार में उसने इस बाबत एक विज्ञप्ति भी छपाई थी। वाकई वह एक विशाल पार्टी थी। ग्राउंड फ्लोर के लॉन को भी शामियाने से घेर लिया गया था। वहाँ जलती बुझती झालरों के बीच खुशबुएँ, मद्धिम संगीत और फुर्तीले वेटर्स थे और शराबें ही शराबें, हर रंग और किस्म की। दयालु चेहरे वाला उम्रदराज मैनेजर और उसकी पत्नी और बेटी जो डाक्टर बनने जा रही थी, सब गर्मजोशी से मिले। स्वाभाविक ही, वे खुश थे। मैनेजर के माथे पर चंदन की लकीरों के नीचे आँखों में नमी थी, एक रेतीली नमी। पहले रेत रही होगी जो हमेशा संघर्षों में रहने वाले लोगों की आँखों में होती है – फिर नमी आई लेकिन इतनी नहीं कि सारी रेत बहा ले जाती, इसलिए रेतीली नमी। बातचीत के दौरान उसे पता चला कि उसकी तरह मैं भी उस शहर का बाशिंदा नहीं और मेरा मूल नगर… है। उसने यूँ ही सहज जिज्ञासावश पूछा कि वहाँ का मेडिकल कालेज कैसा है। मेडिकल कालेज… मैंने याद करने की कोशिश की।

लफ़्फ़ाज़ ने इस बार भी बहुत धैर्य और ध्यान से जाल बुना था लेकिन यहीं मात खा गया।

– क्या कहते हैं? मैनेजर ने दक्षिणी उच्चारण में कहा। – यह कैसे मुमकिन है?

– वह मेरा शहर है। मैं वहीं पैदा हुआ। मैंने कहा। – भला मुझसे अधिक उस शहर को…

– फिर भी, शायद आप पूरी तरह नहीं जानते। उसने कहा। – कोई भी जहाँ रहता है, वहाँ की हर बात नहीं जान सकता।

मेडिकल कालेज… मैंने फिर याद करने की कोशिश की। मुझे याद नहीं आया कि मेरे शहर में कोई मेडिकल कालेज भी है।

– शायद आप सोचें कि मुझे कैसे… बताता हूँ। मैनेजर ने कहा। – एक बड़े लोन का प्रपोजल अभी पिछले हफ्ते ही क्लीयर किया है। उसका सिनाप्सिस याद रह गया मुझे। ‘जीवन क्लीनिक’, प्रोपराइटर डा. लफ़्फ़ाज़, एमबीबीएस, एमडी, एफआरसीएस। यह उन डा. साहब के बायोडाटा में था, मुझे अच्छी तरह याद है, कि उन्होंने एमबीबीएस वहीं से किया था। तमाम फाइलें आँखों के सामने से गुजरती हैं। कोई भी एक एक लफ्ज नहीं पढ़ता, न याद रख सकता है। लेकिन मेरी बेटी ने भी मेडिकल की परीक्षा दी थी, इसलिए मेरा ध्यान चला गया इस बात पर, और याद भी रह गया। ही इज ए रिनाउंड पर्सन। आपको उनसे मिलना चाहिए। वह एक गैर मामूली शख्स है, आई वुड से, इसेंस आफ…

– लफ़्फ़ाज़… ओह। मेरे मुँह से निकला।

– क्या हुआ… आप जानते हैं? उसने पूछा।

मैंने आसपास देखा। वहाँ पियक्कड़ चेहरे थे। खुशबुएँ थीं, खुशियाँ थीं। खिलखिलाहट की आवाजें थीं, दूर से आती। मैं मैनेजर के ख्वाबों में, खुशियों में खरोंच नहीं लगा सकता था। उसके ख्वाब की किरचें बिखर जातीं। खुशी नाली के रास्ते बाहर बह जाती।

– नहीं, मैंने कहा। – कितना लोन?

उसने बताया, एक बहुत बड़ा एमाउंट। वह दो किस्तों में दिया जाना था। अभी पहली किस्त ही दी गई थी।

हम क्लब के भीतरी हिस्से में एंटीक सोफे पर बैठे थे। बिलियर्ड्स टेबल पर लटकते बल्ब की रोशनी उसके चेहरे पर तिरछी गिर रही थी। चेहरे को जैसे रोशनी के एक चाकू से काट दिया गया हो। वह अपनी रौ में कहे जा रहा था… ओह, क्या शख्स है। पहले दिन वह किसी और कस्टमर के साथ आया। उसने परिचय कराया डा. साहब कह के। वह सफेद कुर्ता पहने था विद ए काली बंडी। उस दिन हमारी ज्यादा बातें नहीं हुई। वह बस मुझे देख रहा था, ध्यान से हमारी बातें सुन रहा था। बीच बीच में कुछ सोचकर मुस्कराता था बस। कुछ दिन बाद वह फिर आया, अकेले। उस दिन मैंने पूछा कि वो किस बीमारी के डाक्टर हैं। वह कहते हैं, नहीं नहीं मैं कोई डाक्टर वाक्टर नहीं। था कभी, अब नहीं। अब केवल मुनाफाखोर दवा कंपनियों का दलाल हूँ। उनकी ट्यून पर नाचता हूँ। मैनेजर एक स्पष्ट, सकारात्मक स्वर में कहता गया। – उन्होंने कहा, हेल्थ या स्वास्थ्य के क्या मायने हैं? बीमारियों का इलाज? या बचाव? यह तो केवल उसका फिजिकल आयाम है। व्हाट अबाउट सोशल डायमेंशन? व्हाट अबाउट स्पिरिचुअल डायमेंशन? हमारा मुल्क बीमार है, हमारा समाज बीमार है, हमारी रूह बीमार है। जब सब कुछ बीमार है तो डाक्टर कैसे बचा रह सकता है? डाक्टर भी बीमार है। यह सब दुरुस्त करना एक अकेले डाक्टर की क्षमता से परे है। मगर फिर भी कुछ न कुछ हो सकता है। एक अकेला शख्स भी एक छोटी सी शुरुआत तो कर सकता है न? बेशक वह सब कुछ ठीक नहीं कर सकता, लेकिन शायद अपनी बीमार रूह का इलाज कर सके। उसने आगे बढ़कर मेरे हाथ पकड़ लिए जैसे डाक्टर वह नहीं मैं था और वह मेरे सामने कोई मरता मरीज… मुझे अच्छा कर दो। बचा लो मुझे।

तो इस दफा लफ़्फ़ाज़ ने यह जाल बुना है। कितना महीन और कितना मजबूत, किस चालाकी और दक्षता से, और कौन जानता है, कितनी तैयारी के साथ। इस बार वह चारागर के भेस में सामने आया था, और चारागर भी वो जो जिस्मों का नहीं, रूहों का इलाज करता था। वाह उस्ताद, जादूगर लफ़्फ़ाज़… मैंने मन ही मन कहा, कितने चारागरों के चेहरे कौंध गए। डॉ कोटनीस याद आए और वह जो ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में था, और वह जो ‘दिल एक मंदिर’ में था और हाँ, ‘अनुराधा’ वाला, डा. बलराज साहनी। फिर ‘मैला आँचल’ के डा. प्रशांत याद आए, काला आजार के दुश्मन। तरीका इस बार भी वही था, शब्दों – सबसे खूबसूरत, सबसे मानवीय – की शराब पिलाकर या कह लो, लफ्जों का लखलखा सुँघा कर, पहले शिकार को बेहोश करो, फिर किसी नाजुक जगह नाखून गड़ा कर धीमी, बहुत धीमी रफ्तार में त्वचा से हड्डियों तक का सफर तय करो। जब तक शिकार को दर्द का एहसास हो, देर हो चुकी हो। यह भी शायद महज संयोग नहीं था कि दोनों बार उसके शिकार गैर-स्थानीय शख्स थे। जाल वाकई बारीक और गझिन था मगर गलती से वह इस बार उसमें एक सूराख छोड़ गया था। सिनाप्सिस में एम बी बी एस के सामने उस शहर का नाम लिख गया था जहाँ कोई मेडिकल कालेज था ही नहीं। उस सूराख में जो एक ढीला धागा लटक रहा था, उसे पकड़कर खींचने पर शायद…

