किसलिए | प्रेमशंकर मिश्र

किसलिए | प्रेमशंकर मिश्र

किसलिए?
और आखिर कब तक?
किया जा सकता है समझौता
एक ऐसे पिघलते सूरज से
जिसकी
गति, मति और गर्मी में
कहीं कोई ठहराव नहीं है
रोज
यही एक सवाल सबेरे से शाम तक
किसी बच्‍चे के हाथ लगे
रबड़ के टुकड़े की तरह
घटता बढ़ता रहता है,

लोग बाग
मुँह अंधेरे ही
मुझसे सवाल कराते हैं
तुम्‍हारी आँखे लाल क्‍यों हैं?
पीली नहीं हैं क्‍यों?
जब कि
खून का हर कतरा
अगली पीढ़ी को
नई रोशनी देने के लिए
फ्यूज वायरों में चुक गया है.
मैं जवाब देता हूँ
”लाल आँखें
किसी शोख इंतकाम के लिए आमदा हैं
जिसने
नाक, कान, आँख, चमड़ी
और पूरे बदन में
फैली पसरी तांतों की
हर झपकी हराम कर दी है”

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मैं
अपने चारों ओर देखता हूँ
सड़क, दफ्तर, अस्‍पताल, दुकान,
मदरसे और शामियाने
सब के सब
ऐसे ही लाल फीते से
रोज नपते रहते हैं
जहाँ जायज दस्‍खतें
हर कदम
हर नाजायज दस्‍तखतों को
जायज करती हैं,
काफी हाऊस, बार, मंदिर यतीमखाने,
असेंबली और अवामीलीगें
जब एक साथ
एक सुर में खनकती हैं, तब|
मुझसे भी नहीं रहा जाता
मजबूरी में
ट्रेन के गोले की तरह
आउट हुई औलादों को
भरपेट भाँग पिलाकर
मैं फिर
बीती रात की तरह
रह रह कर
साँस ले रहे
कच्‍चे हरे माँस को
हड्डियों से
अलग करने की नाकामयाब कोशिशों से|
अपनी भूख मिटाता हूँ.

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सूरज
सूरज ऊरज कुछ नहीं
सब लगो है
दरअसल
अब इसमें कोई गर्मी
कतई नहीं है
यह तो हम हैं
कि जल रहे हैं
और श्रीमान
हमीं में पल रहे हैं
आँतों को भूनकर
मैंने अभी अभी
अपने ही चाँद को
धूल में मिलाया है
कल
कलेजे को
कुछ और उबाल कर
इस दकियानूसी सूरज को भी
पी जाऊँगा
कैसा समझौता
वह भी
किसलिए?

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