किस्सा एक शुतुरमुर्ग का | रमेश बक्षी
किस्सा एक शुतुरमुर्ग का | रमेश बक्षी

किस्सा एक शुतुरमुर्ग का | रमेश बक्षी – Kissa Ek Shuturamurg Ka

किस्सा एक शुतुरमुर्ग का | रमेश बक्षी

वह छोटा-सा खत मेरी उँगलियों से फिसलकर हथेली में जा पहुँचा है और इतनी तेजी से मुट्ठी बंध गई है कि खोले नहीं खुल रही है, मैं कुरसी पर कहीं भी नहीं देखता-सा बैठा हूँ और खत को मोड़े जा रहा हूँ, अपनी उँगलियों को कसे जा रहा हूँ। वह खत है तो मेरी मुट्ठी में, पर यूँ लग रहा है जैसे खत की मुट्ठी में मैं खुद हूँ, उसमें लिखे अक्षरों की उँगलियाँ अपनी पकड़ ढीली ही नहीं कर रही हैं ओर इस बेबी को भी इसी समय आना था। उसने पेटी कसकर बाँधी है और मम्मी ने स्कर्ट में सल बहुत डाल दिए हैं या धोवी ने कलफ बहुत लगा दिया है कि उसकी दुबली-सी टाँगें टिटिहरी-सी लग रही हैं। मेरी भी आँखें कैसी हैं कि हर लड़की मुझे किसी-न-किसी चिड़िया से मिलती हुई लगती है। लो, उसने पीछे से स्टूल पर चढ़कर मेरी आँखें बंद कर दी हैं और मैंने उसे झिड़क दिया है। मैं देगची में उबलते पानी – जैसे अपने मूड का ठंडा करने की कोशिश किए जा रहा हूँ पर यह बेबी माने तब तो? अब उसके प्रश्नों को उत्तर देना ही पड़ रहा है। पूछ रही है वह, ‘क्यों भैया, ये कौवा क्या सारे संसार में होता है?’ मैं कह देता हूँ, ‘हाँ’ कहने के लिए सिर हिला देता हूँ। वह फिर पूछती है, ‘तुम तो खूब घूमे हो भैया?’ मैं जवाब देने के बजाय उसे दूर हटा देता हूँ पर वह मानती ही नहीं। मुझ पर चाहे जो बीते, बेबी को उससे क्या? वह एक के बाद एक प्रश्न पूछे ही जा रही है, प्रश्न पर प्रश्न, प्रश्न पर प्रश्न, ‘कबूतर किस देश में होता है भैया? तो तीतर और बटेर में क्या फर्क है? तो गौरैया नहाती क्यों है? तो मुर्गे के सिर पर कलंगी क्यों होती है? तो उल्लू दिन में क्यों सोता है?’… मैं खत को मोड़े जा रहा हूँ, उँगलियों को कसे जा रहा हूँ, ‘और भैया शुतुरमुर्ग दुनिया की सबसे बड़ी चिड़िया है क्या? हमने तो कभी देखी ही नहीं बड़ी भारी चिड़िया, कहाँ होती हैं ये भैया?’

बेबी के प्रश्न से मेरी आँखें बंद हो गईं हैं। शुतुरमुर्ग की तसवीर मुझे दिखाई दे रही है। तसवीर का फ्रेम हट रहा है और वह चिड़िया दौड़ने लगी हैं, धीरे-धीरे मेरे नजदीक आती जा रही है वह चिड़िया। मुझे लग रहा है जैसे मैंने कहीं देखा है इसे, ‘जी हाँ, मैं शुतुरमुर्ग हूँ। पूर्वी अफ्रीका, दक्षिणी अफ्रीका, सीरिया, मैसोपोटामिया, अरब और कई रेगिस्तानी जगहें मेरा घर हैं। देखो मेरे ये पंख कितने कीमती हैं, प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के हैट के लिए, मेरे पंख, उपहार दिया करते हैं। मिस्त्र में जब राजा के राजाओं का राज था तब से ही तुम आदमियों की आँखें हमारी तरफ खिंचती हैं। एक बार तीन करोड़ साठ लाख रुपएँ के पंख बिके थे।…