– उन्हें इस पार्टी में नहीं बुलाया? मैंने मैनेजर से पूछा।

– किसे, डा. साहब को? मैनेजर ने कहा। – बुलाया था, बट यू नो, ही रिमेंस सो बिजी। उनके पास वक्त कहाँ है? पचीस सालों को कंपेनसेट करना है, वो कहते हैं। पचीस साल जो दिल्ली में फाइव-स्टार हास्पीटल्स की नौकरी में, मल्टीनेशनल्स की गुलामी में बरबाद कर दिए। दिन में चौबीस घंटे उनके लिए कम हैं। काम काम काम हर समय काम। वह डाक्टर नहीं, एक संत है। सेंट, रियली। इस समय भी माइक्रोस्कोप में झाँककर वे नोट्स बना रहे होंगे। या किसी गाँव में होंगे पानी के सैंपल्स लेते हुए। या किसी ईंट के भट्टे पर, मजदूरों के खून के नमूने शीशियों में जमा करते हुए। दरियों के कारखानों में बच्चों के बीच। उनके फेफड़ों में रेशे फँस जाते हैं, साँसें रुक रुक कर आती हैं। वो कहते हैं कि अब मैं इन्हीं के लिए जियूँगा, इन्हीं के लिए मरूँगा। यही मेरा प्रायश्चित्त है। वो कहते हैं कि यह जो हमारा चिकित्सा का तंत्र है, यह फ्राड है, टोटल फ्राड। यह एक तरफ जरासीम मारता है मगर दूसरी तरफ पैदा करता है। वे कहते हैं कि मैं जाल काट आया। अब आजाद पंछी हूँ। मरीजों की एक्सरे प्लेटों में देखता था तो स्याह दागों के बीच दिखते थे अँधेरे पहाड़, घाटियाँ, खाइयाँ, चट्टानें, द्वीप और जंगल और जल-धाराएँ। लेकिन बहुत दूर। अब उन पहाड़ों, घाटियों, खाइयों तक खुद जाऊँगा, सब जगहों से खून के नमूने लाऊँगा। हर उस जगह, जहाँ जरासीम पैदा होते हैं। यह एक जंग है जरासीम से और बेशक मैं सबको नहीं खत्म कर सकता, मगर उन्हें तो मार ही सकूँगा तो इतने बरसों से धीरे धीरे मेरी आत्मा में…

– मगर उन्हें लोन लेने की जरूरत क्यों आ पड़ी? मैंने बीच में ही कहा, कुछ सख्ती से। – डाक्टरों के पास तो बेशुमार पैसे होते हैं। वह भी पचीस साल की प्रैक्टिस के बाद, दिल्ली जैसे शहर में….

– वही तो। उसने कहा। – पैसे बेशक हैं मगर वाइफ के साथ ज्वाइंट एकाउंट्स में। हिज वाइफ डिड नॉट सपोर्ट हिज डिसीजन। वो नहीं चाहती थी कि वे वहाँ की नौकरी और लाइफ छोड़कर इस छोटे शहर में चले आएँ, जहाँ…। शी इज नॉट को-आपरेटिंग। वे पत्नी से भी बगावत करके वापस आए हैं। वह वहीं है, भला जिसे दिल्ली की रंगीनियों की आदत हो…। यहाँ उनका पुराना, पुश्तैनी मकान है जिसके अहाते में काफी खाली जमीन है। वहीं वे क्लीनिक कम रिसर्च सेंटर कन्स्ट्रक्ट करवाएँगे। उसके एक हिस्से में क्लीनिक का काम शुरू भी कर दिया है।

– क्या वह जगह, मकान… क्लीनिक आपने विजिट किया? मैंने पूछा।

– उस मकान के कागज हमारे पास हैं। मकान बैंक में मॉर्टगेज है। विजिट… अभी तो कन्स्ट्रक्शन चल रहा है। धूल उड़ती होगी। डाक्टर साहब की इच्छा है कि पूरा होने पर उद्घाटन मेरे ही हाथों से…

मैं उठ खड़ा हुआ। यह निष्कपट मगर नादान मैनेजर अभी नशे में चूर है। चूर नहीं, बल्कि कहना चाहिए, चूर-चूर। लफ़्फ़ाज़ के लफ्जों के एक बहुत बड़े प्याले के नशे में जिसे वह किस तरह पूरे यकीन के साथ पी गया, गट गट गट गट। उसे कुछ कहना या बताना व्यर्थ था। अभी वह नहीं समझ सकेगा, न बताना मेरे लिए मुमकिन होगा। लेकिन जल्दी ही उसका नशा टक की आवाज के साथ टूटेगा और तब उसे लोगों के, हमारे वक्त के और समाज की एक नई बनती शक्ल के बारे में एक अप्रत्याशित ज्ञान हासिल होगा जिस पर वह विचार करेगा मेदिनीपुर या किसी और सुदूर जगह जाने वाली लंबी ट्रेन में। अभी नहीं। उस समय उसके सीने में एक गुम चोट की चिलकन होगी और आँखों के नीचे रहस्यमय लाल चकत्ते। लेकिन, मुझे मैनेजर की बात याद आई, लफ़्फ़ाज़ ने अभी लोन की पहली ही किस्त ली है, दूसरी बाकी है। अभी वह खाल से हड्डियों के सफर के बीच में है, इसलिए तय है कि अभी वह अपने ठिकाने पर मौजूद होगा। अभी उसके गायब होने में कुछ वक्त बाकी है। अभी उसे पकड़ा जा सकता है। कुछ दिनों के बाद…। अपने कहाँ कहाँ भटकते ख्यालों को समेट कर मैंने वहाँ के शोरगुल के बीच मैनेजर के कान के पास चेहरा लाकर पूछा – सर, यह क्लीनिक, ‘जीवन क्लीनिक’ न… इन डाक्टर साहब का पूरा पता बताएँगे प्लीज?

उस पार्टी के बाद का दिन। मुझे सुबह से ही नशा होता रहा, बल्कि उन्माद। नशा इस ख्याल का कि इतनी लुकाछिपी के बाद वह शख्स, लफ़्फ़ाज़, आखिरकार मेरे सामने होगा, वह भी उसकी अपनी जगह, अपने ठिकाने पर, उसकी ‘वर्कशाप’ में, जहाँ छुपा रहकर वह नए नए लफ्जों की प्रेक्टिस, वाक्यों की रिहर्सल करता था, फिर उन्हें आजमाने दुनिया में आता था, अलग अलग जगहों, नए नए भेसों में, और काम हो चुकने के बाद वहीं वापस। वहाँ उसे घेर कर वे सारे सवाल करूँगा जो मेरे मन में थे। शायद उसके अंतर की गहराई में पैठने का मौका मिले, जान पाने का उसके रहस्य, वृत्तियाँ, उसके भीतर के गह्वर और टीले, हड्डियाँ, चीथड़े और अँतड़ियाँ, उसका टूटा दिल या आहत मन, अगर ऐसा कुछ है तो, और उसके भीतर की आँधियाँ, आग और लपटें। मैं जानना चाहता था कि अपने एक ओर से चिरे हुए कपाल के भीतर वह अजीबोगरीब शख्स आखिर कौन था, क्या था।

