हारने के बाद पता चला मैं रेस में था | अशोक कुमार पाण्डेय
हारने के बाद पता चला मैं रेस में था | अशोक कुमार पाण्डेय

हारने के बाद पता चला मैं रेस में था | अशोक कुमार पाण्डेय

हारने के बाद पता चला मैं रेस में था | अशोक कुमार पाण्डेय

वह जो बीमार बच्चे की दुहाई देता
टिकट खिड़की के सामने की लंबी लाइन में आ खड़ा हुआ ठीक मेरे सामने
जिसका चेहरा उदासी और उद्विग्नता के घने कुहरे में झुलसा हुआ सा था
आवाज जैसे किसी पत्थर से दबी हुई हाथ काँपते और पैर अस्थिर
उसकी ट्रेन शाम को थी और साथ में न कोई बच्चा न कोई चिंता।

वह जिसे चक्कर आ रहे थे
मितलियों से घुटा जा रहा था गला, फटा जा रहा था दर्द से सर
पैरों में दर्द ऐसा कि जैसे बस की सख्त जमीन पर काँटे बिछें हों अथाह
खिड़की वाली सीट खाली करते ही मेरे सो गई थी ऐसे कि जैसे हवा ने सोख ली हों मुश्किलें सारी।

जो कंधे पर दोस्ताना हाथ रखे निकल आया आगे
उसने कहा कहीं बाद में – अब कछुए दौड़ नहीं जीता करते खरगोशों ने सीख लिए हैं सबक।
जिसके हाथों के दबाव को दोस्ती की गर्माहट समझा
वह कोई खेल खेलता हुआ जीत चुका था।
जिसने भरी आँखों वाला चेहरा काँधे पर टिका दिया
वह अगले ही पल कीमत माँगता खड़ा हुआ बिलकुल सामने।

यह अजीब दुनिया थी
जिसमें हर कदम पर प्रतियोगिता थी
बच्चे बचपन से सीख रहे थे इसके गुर
नौजवान खाने की थाली से सोने के बिस्तर तक कर रहे थे अभ्यास
बूढ़े अगर समर्पण की मुद्रा में नहीं थे तो विजय के उल्लास में थे गर्वोन्मत्त
खेल के लिए खेल नहीं था न हँसी के लिए हँसी रोने के लिए रोना भी नहीं था अब
किसने सोचा था
कि ऐसी रंगमंच होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की तरह

जीत और हार के इस कुएँ में घूमता गोल-गोल सोचता सिर धुनता मैं
और चिड़ियों की एक टोली ठीक सिर के ऊपर से निकल जाती है चहचहाती
अपनी ही धुन में गाती, बड़बड़ाती याकि धरती के मालिक को गरियाती… मुँह बिराती

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