होना न होने की तरह | अशोक कुमार पाण्डेय
होना न होने की तरह | अशोक कुमार पाण्डेय

होना न होने की तरह | अशोक कुमार पाण्डेय

होना न होने की तरह | अशोक कुमार पाण्डेय

एक

जूतों की माप भले हो जाए एक सी
पिता के चश्मों का नंबर अमूमन अलग होता है पुत्र से
जब उन्हें दूर की चीजें नहीं दिखतीं थीं साफ
बिलकुल चौकस थीं मेरी आँखें

जब मुझे दूर के दृश्य लगने लगे धुँधले
उन्हें करीब की चीजों में भी धब्बे दिखाई देने लगे

और हम दृश्य के अदृश्य में रहे एक दूसरे के बरक्स

दो

उनके जाने के बाद अब लगता है कि कभी उतने मजबूत थे ही नहीं पिता जितना लगते रहे। याद करता हूँ तो महँगे कपड़े का थान थामे ब्रांड के नाम पर लूट पर भाषण देता उनका जो चेहरा याद आता है उस पर भारी पड़ता है तीस रुपये मीटर वाली कमीज लिए लौटता खिचड़ी बालों वाला दागदार उदास चेहरा। स्मृतियों की चौखट पर आकर जम जाती है सुबह-सुबह स्कूटर झुकाए संशयग्रस्त गृहस्थ की आँखों के नीचे उभरती कालिख

जैसे पृथ्वी थक हार कर टिकती होगी कछुए के पीठ पर पिता की गलती देह पर टिक जाता वह स्कूटर

तीन

हम स्टेफी से प्यार करते थे और नवरातिलोवा के हारने की मनौती माँगते थे काली माई से। भारतीय टीम सिर्फ इसलिए नहीं थी दुलारी कि हम भारतीय थे। मोटरसाइकल पर बैठते ही एक राजा श्रद्धेय फकीर में बदल गया। त्रासदियाँ हमें राहत देती रहीं पुरुषत्व के सद्यप्राप्त दंश से। हम जितने शक्तिशाली हुए उतने ही मुखालिफ हुए।

हमारे प्रेम के लिए पिता को दयनीय होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

चार

इसकी देह पर उम्र के दाग हैं। इसकी स्मृतियों में दर्ज है सन बयासी… चौरासी… इक्यानवे के बाद खामोश हो गया यह और फिर इस सदी में उसका आना न आने की तरह था होना न होने की तरह।

घर में रखा फिलिप्स का यह पुराना ट्रांजिस्टर देख कर पिता का चेहरा याद आता है।

पाँच

भीतर उतर रहा है नाद निराला।

दियारे की पगडडंडियों पर चलता यह मैं हूँ उँगलिया थामें पिता की देखता अवाक गन्ने के खेतों की तरह शांत सरसराती आवाज में कविताओं से गूँजते उन्हें। आँखें रोहू मछली की तरह मासूम और जेठ की धूप में चमकते बालू सी चमकती पसीने की बूँदों के बीच यह कोई और मनुष्य था। सबसे सुंदर – सबसे शांत – सबसे प्रिय – सबसे आश्वस्तिकारक

वही नदी है। वही तट। निराला नहीं हैं न वह आवाज। बासी मंत्र गूँज रहे हैं और सुन रही है पिता की देह शांत… सिर्फ शांत।
मेरे हाथों में उनके लिए कोई आश्वस्ति नहीं अग्नि है

छह

यह एक शाम का दृश्य है जब एक आधा बूढ़ा आदमी एक आधे जवान लड़के को पीट रहा है अधबने घर के दालान में

यह समय आकाशगंगा में गंगा के आकार का है प्रकाश वर्ष में वर्ष जितना और प्रलय में लय जितना। दो जोड़ी आँखें जिनमें बराबर का क्षोभ और क्रोध भरा है। दो जोड़ी थके हाथ प्रहार और बचाव में तत्पर बराबर। यह भूकंप के बाद की पृथ्वी है बाढ़ के बाद की नदी चक्रवात के बाद का आकाश।

और…।

एक शाम यह है कुहरे और ओस में डूबी। एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने-अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर। अकेली हैं एक जोड़ी आँखें बादल जितने जल से भरी।

उपमाएँ धुएँ की तरह बहुत ऊपर जाकर नष्ट होती हुईं शून्य के आकार में।

सात

कुछ नहीं गया साथ में

गंध रह गई लगाए फूलों में स्वाद रह गया रोपे फलों में। शब्द रह गए ब्रह्मांड में ही नहीं हम सबमें भी कितने सारे। मान रह गए अपमान भी। स्मृतियाँ तो रह ही जाती हैं विस्मृतियाँ भी रह गईं यहीं। रह गईं किताबें अपराध रह गए किए-अनकिए। कामनाएँ न जाने कितनी।
जाने को बस एक देह गई जिस पर सारी दुनिया के घावों के निशान थे और एक स्त्री के प्रेम के

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