क्या वह जानता था कि जिन लफ्जों को वह यूँ ही बुलबुलों की तरह उड़ाता था, उनके मायने भी होते हैं? क्या झूठ के उस पुलंदे के भीतर कहीं कोई सच था? सच का कोई एक दाना या परमाणु। मत भूलो कि मैं एक लेखक था, भले ही अधूरे वाक्यों का, नौसिखिया और उस समय तक अप्रकाशित – जिसकी खुशियाँ और गम अलग होते हैं। यह पौधा जहर से सींचा जाता है, उसी से खुराक पाता है। तुम्हारा जहर उसका आबे-हयात है। तुम्हारे सामने कोई ऐसा मौका आए जब तुम्हें किसी अबूझ और पेचीदा, रहस्यमय मन के भीतर उतरना हो, ऐसा मौका शायद तुम्हें डराए मगर एक राइटर को यह एक अजीब, अपरिभाषेय खुशी दे सकता है, उन्माद भी। हर तरह के इनसान को किताब की तरह पढऩा, यही तो उसका काम है या उसके काम का हिस्सा। फिर मैं बता चुका हूँ कि वह उन दिनों मेरी पीठ पर सवार प्रेत था और मेरे ख्याल और कल्पनाएँ, और स्वप्न भी, उसमें अटके हुए थे। उन्हें मुक्त करने के लिए जरूरी था कि किसी तरकीब से उस प्रेत को पकड़ कर किसी बोतल या मशक में बंद करूँ, किसी खंडहर में फेंक दूँ या तैरा दूँ इस दुनिया के जल में। हाँ, मैं भूला नहीं था कि वह कानून का, बैंक का और मिदनापुर में आलुओं पर गुजारा करते मैनेजर का मुजरिम था और मुझे उससे उस लोन के बाबत भी कुछ सख्त सवाल करने थे। वह कागज का टुकड़ा जिस पर पिछली शाम उस मलयाली या कन्नड़ मैनेजर से मिला लफ़्फ़ाज़ का पता लिखा था, मेरी टिकट पाकेट में था मगर पता अच्छी तरह याद भी कर लिया था… जीवन क्लीनिक, अंकुर विहार। उस दिन सुबह जब नन्हे उर्फ नन्हा फरिश्ता चाय लेकर आया तो मैंने उससे कहा कि वह लॉज के काम से आधे दिन की छुट्टी ले सके तो…

जैसे तैसे दिन बीतता रहा, धड़कन बढ़ती गई। दोपहर में तय समय पर होती बूँदाबाँदी भी मुझे रोक न सकी। बैंक में मैनेजर को सिर्फ यह कहकर कि मुझे जरूरी काम है, सावधानी से गीली सीढ़ियाँ उतर कर, फिर दुकानों के छज्जों के नीचे चलता हुआ बस स्टैंड पहुँचा। नन्हे साफ धुले कपड़ों में पहले से ही इंतजार कर रहा था। काफी देर के बाद अंकुर विहार जाने वाली बस मिली, बहुत पुरानी और जंग लगी। वह बहुत धीमी रफ्तार में, डगमगाते हुए और रुक रुक कर चल रही थी। लोग आते रहे, जाते रहे। कभी बस बिल्कुल भर जाती थी, कभी लगभग खाली। शहर पार हो गया तो खुले खेत और मैदान आए, फिर सँकरे रास्तों और तंग गलियों वाला, भीड़ भरा, दूसरा शहर। वह बहुत देर में पार हुआ। फिर नदी आई, बहुत लंबा पुल। बस ने उसे भी पार कर लिया तो मुझे ताज्जुब हुआ, आखिर कितनी दूर था लफ़्फ़ाज़ का ठिकाना। उस बहुत लंबे सफर में सारे नजारे आए, शहर, नदी, पानी, दलदल, खेत, मैदान, जंगल। आखिर बस जब एक सुनसान बस अड्डे पर रुकी तो उसमें गिनती के मुसाफिर थे। कंडक्टर से हमने अंकुर विहार के रास्ते की पूछताछ की। टपकते आसमान के नीचे हम पेड़ों और खेतों के बीच एक कच्ची सड़क पर चलते रहे। फिर वह सारे जमाने से छुपी हुई बस्ती आई जहाँ बारिश में भीगती परचून की, कपड़ों, दवाइयों, खाने पीने की चीजों की दुकानें थीं और टीन की छतों और कच्ची ईंटों के फर्शों वाले मकान। वह एक अवैध, बेतरतीब बस्ती थी जो शहर की सीमा से परे, टाउन प्लानर्स के कागजों से बाहर, नगर पालिका की निगाहें बचाकर अपने आप उग आती हैं। चाय की दुकानों पर छुरेबाज किस्म के लोग थे, गलियों में गीले कपड़ों की गंध और एक अविराम कोलाहल जिसमें से किसी भी क्षण किसी का रुदन फूट पड़ेगा या कोई उदास गाना। ढीले जूतों में नन्हे फरिश्ते के पीछे एक बहुत लंबी गली में चलता रहा जो पहले दूर तक सीधी थी, फिर तड़पते साँप की कुंडलियों सरीखी मरोड़ें लेती हुई। वहीं रुककर किसी से रास्ता पूछना चाहता था कि कुछ दिखाई दिया।

सामने की दीवार पर भीगे हुए इश्तहार थे, बेशुमार। हाथ से लिखे, और छपे हुए पोस्टर्स और टीन के बोर्ड। एक तांत्रिक का था जो प्यार में धोखा खाए लोगों को संबोधित था और दावा किया गया था कि हफ्ते भर में माशूक या आशिक कदमों में तड़पता नजर आएगा वरना पैसे वापस। एक बंगाली डाक्टर का था और एक दंत चिकित्सक का, विशाल जबड़ों और टेंटुओं के चित्रों के साथ। कुछ सर्कस के विज्ञापन थे। उन्हीं के बीच एक बहुत पुराना, बदरंग, लगभग मिट चला पोस्टर नजर आया। वह ‘जीवन क्लीनिक’ का इश्तहार था।

पोस्टर में तीन बार ‘मर्दाना ताकत’ लिखा था जिसके नीचे एक कोने में एक युवक की मायूस तस्वीर थी जैसे खुदकुशी के एक पल पहले, अंतरिक्ष में तकता हुआ। दूसरे कोने में इलाज के बाद उसी युवक की मुस्कराती तस्वीर। ‘बचपन की गलतियों से सब कुछ गँवा बैठे हों तो’ के नीचे एक डाक्टर की धुँधली तस्वीर थी जो एक विशाल तुर्रेदार पगड़ी में था और चेहरे पर एक भेद भरी मुस्कराहट। क्या वह डा. लफ़्फ़ाज़ था, मैंने सोचा। क्या यही उसकी असलियत थी, उसका असल पेशा? पोस्टर में सबसे नीचे लिखे ‘आज ही मिलिए’ के साथ दिशा बताता एक तीर का निशान था। उस निशान की दिशा में चलते हुए बस एकाध मिनट में हम वहाँ आ पहुँचे जहाँ गली खत्म हो जाती थी।