…पिकनिक शहर से दूर कोई दस मील पर थी। कॉलेज के सब साथी ग्रामोफोन के रॉक्-न-रोल में व्यस्त थे और हम दोनों दूर निकल आए थे – मैं और लंबे बालों वाली वह साँवली लड़की। उसका सब-कुछ मुझे कविता-जैसा लग रहा था, उसका चोटियों में वेणी गूँथना, उसका मुसकराकर गंभीर हो जाना, उसका बात करने का ढंग कि जैसे कोई मालनिया हो वह, और सुई -धागा लिए बाग में घूमती-घूमती गूँथ रही हो सपनों के हार वह कहे जा रही थी, ‘एक छोटा-सा घर होगा, उसमें केवल तीन कमरे होंगे। सामने बड़ी लंबी खुली जगह होगी, उसमें हम गुलाब के पौधे लगाएँगे ओर हर झाँझ-सुबह का इंतजार करेंगे कि कल कितने फूल खिलेंगे। उस मकान का किराया होगा चालीस रुपया महीना, बिजली ओर पानी का अलग से।’ उसकी बात काट मैंने पूछा, ‘किराए का क्यों, हमारा अपना नहीं हो सकता?’ लंबे बालों वाली साँवली लड़की ने जोर से हँसकर कहा था, ‘तुम सपनों की एक्जागरेट करके उनकी खूबसूरती मार देते हो।

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मैं चुप हो गया था, इसलिए कि उसका मध्यवर्गीय संतोष बड़ा प्यारा लगा था मुझे। एक दिन तो वह बिलकुल नन्हीं-सी गुड़िया ही बन गई। पूछा तो ये कि क्या बनोगे तुम? जवाब में मैंने ही प्रश्न पूछा, ‘तुम क्या बनोगी?’

दोनों के प्रश्न जिद पर तुले थे। लंबे बालों वाली वह साँवली लड़की हार ही गई आखिर। बोली, ‘मैं बनना चाहती हूँ…।’ और वह दूर आकाश के नीले को तकने लगी कि कहे तो कहे क्या आखिर? जब कुछ न सूझा तो एक उड़ती चिड़िया की ओर मेरी मेरी आँखें ले जाती बोली, ‘वह।’ और वह ऐसे हँसी कि जाने कब मैं भी हँसने लगा। फिर मैंने यही कहा था, ‘तुम्हारे सपने शुतुरमुर्ग के पंखों के समान कीमती हैं। जी चाहता है कि तुम्हारा एक पंख तुम्हारी कविता में से तोड़कर तुम्हारी वेणी में गूँथ दूँ।’ वह हँस दी थी और उसके सपनों के शुतुरमुर्गी पंखों की छाँबों में मेरी चढ़ती उम्र बसेरे करती रही थी।…

मैं देख रहा हूँ कि रेतीली जमीन पर शुतुरमुर्ग आगे बढ़ता जा रहा है और कह रहा है, ‘अपने रंग की मैं एक ही चिड़िया हूँ। मेरी दुम और डैने का निचला हिस्सा सफेद होता है, जैसे काली जमीन पर सफेद बार्डर हो…’

…शाम को जब लंबे बालों वाली साँवली लड़की को पार्क में समरहट की बैच पर बैठे दूर से देखा तो मेरे मुँह से उसका नाम नहीं निकला। उसके नाम का पहला अक्षर तो मैं बोला, ‘श, शक्कर का श।’ पर जैसे मैं अचकचाकर खड़ा हो गया। आवाज लगाने के लहजें में बोला, ‘ओ शुतुरमुर्ग!’ उसने काले रंग की साड़ी पहन रखी थी और उस साड़ी की बार्डर थी सफेद, जैसे शतुरमुर्ग के पंखों को पहन लिया हो उसने। डिट्टो शुतुरमुर्ग के पंखों के समान, एकदम वही। मेरे इस पुकारने से वह चौंक गई थी। पूछा था उसने, ‘कहाँ है शुतुरमुर्ग?’ मैं उसकी सफेद बार्डर वाली साड़ी को देखता ही रह गया था। सच ही मैं उसके प्रश्नों से घबराता हूँ। कुछ पूछ ले तो फिर उत्तर लिए बिना नहीं रहती, उस बच्ची-सी, जो कुछ माँग ले तो माँगी चीज लिए बिना नहीं रहती। मैं कुछ नहीं बोला तो, वही बोली, ‘देखों हमें कभी भी आधी बात न कहा करो’। पूछा मैंने, ‘क्यों?’ तो आगे बढ़ एक फूल तोड़ा, ‘बहुत प्यारा है।’ और फिर हथेली-हथेली के बीच मसल डाला उसे।

