हिलती कहीं | परमानंद श्रीवास्तव
हिलती कहीं | परमानंद श्रीवास्तव
हिलती कहीं
नीम की टहनी !
भूल गईं वे बातें कब की
सब जो तुम को कहनी।
गंध वृक्ष से छूटी-छूटी
चलीं हवाएँ कितनी तीखी
मार रही हैं कैसे ताने
कहती हैं –
कैसी-अनकहनी !
हिलती कहीं
नीम की ट-ह-नी !