बारिश के बाद की भाप और उमस थी। एक बड़ा सा पुराना मकान था जिसके दरवाजे से सिर झुका कर दाखिल होना होता था। एक गलियारा था जिसके दाईं ओर परचून, स्टेशनरी, रोजमर्रा के सामान की एक छोटी सी दुकान थी। वहाँ पाँच छह साल की एक बच्ची बैठी थी। साथ की दूसरी, कुछ बड़ी दुकान पर एक भारी भरकम चिक लटक रही थी। क्या यही है जीवन क्लीनिक, सोचकर मेरा दिल धौंकनी की तरह धड़कने लगा। शायद आ पहुँचा मैं। चिक के पीछे लफ़्फ़ाज़, नहीं, ‘डाक्टर’ लफ़्फ़ाज़ तुर्रेदार पगड़ी और बादशाहों जैसी बेलबूटेदार पोशाक में एक ऊँचे आसन पर बैठा होगा, ताकत का खजाना, चिंगारियाँ फेंकता हुआ। सामने कतार में अपनी बारी का इंतजार करते सिर झुकाए मरीज होंगे, गलतियों के पुतले और अब बेचारे बेताकत। वह उन्हें सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे के पीछे से एक तीखी निगाह में तकता होगा, कड़क आवाज में झिड़कता होगा। मगर आफ्टर आल वह एक डाक्टर था, कोई जल्लाद नहीं। मरीजों को पितृवत डाँटने के बाद वह शायद उनसे एक हलफनामा लिखवाता होगा कि आइंदा वे गलतियों से बचकर रहेंगे, और फिर कोई पुड़िया या डिबिया या शीशी देता होगा जिससे मुर्दों में जान आ जाती होगी, मुरझाए चेहरों पर रौनक, बुझी आँखों में चमक। हाँ, ऐसा ही कुछ सोचा मैंने और कीचड़ लगे जूतों को पायदान पर पोंछने के बाद चिक उठाकर धड़कते दिल से…

नहीं यार, वहाँ मेरी कल्पना जैसा कुछ भी नहीं था। वह क्लीनिक भी नहीं था। वहाँ बासी हवा थी, सीलन की गंध थी, नीम अँधेरा था। कुछ देर आँखें गड़ा कर देखा, दीवारों पर दर्पण थे और सामने कुर्सियाँ, कुछ बैंचें या मेजें। दीवार से सटे कुछ हैंगर्स और कपड़े। यह तो कोई ब्यूटी पार्लर या बुतिक जैसी जगह थी मगर सुनसान। मैंने नन्हे की ओर देखा। हमारी आहटें सुनकर मकान के भीतर से कोई आया और स्विच ऑन कर दिया। रोशनी में वह पार्लर या बुटिक, जो भी था, और भी उजाड़, सूना, पुरातन जान पड़ा।

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सामने खुले हुए लहराते बालों में, काली सलवार कमीज में एक तकरीबन तीस बरस की औरत खड़ी थी। उसके चेहरे पर सूख चुका, फैला हुआ मेकप था और आँखों के नीचे सूजे हुए पपोटे। खिजाब की पोल खोलते उसके बाल बेहद काले थे। जादूगरनियों या मायाविनियों की तरह उसने ढेर सा काजल लगा रखा था।

– येस? उसने ऊँची आवाज में कहा। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में विस्मय था।

– क्या जीवन क्लीनिक यही है? मैंने कहा।

– क्लीनिक? नहीं तो। उसने कहा। – आप कहाँ से आए हैं?

– साकेत कालोनी से। जीवन क्लीनिक कहाँ है?

– साकेत? उसने पास आते हुए कहा। उसकी आवाज खुश्क और बोझिल थी, कुछ कुछ मर्दाना। जब वह पास आई तो मैं यह देख सका कि वह उन औरतों में से थी जो कभी खूबसूरत रही होती हैं, फिर खूबसूरती खो जाती है और वे उम्र भर उसे ढूँढ़ती रहती हैं।

– क्या काम है? उसने फटे होंठों से कहा।

– डाक्टर साहब से मिलना है। मैंने कहा।

– यहाँ तो कोई डाक्टर नहीं।

– जीवन क्लीनिक कहाँ है?

– क्लीनिक? वह तो बहुत पहले…

– डाक्टर साहब कहाँ रहते हैं?

– कौन डाक्टर?

– लफ़्फ़ाज़।

वह हम दोनों के चेहरे बारी बारी से देखती खामोश खड़ी रही।

– क्या काम है? उसका स्वर आशंका में डूब रहा था। – आप कौन हैं?

– मरीज समझ लीजिए। मैंने नन्हे के कंधों को दबाते हुए कहा। – एक डाक्टर के पास और कौन आएगा?

– मरीज? इतनी दूर से? उसने कहा। – नहीं, सच बताइए। क्या किया इसने?

– किसने?

हमें पार्लर या बुटिक, जो भी था, के भीतर से घर के अंदरूनी हिस्से में ले जाया गया। एक कमरा था जहाँ एक जर्जर सोफा था और एक सेंटर टेबल। कपड़े किताबें टीवी का रिमोट और कुछ और सामान सोफे पर बेतरबीब बिखरे थे। एक कोने में कुर्सी मेज पर टेबल लैंप जला कर एक लड़की, जिसकी उम्र दस या बारह साल रही होगी, पढ़ाई कर रही थी। वह मुड़ कर हमें देखने लगी। औरत ने सोफे से चीजें हटाते हुए हमें बैठने के लिए कहा। फिर लड़की से कहा, जा बुला कर ला। कहना ‘मरीज’ आए हैं।

हम इंतजार करते बैठे रहे। मैं और नन्हे एक सोफे पर और अपने बड़े बड़े वजनी झुमकों में वह औरत हमारे सामने। वह कभी हमें देखती थी कभी मुड़कर दरवाजे की ओर, और झुमके झूलने लगते थे। मैंने उसकी ओर से ध्यान हटाकर पीछे अलमारी में भरी किताबों के नाम पढ़ने की कोशिश की। काफी देर के बाद वह दरवाजे पर नजर आया। पहली नजर में मैं पहचान न सका, वह इतना बूढ़ा लग रहा था, और थकान से लदा। उसकी मैली सी कमीज देखकर मुझे धक्का लगा और पगड़ी का न होना तो किसी विश्वासघात सरीखा। यह तो वह शख्स नहीं था जिससे मिलने की उम्मीद में मैं इतना लंबा सफर तय करके आया था। मगर उसका चेहरा…

– आ भई। औरत ने कहा। – ‘मरीज’ आए हैं तेरे। ‘मरीज’। मुबारकाँ जी। बड़ी अच्छी चल रही है तेरी डाक्टरी। बड़ी दूर दूर से ‘मरीज’ आने लग पड़े जी अब तो।

उसका एक एक लफ्ज जहर में डूबा हुआ था। वह हर शब्द पर बलाघात दे रही थी और ‘मरीज’ पर खासकर। लफ़्फ़ाज़ अपनी मैली निगाहों से उसे सिर्फ ताक रहा था।

– ‘मरीज’ आए हैं जी, ‘मरीज’। उसने उसी अंदाज में कहा। – चल शुरू कर न इलाज।

– तुम जाओ। लफ़्फ़ाज़ ने कमजोर आवाज में कहा।

– जाऊँ? कहाँ जाऊँ? क्यों जाऊँ? मैंने भी देखना है तू कैसा डाक्टर है। भई इतनी दूर दूर से ‘मरीज’ आने लग पड़े। तू इलाज शुरू कर न। वह हमारी ओर मुखातिब हुई। – हाँ जी, बताओ अपना मर्ज।

लफ़्फ़ाज़ जैसे जमीन में गड़ जाना, कहीं छुप जाना चाहता था। वह इधर उधर देख रहा था। जैसे अचानक रोशनी में चला आया कोई निशाचर कीड़ा छुपने के लिए ईंट या झाड़ी तलाशता है। सरेआम बेइज्जती से उसका चेहरा चाक जैसा सफेद था। मायाविनी अपने जहर बुझे लफ्जों से उसे कुचल रही थी, रेशे बिखेर रही थी। वह ढह जाएगा, मुझे लगा, अभी उसकी जगह एक भूसे का ढेर नजर आएगा।