…जैसे किसी ने ताश का पत्ता पलट दिया है या जलती सिगरेट किसी ने मेरे गाल से छुआ दी है कि मैं चमककर आँखें मलने लगा हूँ। समरहट की बैंच पर बैठी, सफेद बार्डर की काली साड़ी पहनी, लंबे बालों वाली साँवली लड़की को जब मैं गौर से देख रहा हूँ तो वहाँ वह नहीं है -एक शुतुरमुर्ग है वहाँ और मुझसे कह रहा है, ‘मैं गरम देश की रहने वाली चिड़िया हूँ। उड़ती रेत, झुलसती हवा, सूरज की आग बरसती किरनों में हम सुखी रहती हैं पर ठंडी जगह नहीं रह सकतीं। भगवान् करे कि किसी दिन रेगिस्तानों पर बादलों की कृपा हो और वहाँ भी बरसातें होने लगें। ऐसा हुआ तो हम सब मर जाएँगी। हिंदुस्तान के कुछ लोग मुझे जू के लिए पकड़ लाए थे पर यहाँ मुझे निमोनिया हो गया। मैं सर्दी बरदाश्त नहीं कर सकती।…’

‘क्यों? कहाँ थी तुम पिछले दो महीने से?’ मैंने पूछा। लंबे बालों की वजनी चोटी को पीछे डालकर उसने कहा था, ‘दिल्ली। मामाजी के घर। बड़े रईस हैं वे। फैक्टरियाँ हैं उसकी। शानदार बँगला,। दो-दो कारें, चार-चार नौकर!’

‘और?’

‘और आठ-आठ आँसू।’ वह हँसकर बोली, ‘जीवन में इतनी ठंडक होती है यह मैंने पहली बार महसूस किया। हमारे पिताजी मास्टर है। जो कुछ मिलता है उसमें जैसे-तैसे कटती है। पहले गिनती की तनख्वाह और ऊपर से हम बहनों की ब्याह लायक उम्रें।’

‘यह तो यहाँ की कह रही हो, पर दिल्ली की कुछ सुनाओ।…तो तुमने वहाँ ये देखा कि उच्च वर्ग में कभी गरमी का मौसम नहीं आता?’ मेरी बात के बाद उसने स्वल्प-विराम भी नहीं लगाया और बोली, ‘हाँ, ठीक वैसे ही जैसे हमारे गंदे घरों से, गरमी का मौसम जाने का नाम ही नहीं लेता पर हमें तो इसकी आदत पड़ गई है। मुझे तो अपने इस मध्यवर्ग की उड़ती रेत, झुलसती हवा और सूरज की आग बरसाती किरनों में ही सुख मिलता है।’

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मैंने उसे उदास होने का विराम न दिया। बोला, ‘पर वहाँ ऐसी अमनचैनी थी तो जरा मुटाकर आतीं ऐसा करने की बजाय तुम तो वहाँ से दुबती हो आयीं।’

मौसम गरमी का था पर मामाजी के घर एयर कंडीशंड मामला था। दीवारें ठंडक बरसाती थीं। ऐसे में मुझे हो गया निमोनिया। डॉक्टर आश्चर्य कर रहा था कि निमोनिया और दिल्ली की एक्स्ट्रीम गरमी में। पर यहाँ लौटी नहीं कि भली-चंगी हो गई। इतना कह वह अपनी एक चोटी के रिबिन को खोलने-बाँधने में व्यस्त हो गई।

मैंने एक बार उसकी तरफ और दूसरी बार जाने कहाँ देखकर धीरे से कहा, ‘ठीक शतुरमुर्ग…एकदम वही।’ पर उसने मेरा कहा सुन लिया और पूछा – क्या कहा?’ मैं बोला, ‘कुछ भी तो नहीं।’ और उसकी तरफ देखने लगा।

