कठिन समय में प्रेम
कठिन समय में प्रेम

एक कठिन समय में मैंने कहे थे
उसके कानों में
कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द

उसकी आँखों में मुरझाए अमलतास की गन्ध थी
वह सुबक रही थी मेरे कान्धे पर
आवाज लरजती हुई-सी
कहा था बहुत धीमे स्वर में –
यह धरती मेरी सहेली है
और धरती को रात भर आते रहते हैं डरावने सपने
कई फूल मेरे आँगन के, दम घुटने से मर गये हैं
खामोशी मेरे चारों ओर धुएँ की तरह पसरी रहती है

See also  मुझे चाहिए | अशोक वाजपेयी

वह चुप थी
भाषा शब्दों से खाली

एक ऐसा क्षण था वह हमारे बीच
कि उसकी नींद में खुलता था
और फैल जाता था चारों ओर एक धुन्ध की तरह
हम बीतते जाते थे रोज
हमारे चेहरे की लकीरें बढ़ती जाती थीं

फिर एक दिन
लौटाया था उसने
मेरे भीगे हुए वे शब्द
हू-ब-हू वैसे ही

See also  उदासीनता का अभिशाप

चलते-चलते उसकी आँखों के व्याकरण में
कौंधी थीं कुछ लकीरें
शायद उसे कहना था
सुनो, मैं धरती हूँ असंख्य बोझों से दबी हुई
शायद उसे यही कहना था

वह हमारी आखिरी मुलाकात थी

Leave a comment

Leave a Reply