– शकुन, प्लीज…। उसने एक धीमी, काँपती आवाज में फिर कहा।

– मैं तो यहीं बैठूँगी। वह औरत, जिसका नाम शकुंतला रहा होगा, सोफे में और धँस कर बैठ गई। – तू जो करके आता है, भुगतना किसे पड़ता है? ये लोग इतनी दूर से आए हैं। अब क्या कर आया तू? पता तो चले।

कुछ देर खामोशी छायी रही।

– यह आदमी… यह जो है न… मायाविनी ने लफ़्फ़ाज़ की ओर उँगली उठाकर, मेरी ओर मुड़कर ऊँची आवाज में कहा… (चू से शुरू होने वाला एक भद्दा, बाजारी शब्द) बनाने में उस्ताद है। इसका तो खेल है जी (वही बाजारी लफ्ज) बनाने का। मुझे भी उसने वही बनाया था। आए हाये, सुनते इसकी प्यार मुहब्बत की बातें। उर्दू के शेर एक से एक, कविताएँ। कोई भी लड़की (वही) बन जाए। ये तो शादी के बाद पता चला न, कि ये बस लफ्जों का मास्टर है। पूरी दुनिया को (वही) बना दे, इतना चालाक है। यूँ बनाता है, उसने चुटकी बजाकर कहा, यूँ। पहले यहीं बनाता था, बाकायदा क्लीनिक खोला हुआ था जी। फिर यहाँ के लोग बनना बंद हो गए तो अब दूर दूर जाकर बनाता है। लोगों को बस (वही) बना बना कर उधार लेता रहता है, चुकाती मैं हूँ। एक स्कूल में नौकरी करती हूँ। पार्ट टाइम दुकान चलाती हूँ। सुबह से शाम मरती हूँ, बच्चों के पेट काट काट कर इसके उधार चुकाती हूँ। आपसे भी पैसे लिए हैं?

किस कदर बेरहमी से वह काले लिबास में लिपटी मायाविनी लफ़्फ़ाज़ के लफ्जों का पैरहन उतार रही थी, एक एक करके। वह गरज रही थी, बरस रही थी। वह सिर झुकाए बैठा था, इतना खामोश जितना सूखा हुआ कुआँ होता है, या दीमकों की बांबी, या खुदाई में निकले खंडहर। क्या यह वही शख्स था जिसके पास हर सिचुऐशन के मुताबिक भारी भरकम और आकर्षक लफ्जों का एक जखीरा रहा करता था, देश के लिए, अतीत और भविष्य के बारे में, लोगों के स्वास्थ्य के, मल्टीनेशनल्स के…। जैसी सिचुएशन वैसे ही लफ्ज। मेरे लिए यह समझना मुश्किल था कि उस वक्त जो मंजर सामने था, उसे कैसे समझूँ, किस खाने में रखूँ। यह जरूर समझ में आया कि उनकी शादी बस एक रस्साकशी का खेल थी। बहुत पहले उसने आशिकाना शायरी से उस तड़क भड़क भरी औरत का दिल जीता होगा। मगर शायरी के परदे के नीचे मानव संबंधों और स्त्रीत्व के बारे में उसके असल ख्याल पुराने थे, आधिपत्यकारी। वह कब्जा जमाना चाहता रहा होगा। मगर दुनिया में किसका कब्जा हमेशा कायम रहा है? वह पल आता ही है जब गुलाम पलट कर…

सोफे पर सामने बैठा लफ़्फ़ाज़ एक भी लफ्ज के बिना था। एक चिथड़ा भी नहीं, एक चिंदी भी नहीं। नंगा, भद्दा, बदसूरत। कमीज की जेब से चश्मा निकाल कर उसने आँखों पर टिकाया, मोटे अवतल लैंसों वाला चश्मा जिसके पीछे उसकी आँखें कंचों जैसी बड़ी बड़ी नजर आने लगीं। पिघले हुए कंचे, किसी ताजा पेंटिंग की तरह गीले। तरल, जैसे अभी बह जाएँगे।

उसने निरीह निगाहों से बारी बारी हमें देखा।

– आपको यहाँ का पता कैसे चला? उसने कहा।

– पता? उसी बैंक से जहाँ से आपने…। मैंने कहा।

– बैंक? कैसा बैंक? मायाविनी ने बीच में कहा।

– तुम चुप रहो। लफ़्फ़ाज़ ने कहा। – तुम जाओ न, प्लीज।

– सुन लो ध्यान से। मायाविनी ने फिर ऊँची आवाज में कहा। – मैं कहीं नहीं जाने वाली। मैं यहीं रहूँगी। एक एक बात सुनूँगी। पहले ही तुम्हारी हरकतों से हम बरबाद हो चुके हैं। हमारा घर, बेटियों की लाइफ…। तेरा क्या, तुझे तो लच्छेदार बातों का शौक है। मगर उसका नतीजा तो हमें भुगतना होता है न। तू अपना काम कर।

इसके बाद एक काँपता हुआ वीरान वक्फा था, सुई की नोक पर टिका हुआ।

– यह कौन है? लफ़्फ़ाज़ ने नन्हे की ओर देखते हुए कहा।

– मरीज। मैंने कहा।

मायाविनी पास ही बैठी रही, लफ़्फ़ाज़ से बस दो फुट दूरी पर, उसके चेहरे को एक सीधी, जलती निगाह में तकती। वह खामोश रहा तो उसने कहा – मरीज! सुना नहीं?

– क्या प्रॉब्लम है? उसने कहा।

नन्हे मेरी ओर देखने लगा। मुझे भी नहीं सूझा कि यकायक क्या कहूँ।

– वही प्रॉब्लम्स जो इस उम्र में होती हैं। मैंने कहा।

– ओह। और?

– और? इसका मन भटकता है।

वह बच्ची जो कुछ देर पहले पढ़ाई करती नजर आई थी और जिसे मायाविनी बाहर की दुकान में छोड़ आई थी, कमरे में आई।

– मम्मी, कस्टमर। उसने कहा।

– कस्टमर?

मायाविनी उठी और यह कहते हुए कि वह अभी आती है, अपनी लहराती पोशाक में जैसे बहते हुए बाहर चली गई। लफ़्फ़ाज़ उठा और जल्दी से दरवाजे पर चिटखनी लगा दी।

