ज्योतिष्मती | जयशंकर प्रसाद
ज्योतिष्मती | जयशंकर प्रसाद

ज्योतिष्मती | जयशंकर प्रसाद

तामसी रजनी के हृदय में नक्षत्र जगमगा रहे थे। शीतल पवन की चादर उन्हें ढँक लेना चाहती थी, परन्तु वे निविड़ अन्धकार को भेदकर निकल आये थे, फिर यह झीना आवरण क्या था!

बीहड़, शैल-संकुल वन्य-प्रदेश, तृण और वनस्पतियों से घिरा था। वसंत की लताएँ चारों ओर फैली हुई थीं। हिमदान की उच्च उपत्यका प्रकृति का एक सजीव, गम्भीर और प्रभावशाली चित्र बनी थी!

एक बालिका, सूक्ष्म कँवल-वासिनी सुन्दरी बालिका चारों ओर देखती हुई चुपचाप चली जा रही थी। विराट् हिमगिरि की गोद में वह शिशु के समान खेल रही थी। बिखरे हुए बालों को सम्हाल कर उन्हें वह बार-बार हटा देती थी और पैर बढ़ाती हुई चली जा रही थी। वह एक क्रीड़ा-सी थी। परन्तु सुप्त हिमाञ्चल उसका चुम्बन न ले सकता था। नीरव प्रदेश उस सौन्दर्य से आलोकित हो उठता था। बालिका न जाने क्या खोजती चली जाती थी। जैसे शीतल जल का एक स्वच्छ सोता एकाग्र मन से बहता जाता हो।

बहुत खोजने पर भी उसे वह वस्तु न मिली, जिसे वह खोज रही थी। सम्भवत: वह स्वयं खो गई। पथ भूल गया, अज्ञात प्रदेश में जा निकली। सामने निशा की निस्तब्धता भंग करता हुआ एक निर्झर कलरव कर रहा था। सुन्दरी ठिठक गई। क्षण भर के लिए तमिस्रा की गम्भीरता ने उसे अभिभूत कर लिया। हताश होकर शिला-खण्ड पर बैठ गई।

See also  भरतनाट्‌यम

वह श्रान्त हो गयी थी। नील निर्झर का तम-समुद्र में संगम, एकटक वह घण्टों देखती रही। आँखें ऊपर उठती, तारागण झलझला जाते थे। नीचे निर्झर छलछलाता था। उसकी जिज्ञासा का कोई स्पष्ट उत्तर न देता। मौन प्रकृति के देश में न स्वयं कुछ कह सकती और न उनकी बात समझ में आती। अकस्मात् किसी ने पीठ पर हाथ रख दिया। वह सिहर उठी, भय का सञ्चार हो गया। कम्पित स्वर से बालिका ने पूछा, ”कौन?”

”यह मेरा प्रश्न है। इस निर्जन निशीथ में जब सत्व विचरते हैं, दस्यु घूमते हैं, तुम यहाँ कैसे?” गम्भीर कर्कश कण्ठ से आगन्तुक ने पूछा।

सुकुमारी बालिका सत्वों और दस्युओं का स्मरण करते ही एक बार काँप उठी। फिर सम्हल कर बोली-

”मेरी वह नितान्त आवश्यकता है। वह मुझे भय ही सही, तुम कौन हो?”

”एक साहसिक-”

”साहसिक और दस्यु तो क्या, सत्व भी हो, तो उसे मेरा काम करना होगा।”

”बड़ा साहस है! तुम्हें क्या चाहिए, सुन्दरी? तुम्हारा नाम क्या है?”

See also  राजनीति के साइड इफेक्ट्स | अशोक कुमार

”वनलता!”

”बूढ़े वनराज, अन्धे वनराज की सुन्दरी बालिका वनलता?”

”हाँ।”

”जिसने मेरा अनिष्ट करने में कुछ भी उठा न रखा, वही वनराज!” क्रोध-कम्पित स्वर से आगन्तुक ने कहा।

”मैं नहीं जानती, पर क्या तुम मेरी याचना पूरी करोगे?”

शीतल प्रकाश में लम्बी छाया जैसे हँस पड़ी और बोली-

”मैं तुम्हारा विश्वस्त अनुचर हूँ। क्या चाहती हो, बोलो?”

”पिताजी के लिए ज्योतिष्मती चाहिये।”

”अच्छा चलो, खोजें।” कहकर आगन्तुक ने बालिका का हाथ पकड़ लिया। दोनो बीहड़ वन में घुसे। ठोकरें लग रही थीं। अँगूठे क्षत-विक्षत थे। साहसिक की लम्बी डगों के साथ बालिका हाँफती हुई चली जा रही थी।

सहसा साथी ने कहा-”ठहरो, देखो, वह क्या है?”

श्यामा सघन, तृण-संकुल शैल-मण्डप पर हिरण्यलता तारा के समान फूलों से लदी हुई मन्द मारुत से विकम्पित हो रही थी। पश्चिम में निशीथ के चतुर्थ प्रहर में अपनी स्वल्प किरणों से चतुदर्शी का चन्द्रमा हँस रहा था। पूर्व प्रकृति अपने स्वप्न-मुकुलित नेत्रों को आलस से खोल रही थी। वनलता का वदन सहसा खिल उठा। आनन्द से हृदय अधीर होकर नाचने लगा। वह बोल उठी-”यही तो है।”

साहसिक अपनी सफलता पर प्रसन्न होकर आगे बढ़ाना चाहता था कि वनलता ने कहा-”ठहरो, तुम्हें एक बात बतानी होगी।”

See also  तन मछरी-मन नीर

”वह क्या है?”

”जिसे तुमने कभी प्यार किया हो, उससे कोई आशा तो नहीं रखते?”

”सुन्दरी! पुण्य की प्रसन्नता का उपभोग न करने से वह पाप हो जायगा।”

”तब तुमने किसी को प्यार किया है?”

”क्यों? तुम्हीं को!” कहकर आगे बढ़ा!

”सुनो, सुनो; जिसने चन्द्रशालिनी ज्योतिष्मती रजनी के चारों पहर कभी बिना पलक लगे प्रिय की निश्छल चिन्ता में न बिताये हों, उसे ज्योतिष्मती न छूनी चाहिए। इसे जंगल के पवित्र प्रेमी ही छूते हैं, ले आते हैं, तभी इसका गुण….”

वनलता की इन बातों को बिना सुने हुए वह बलिष्ठ युवक अपनी तलवार की मूँठ दृढ़ता से पकड़ कर वनस्पति की ओर अग्रसर हुआ।

बालिका छटपटा कर कहने लगी-”हाँ-हाँ, छूना मत, पिता जी की आँखें, आह!” तब तक साहसिक लम्बी छाया ने ज्योतिष्मती पर पड़ती हुई चन्द्रिका को ढँक लिया। वह एक दीर्घ निश्वास फेंककर जैसे सो गई। बिजली के फूल मेघ में विलीन हो गये। चन्द्रमा खिसककर पश्चिमी शैल-माला के नीचे जा गिरा।

वनलता-झंझावात से भग्न होते हुए वृक्ष की वनलता के समान वसुधा का आलिंगन करने लगी और साहसिक युवक के ऊपर कालिमा की लहर टकराने लगी।

Leave a comment

Leave a Reply