…मैं बेबी की तरफ देखे जा रहा हूँ कि उसकी पेटी कसी हुई है और स्कर्ट के घेर में धोबी ने कलफ बहुत लगा दिया है पर चुप हूँ क्योंकि संसार की सबसे बड़ी चिड़िया मेरे सामने ज्यों-की-त्यों खड़ी है और वह अपने बारे में बोले जा रही है, ‘जी हाँ, हम शुतुरमुर्गों की एक बड़ी प्रसिद्ध आदत है। रेगिस्तान में जब तूफान आते हैं और रेत के ढेर-के-ढेर उड़ने लगते हैं तो आते तूफान को देख हम रेत में एक गड्ढा बनाते हैं और उसमें अपना सिर छिपा लेते हैं। माना कि सिर छिपाने से आता तूफान लौट नहीं जाता पर हमारा मन इतना कायर होता है कि तूफान की संभावना से भी डरता है!…’

मैंने साफ-साफ बात की उससे, ‘आखिर डर किस बात का है? अगर जिंदगी में साथ रहना है तो किसी-न-किसी दिन एक तूफान का सामना तो करना ही पड़ेगा। जब तूफान गुजर जाएगा तो अपने उजड़े सपनों की छतें ठीक कर लेंगे।’

वह बोली, ‘ठीक है।’ और उस क्षण मुझे लगा कि उसके लंबे बालों में तूफान को बाँध लेने की भी ताकत है। मैं उसकी तरफ देखता ही रह गया था। जब मेरी इस बात पर कि पापा टाँग अड़ाएँगे तो क्या करोगी? उसने अपना प्यारा-सा मुँह बिचकाकर सारे बल पीछे की ओर झटक दिए थे। जाने उसने मुँह किस बात पर टेढ़ा किया था, पापा की अक्षमता पर या मेरे कायर-संदेह पर या अपने आप पर? पर, जब बात मास्टर साहब से कही गई तोवह अंदर कही छिपी रही, कुछ पूछा गया तो चुप बनी हरी। बोली तो यही, ‘जैसी आपकी इच्छा पापाजी।’ मेरा मन क्रोध से उफनने लगा था, ‘कैसी शुतुरमुर्ग लड़की है यह?’ पर एक दिन हिम्मत कर ही बैठे। रात के दो बजे हम स्टेशन पर थे, किसी भी ट्रेन से, किसी भी दिशा के, किसी भी शहर की ओर, किसी भी क्षण रवाना हो जाने के लिए तैयार। मैंने सुझाव दिया, ‘मैं टिकिट खरीदता हूँ तब तक तुम सूटकेस के पास रहो। यह मफलर बाँधे रहना, इससे कोई पहचान न सकेगा।’ उसने हाँ में सिर हिला दिया उस रात वह सफेद सलवार और काली कुरती पहने नायलोनी दुपट्टा ओढ़े डिट्टो शुतुरमुर्ग लग रही थी। मेरी आँखों में सपने ऊँचे-ऊँचे झूले ले रहे थें। टिकिट, खरीद लीं मैंने। ट्रेन आने में केवल बीस मिनट थे। मेरा मन चाहा रहा था कि कोई भला आदमी आए और हमारी मोहब्बत की तारीफ करता पीठ ठोंककर आर्शीवाद दे दे। पर यह क्या? वह टैक्सी में क्यों जा बैठी और टैक्सी चल क्यों दी? मुझे जब मालूम हुआ कि ढाई बजे रात को लंबे बालों वाली उस साँवली लड़की ने अपने पापाजी के पैरों पर सिर रखकर कहा कि मुझे बचा लो। – तो मेरे शरीर से इस एक बात की कई-कई ध्वनियाँ निकली कि ओ री ओ शुतुरमुर्ग लड़की, जब तूफान आया तो तूने गड्ढे में सिर छिपा लिया।

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…मुझे गड्ढे में सिर छिपाकर बैठ हुए शुतुरमुर्ग पर बड़ा तरस आ रहा है पर वह सिर छिपाए हुए ही कह रहा है कि हम पत्थर भी पचा जाते हैं। लंदन में एक बार एक शुतुरमुर्ग का पोस्टमार्टम किया गया तो दो कालर बटन, पाँच पेनी सिक्के, एक सोने का जेवर और भी जाने क्या-क्या चीजें उसके पेट में से निकलीं…।