– माफ कीजिएगा, मेरी पत्नी कुछ…। उसने कहा।

लफ़्फ़ाज़ अब बिल्कुल शांत था, प्रकृतिस्थ। यहाँ तक कि एक मुस्कराहट उसके चेहरे पर चली आई, बेहया किस्म की। जैसे मायाविनी के हटते ही उसके लफ्ज वापस लौट आए। वह कहता रहा और मैं एक भी लफ्ज कहे बिना, बस उसका चेहरा देखता, उसकी बातें सुनता बैठा रहा। मुझे एक अप्रतिरोध्य जिज्ञासा ने, नहीं, जिज्ञासा से भी बड़ी किसी ताकत ने जकड़ लिया था। यह याद रखो कि नन्हे महज सत्रह अठारह साल का था और मैं खुद पचीस साल का, और वह इंटरनेट से बहुत पहले का जमाना था। उस उम्र में एक मुस्कान भी उत्तेजित कर सकती थी। कभी कभी किसी झुटपुटे से कुछ वर्जित शब्द बाहर आते थे, चेतना से गोली की तरह गुजर जाते थे। वह एक धीमी, धीर, धातुई आवाज में रहस्यों से पर्दा हटाता रहा और मैं एक एक लफ्ज पीता रहा। बाहर अँधेरा हो चुका था। कोने के टेबल लैंप के मद्धिम प्रकाश में हर शब्द को जोर देकर बोलता वह कितना ज्ञानवान लगता था, जैसे दुनिया में कुछ भी उसके लिए अज्ञात नहीं। सारी बातें तो मैं नहीं बताऊँगा। वे उस प्रकार की थीं जिन्हें सुनकर आज बच्चे भी हँस पड़ेंगे। लेकिन कुछ जरूर, जैसे, नन्हे से उसने कहा, बिंदास करो प्यारे, बगैर डर के। तुम्हारी उम्र में सब करते हैं। जो कहता है कि वह नहीं करता वह झूठ बोलता है। रात की सुनसान घड़ियों में तेज साँसें, लथपथ लम्हे, यह सब नेचुरल है, बस किसी अफसोस को करीब न आने दो। यह अफसोस ही है जो हर चीज को जहरीला बना देता है। वह उसकी ओर मुखातिब था लेकिन बीच बीच में निगाह उठाकर मुझे देखता था। कभी न कभी हमें सेक्स की सीमाबद्धता को जानना होता है, उसने कहा। दुनिया में कामात्तेजक दवाइयों का एक बहुत बड़ा उद्योग है, अरबों खरबों डालर का, मगर वह सब बकवास है। बस एक ही कामोत्तेजक दवाई है और वह है अटूट प्यार। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि…

दरवाजे के दोनों पट झटके से खुले। मायाविनी लहराते बालों में भीतर दाखिल हुई किसी आँधी या तूफान या सैलाब की तरह। कह लो, एक जलजला या धमाका। उसके पीछे चिटखनी दरवाजे से टकरा कर बजती रही… खड़क… खड़क…

– मैंने सब सुन लिया है। उसने चीख कर कहा।

– क्या सुन लिया है? लफ़्फ़ाज़ ने कहा। – चलो, अंदर चलो। तुम यहाँ क्यों आ गईं?

– वही जो उल्टी सीधी बातें इन्हें सिखा रहे हो। सुनो, उसने मुझे संबोधित करके कहा, इस आदमी को कुछ नहीं आता है। यह कोई डाक्टर नहीं, बस लफ़्फ़ाज़ है, सिर्फ लफ़्फ़ाज़। इसके चक्कर में मत पड़ना और पैसा एक मत देना, अगर माँगे।

– अंदर जाओ। लफ़्फ़ाज़ ने चिल्ला कर कहा। – तुम मेरे और मेरे मरीजों के बीच में मत आओ, समझी?

– मरीज? कौन मरीज? और तू कहाँ का डाक्टर है? भेस बदल कर कभी कुछ बन जाता है, कभी कुछ बन जाता है, बहरूपिया साले। तुझे आता क्या है सिवाय लफ्जों के। लफ्ज लफ्ज लफ्ज। कुछ पता भी है घर में चूल्हा कैसे जलता है? अपनी लड़कियों के साथ सुबह से शाम मरती हूँ तब चार पैसे आते हैं जिनसे तेरा भी कुआँ भरती हूँ। उसके ऊपर तेरे उधार। सुन ले ध्यान से अब अगर…

– चुप कर मक्कार कहीं की। लफ़्फ़ाज़ ने कहा, अपने सीने की सारी ताकत लगा कर। उसका चेहरा शक्की और बेरहम हो गया और आँखों के बड़े बड़े ढेले अंगारों की तरह दहकने लगे। एक गुर्राहट जैसी आवाज में उसने कहा – चल अंदर। मुझे सब पता है। तुझे कमसिन लड़कों का शौक है। उन्हें देखकर तेरी लार…

औरत उस पर झपट पड़ना चाहती थी। वह उठा और तेज मगर डगमगाते कदमों से उसकी ओर गया। जब वह उसके पास पहुँचा तो मैंने देखा, कद में वह उससे छोटा था, दुबला भी… उसकी कलाई पकड़कर खींचने के लिए उसे सारी ताकत बटोरनी पड़ी होगी। वह उसे उसी दरवाजे तक ले गया जहाँ से वह अचानक भीतर चली आई थी। वह इस दौरान चीखती रही, छोड़ो, छोड़ो मुझे… और उसकी बाँह को दाँतों से काटने की कोशिश करती रही। उसे दरवाजे के पीछे धकेलकर उसने कुंडी लगा दी।

हाँफता हुआ वह वापस आकर सोफे पर बैठ गया, विचारमग्न। अचानक जैसे उसे हमारा ध्यान आया हो। – आप लोग जाइए। उसने तेज साँसों के बीच कहा।

हम बाहर चले आए। शाम की बत्तियों में गली की गीली सड़क चमकने लगी थी। गड्ढों में पानी भरा था जिनके बीच सावधानी से चलता हुआ मैं न जाने क्या क्या सोचता रहा। अभी जो बदसूरत मंजर देखा था उसके मायने क्या थे। इतने इतने वजनी झूठों को कंधे पर लिए जिनके बोझ से आत्मा दोहरी हो जाए, वह जमीन पर किस प्रकार चलता था। वह लड़खड़ाकर गिर क्यों नहीं पड़ता? उसने कैसे उस औरत को जानवरों की तरह घसीटा था। उस वक्त दीवार पर उसकी छाया कितनी विशाल थी, कितनी भोंडी। बहरहाल, जो भी उनका जीवन था, वे जानें और उनका काम। लेकिन थोड़ी ही देर पहले, कुछ पल पहले ही उसने स्त्री पुरुष की बराबरी की, एक साझा संहिता की बातें की थी। लैंप की तिरछी रोशनी में उसके माथे की भृकुटियाँ काँप रही थीं जब उसने कहा था कि हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ मर्द और औरत सब कुछ होते हैं मगर दोस्त नहीं। यही सारी समस्याओं की जड़ है, उसने हवा में उँगली उठाकर कहा था। उसने बराबरी, भरोसे, आपसी इज्जत और दोस्ती के बारे में इतनी बातें कहीं थीं।

– लफ़्फ़ाज़ कहीं का! मैं सड़क पर चलते चलते बुदबुदाया।

वे सारी बातें रह गई थीं जो कहने और पूछने का इरादा लेकर गया था। जानना था कि उस लोन का क्या हुआ जो उसने एक एजूकेशनिस्ट बनकर मेरे बैंक से लिया था। और वह दूसरा लोन जो उसने बाकायदा एक शरीर-वैज्ञानिक या डा. कोटनीस बनकर दूसरे बैंक से लिया था। वे पैसे उसने कहाँ उड़ा दिए? उसके गैंग के लोग कहाँ हैं, कौन हैं? असली से भी असली दिखते नकली कागजों का राज? उसकी पहली लफ्फाजी की दास्तान, आज तक का सबसे बड़ा कारनामा, और आगे की स्कीमें। क्या उसे डर लगता है? कभी शर्म आती है या नहीं? कोई दिल को नोचने वाली कहानी? कोई पछतावा जो सीने में काँटे की तरह चुभता हो? सौ सवालों का एक सवाल यह कि इतने सारे झूठों के बीच क्या कोई सच भी है उसके पास? कोई एक सच। एक बार ख्याल आया कि मुड़कर उसके पास वापस चला जाऊँ। लेकिन नन्हा फरिश्ता जो सारे नजारे देखकर सहम गया था, काफी आगे चला गया था, और ऊपर आसमान का मिजाज…। लेकिन मैंने तय किया कि जल्दी ही, अगले ही हफ्ते, उसके पास दुबारा जाना होगा।

लफ़्फ़ाज़ से मिलने एक बार, आखिरी बार, जाना तो हुआ लेकिन अगले हफ्ते नहीं, अगली शताब्दी में। ठीक ठीक कहूँ तो ढाई जमाने गुजर जाने के बाद। मुक्तिबोध जी का वाक्य है कि इस देश में हर दस बरस में जमाना बदलता है, जिसके मायने हैं पचीस सालों में ढाई या तीन जमाने। हाँ यार, पूरे पचीस साल। हुआ यह कि अप्रत्याशित रूप से मेरे अपने शहर के लिए ट्रांसफर आर्डर्स आ गए जिसके लिए मैं तमाम कोशिशें कर रहा था। वहाँ की जिम्मेदारियों से मुक्ति पाकर, सहकर्मियों और नन्हे फरिश्ते से विदा लेकर, अपनी उसी अटैची और होल्डाल के साथ मैं वापस चला आया। आने से पहले मैनेजर को लफ़्फ़ाज़ से हुई उस मुलाकात के बारे में जरूर बता दिया था, और उसके ठिकाने के बारे में भी। यहाँ घर और नई ब्रांच की जिम्मेदारियों में ऐसा फँसा कि वो लोन एकांउटंस, मेदिनीपुर में आलू खाता मैनेजर और मायाविनी, सब मेरे लिए एक धुँधली याद रह गए। रात्रियों में नींदें कुर्बान कर लिखना जरूर जारी रहा लेकिन लफ़्फ़ाज़ की अधूरी, परिणतिहीन कहानी हवा में लटकती रही। इसमें भला कहानी जैसा क्या था? लेकिन उसकी याद जेहन से कभी मिटी नहीं। नींद या जाग के किनारे उसका चेहरा, खास तौर पर डरावने तरीके से यकलख्त मुस्कराना, सामने आता रहा।

पचीस बरसों के बाद मैं फिर उसके सामने था। पहले जैसे ही चाकू की तरह काटती ठंडी हवाओं के बीच टप टप टपकती ट्रेन में, नागफनियों के झुंडों और निर्जन गाँवों के बीच एक मुश्किल, बेउम्मीद सफर के बाद उस तक कैसे पहुँचा, इसे रहने दो। उस साल जब देश के दक्षिणी हिस्से में एक सितारों से प्रेम करने वाले युवक ने यह लिखकर खुदकुशी कर ली थी कि वह अपनी आत्मा और देह के बीच एक बढ़ती हुई खाईं महसूस करता है। वह एक monster बन गया है। उसे monster बनकर नहीं जीना था। उसने यह भी लिखा था कि वह महसूस करता है कि हमारी भावनाएँ और मान्यताएँ झूठी हैं, प्रेम बनावटी, कला कृत्रिम। नहीं जीना था उसे नकली इश्क के साथ, न नकली कला के। उस साल जब देश के अलग अलग हिस्सों में लेखक कत्ल किए गए। इस प्राचीन देश की आज तक की सबसे पहली मुसन्निफकुशी। मुझे उस लफ्जबाज के पास जाना था, कहने कि वह अपना खतरनाक खेल बंद करे, लोग मरने लगे हैं। पूछना था कि क्या उसके भीतर भी कोई खाईं है? न सही खाई, कोई नाली ही, गड्ढा या सुराख ही। वह किस प्रकार जिए जाता है? हाँ, और वे सवाल भी जो पिछली बार अधूरे छूट गए थे।

पड़ोस के राज्य की राजधानी में बैंक का एक सेमिनार था। वहाँ जाने वाली ट्रेन उन जुड़वाँ शहरों से होती हुई जाती थी। मुझे लगा कि वह लफ़्फ़ाज़ से मिल पाने का आखिरी मौका था, इसके बाद शायद…। वापसी के सफर में मैं उस स्टेशन पर उतर गया। इस बार उसके घर तक पहुँचने में पिछली बार जैसी असुविधा नहीं हुई। ‘अंकुर विहार’ नाम की बस्ती पहले शहर के बाहर थी लेकिन अब शहर उसके आगे, बहुत दूर तक फैल गया था। स्टेशन पर ही ऑटो मिल गया और इसके पहले ही कि मैं दोनों शहरों के बदलावों को आँखों में भर पाता, वह बस्ती सामने आ गई। पिछली बार खेतों और पेड़ों के बीच जिस कच्ची सड़क पर चलना पड़ा था, वह तो थी ही नहीं। उसके घर के रास्ते की मुझे एक धुँधली स्मृति थी। कुछ भटकना पड़ा, लेकिन पहुँच ही गया।

पहले जो दो अगल बगल लुटी-पिटी दुकानें थीं, उन्हें मिला कर एक कर दिया गया था। पिछली बार वह एक निर्जन, सुनसान जगह जान पड़ी थी लेकिन अब वहाँ हलचलें और गहमागहमी थे। वह एक खासा बड़ा डिपार्टमेंटल स्टोर था। सीढ़ियाँ चढ़कर शीशे के दरवाजे को धकेल कर भीतर दाखिल हुआ और कैशियर गर्ल से दुकान के मालिक के बारे में पूछा। उसने खामोशी से कोने में एक केबिन की ओर इशारा किया जहाँ ‘मैनेजर’ लिखा था। मैंने उस केबिन का दरवाजा हौले से धकेला और वहाँ खुले बालों वाली एक औरत को मेज पर झुके, लैपटाप पर कुछ काम करते देखा। उसकी पीठ दरवाजे की ओर थी। आहट सुनकर उसने मुड़ कर मुझे देखा। वह मायाविनी थी, एकदम वही। वैसी ही बड़ी बिंदी थी उसके माथे पर, और उसी तरह झूलते हुए झुमके। लेकिन साथ की दीवार पर मायाविनी की माला जड़ी तस्वीर ने मुझे अपनी गलती का एहसास कराया। वह मायाविनी नहीं, उसकी बड़ी हो चुकी बेटी थी, शायद वही जो पिछली बार…। उसकी माँ को बीच के बरसों में मौत झपट्टा मार कर ले गई थी।

– मुझे लफ़्फ़ाज़ जी से मिलना है। मैंने कहा।

– कौन? उसने कहा।

– मि. लफ़्फ़ाज़।

– वो तो यहाँ नहीं रहते।

– वे कहाँ रहते हैं? मेरा मिलना जरूरी है।

– आप?

उसने मुझे बिठाया, चाय भी पिलाई। हम बातें करते रहे। बातचीत के दौरान उसने मायाविनी जैसी ही खुश्क आवाज में जोर देकर कहा, एक बार नहीं दो बार, कि उन लोगों ने अखबार में छपवा रखा है कि उनके पिता से कोई किसी तरह का लेन-देन करता है तो यह उसके अपने रिस्क और जिम्मेदारी पर होगा। परिवार वालों का इससे कोई मतलब नहीं, और उन्हें बेवजह परेशान न किया जाए। वे कहाँ रहते हैं, यह पूछने पर उसने कहा कि वहाँ तक खुद पहुँच पाना मेरे लिए मुश्किल होगा। उसने मोबाइल पर किसी से बात की। थोड़ी देर में उसका बेटा, जो सत्रह अठारह साल का एक शर्मीला जवान था, दुकान में आया। उसके पास मोटर साइकिल थी। वह मुझे काफी देर तक बस्ती की गोल और उलझी गलियों में घुमाता रहा। थोड़ी देर के बाद उसने एक सँकरी गली के सिरे पर मोटरसाइकिल खड़ी की और पैदल रास्ता बताते हुए आगे चलता रहा। एक ऊँची दीवारों वाला गोदाम आया। उसने उसके भारी भरकम लोहे के गेट को ताकत लगाकर भीतर धकेला और मुड़कर कहा, अंकल जी, इस तरफ।