‘उफ।’ मेरा मुँह एक सकते की दशा में खुला-का-खुला और आँखें फटी-की-फटी रह गईं। कभी मैं उसके भोले चेहरे में उसकी मनचीती की रेखाएँ नहीं पढ़ पाया। जब भी बात चलती वह बात टालती, या एक-दो साल का समय माँगती सोचने के लिए। उसका यह कहना मुझे याद है, ‘तुम अगर मेरी बठोरता जान जाते?’ मेरे लाख पूछने पर भी उसने एक शब्द मुँह से नहीं निकाला…। तो यह थी कठोरता…। देखा उस लड़की को, उसी लंबे बालों वाली साँबली लड़की को। सगाई हो चुकी थी उसकी पर इस पत्थर – जैसे भारी चीज को भी पचा गई वह।…

…शुतुरमुर्ग का भाषण जारी है, ‘जी हमारे पंख तो होते हैं पर हम उनसे उड़ नहीं सकते। हम पंखयुक्त पंखहीन पक्षी हैं। हमारे पंख तो देखने-भर के हैं, वे खूबसूरत हैं, कीमती हैं…’

‘…मैं तुम्हें ठीक-ठीक समझ गया हूँ। इस आखिरी पत्र में मैं तुम्हारे सुखी जीवन के लिए शुभकामनाएँ ही भेज रहा हूँ। तम्हारी बातें बड़ी खूबसूरत थीं, तुम्हारे विचार बेलबूटेदार थे, तुम्हारे सपने कीमती थे – ऐसे सपने कि जिन पर सैकड़ों कहानियाँ लिखी जा सके, ढेरों गीत गाए जा सके पर जो जिंदगी को साँसें न दे सकें और प्रेम को बरसते पानी में आश्रय की छत न दे सकें। खुश रहो प्रिय शुतुरमुर्ग, तुम जिंदगी-भर खुश रहो…।

‘…पर मेरी आँखों के सामने से यह शुतुरमुर्ग हटने का नाम ही नहीं ले रहा है। बेबी मेरे कंधा हिला रही है, पूछ रही है, ‘क्या हो गया भैया?’ और खत वाले हाथ की मुट्ठी इतनी तेजी से बँध गई है कि खोले नहीं खुल रही है, मैं खत को मोड़े जा रहा हूँ और उँगलियों को कसे जा रहा हूँ। बेबी अपना प्रश्न लिए उत्तर की बाट जोह रही है, और मैं अधर में लट गया हूँ। यह शुतुरमुर्ग मेरी आँखों के आगे से हटे तब तो कहूँ कुछ। पर अभी तो इसे ही कहना बाकी है, ‘जी हाँ हमारी उम्र पचीस वर्ष होती है। पचीस से ज्यादा नहीं जीते हम।…’

…लो, मेरी मुट्ठी खुल गई है। यह उसी लंबे बालों वाली साँवली लड़की का खत है, मैं इसे पढ़ भी रहा हूँ और नहीं भी पढ़ रहा हूँ, मुझे क्षमा कर देना। कल मैंने एक खबर पढ़ी कि भारत की मध्यवर्गीय लड़कियों की औसत उम्र पचीस वर्ष है – बीस और पाँच, और तुमने भी एक बार कहा था न कि शुतुरमुर्ग पचीस वर्ष जिंदा रहता है। मैं दोनों हूँ, एक साथ दोनों। समझ लेना कि तुम्हारा शुतुरमुर्ग मर गया…’

खत मेरी हथेली पर से फिसलता हुआ फर्श पर जा गिरा है। बेबी का प्रश्न अब भी ताजा है, ‘बताओ न भैया, यह शुतुरमुर्ग कहाँ होता है?’ मैं उत्तर देता हूँ, ‘हिंदूस्तान के हर घर में यह पाया जाता है।’ वह फिर पूछती है, ‘तो अपने घर में भी है क्या भैया?’ उसके इस प्रश्न ने मेरी पीठ पर जैसे कोड़ा मार दिया है। मैं बेबी की तरफ देखता हूँ, उसके स्कर्ट की बार्डर सफेद है और शेष हिस्सा काला। उसकी आँखों में खूबसूरत और कीमती सपनों के पंख हिल रहे हैं। मुझमें उसके प्रश्न का उत्तर देने की शक्ति नहीं है और मैं दोनों हाथों से अपना चेहरा ठीक वैसे ही छिपा लेता हूँ जैसा शुतुरमुर्ग छिपा लेता है।

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