वहाँ छत के सूराखों से छनकर आती एक नीम-रोशनी थी। फर्श कच्ची ईंटों का था और दीवारें बिना पलस्तर की। दीवारों से सटे बहुत सारे गत्ते के डिब्बे, बँधी हुई बोरियाँ थीं। कुछ कबाड़ भी, यूँ ही बिखरा हुआ। शायद वह उनकी दुकान का गोदाम था और लफ़्फ़ाज़ का ठिकाना भी। एक कोने में एक बिस्तर था जिसके पास एक छोटी सी मेज पर पानी का एक जग, गिलास और कुछ और चीजें रखी थीं। बिस्तर खाली था। मैंने निगाह दौड़ाई तो दूसरे कोने में शैल्फों के बीच एक मेज के गिर्द कुछ कुर्सियाँ नजर आईं जहाँ कुछ लोग बैठे एक मीटिंग कर रहे थे। मेज पर कुछ कागज और किताबें थीं। क्या उसने बाकायदा एक दफ्तर खोल लिया है, मैंने सोचा। क्यों न होता, मायाविनी जा चुकी थी और अब वह आजाद था, लफ्जों को आसमान में पतंग की तरह उड़ाए या लफ्जों के आसमान में खुद उड़े पतंग की तरह। सामने की कुर्सी पर जो एक सफेद दाढ़ी, धँसी आँखों और हल्की झुर्रियों वाला शख्स बैठा था, उसे मैं उतनी दूर से पहचान न सका। लेकिन करीब आने पर जब उसने चश्मा चढ़ाकर बड़े बड़े चमकते कंचों से मुझे उसी नाग जैसी टकटकी से देखा, मुझे कोई संदेह न रहा। वही था वह, हमारे सुंदर शब्दों का मजाक बनाने वाला, वाक्यों का उठाईगीर, हमारी लड़ाइयों को भीतर से कमजोर करने वाला, अभी तक जिंदा, हमारे वक्त पर एक लांछन की तरह।

लफ़्फ़ाज़ के नाती ने अपने नाना को पैरीपोना किया। शायद उसे भी मुझे पहचानने में कुछ पल लगे। उसने वहाँ बैठे लोगों को आँखों से ही जाने का इशारा किया। वे उठकर हमारी अगल बगल से होते हुए चुपचाप गोदाम के बाहर चले गए। मुझे लफ़्फ़ाज़ के नाती के साथ वापस जाना था, इसलिए वह वहीं बैठा रहा।

– देखिए, आपके बैंक के लोन का मामला तो अदालत में है। उसने बहुत धीमी आवाज में कहा। – अब जो भी फैसला होगा…

– नहीं, मैं इस वक्त बैंक की ओर से नहीं आया।

– फिर? इतने सालों के बाद? क्या जानने आए हैं?

– बस यूँ ही कुछ। आपके बारे में। मैंने कहा।

– क्या आप एक रा… राइटर भी? उसने हकलाते हुए कहा।

– जी? मैंने कहा।

– लेकिन हों भी तो क्या? पहले लगता था उनसे डर… लेकिन अब…।

वह बहुत धीमी आवाज में बोल रहा था। थरथराते, बेसुरे लफ्ज जो मुझ तक पहुँचने से पहले ही जैसे हवा में घुल जाते थे। उच्चारण भी साफ न था। आखिर बढ़ती उम्र एक असर रखती है। वह सुनने भी कुछ ऊँचा लगा था। लफ़्फ़ाज़ का नाती जो उसके करीब बैठा था, ने उसकी बात को दोहराया। कैसे कहूँ, मैंने सोचा। वह एक अकेली बात जो उसने हमेशा अपने दिल में छुपा कर रखी हो, कभी किसी से न कही हो। इतने सारे झूठे लफ्जों के बीच सारे जमाने से छुपा कर रखा, कोई एक, उसकी आत्मा का सच। लफ़्फ़ाज़ के नाती ने उससे मेरी बात को दोहरा कर कहा। उसने जवाब में धीमी आवाज में कुछ कहा जो नाती ने मुझसे दोहराया, सच जैसा मेरे पास कुछ नहीं।

– यह कैसे मुमकिन है? मैंने कहा।

– यह कैसे मुमकिन है। नाती ने उससे दुहरा कर कहा।

– मेरे पास ऐसी कोई बात नहीं। उसने फिर कहा।

– कह रहे हैं इनके पास ऐसी कोई बात नहीं। नाती ने दोहराया।

– सुनिए, मैंने सीधे उससे कहा। – इसके बाद शायद आपसे मुलाकात न हो। अगर अब भी अपना सच छुपाएँगे तो मुझे यह सवाल तंग करता रहेगा कि आप असल में कौन थे।

– एक लफ़्फ़ाज़, सिर्फ। उसने कहा।

– जी, ये कह रहे हैं, सिर्फ एक लफ़्फ़ाज़। नाती ने मुझसे कहा।

– लेकिन लफ्जों के मायने? मैंने जैसे खुद से ही कहा, बहुत धीमी आवाज में।

वह मुस्कराया, वही एकाएक मुस्कान, लेकिन कुछ कहा नहीं। मैं अपने भीतर बाकी सवालों को स्थगित कर उठ खड़ा हुआ, चलने को तैयार। उसके नाती ने अपनी मोटरसाइकिल पर मुझे वहाँ छोड़ दिया जहाँ से स्टेशन तक जाने के लिए ऑटो मिलते थे। जब वह आँखों से ओझल हो गया तो मुझे ख्याल आया कि मुमकिन है कि अपने नाती की मौजूदगी में उसने कुछ न कहना चाहा हो। केवल हम दोनों की बातचीत में वह शायद…

हम जिन रास्तों से आए थे, उन्हें याद करता मैं पैदल वापस चलने लगा। गोदाम वहाँ से काफी दूर था। रास्ता टेढ़ा मेड़ा था। फिर भी किसी प्रकार गोदाम तक वापस पहुँच ही गया। उसके ऊँचे, भारी भरकम लोहे के गेट को धकेलकर भीतर दाखिल हुआ।

लफ़्फ़ाज़ अभी तक अपने ‘दफ्तर’ में था, अकेला। वहीं कोने की कुर्सी पर बैठा वह कुछ पढ़ या सोच रहा था। बीच बीच में एक कागज पर कुछ लिखता था, शायद नए नए सीखे कुछ आकर्षक लफ्ज या किसी नए कारनामे का प्लान, उसकी रूपरेखा। उसने दूर से अपने चमकते कंचों से मुझे देखा। मैं गोदाम की लंबाई पार कर, उसके पास पहुँच कर खड़ा रहा, चुपचाप। मैंने हताश भाव से बाएँ हाथ से हवा में एक प्रश्नवाचक इशारा किया। वह तुरंत नहीं, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि मैं जानना चाहता हूँ कि वह कौन है, क्या है। उसके अस्तित्व की हकीकत। उसकी परिभाषा। उस मुश्किल प्रमेय का कोई समाधान, जो वह मेरे लिए था।

वह चश्मा उतार कर उसकी कमानी चबाते हुए मुझे देखता रहा, इस बार बिना मुस्कराए। अपनी कुर्सी से उठकर वह बिस्तर के करीब एक अलमारी के पास गया। वहाँ थोड़ी देर कुछ तलाशता रहा। मैंने देखा कि उसने एक डिब्बे से नकली दाँतों का सेट निकाला, ध्यान से मुँह में फिट किया। फिर उसने एक स्पष्ट, ऊँची, ताकतवर आवाज में कहा।

एक लफ़्फ़ाज़, बस।

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