गुलाबी लिफ़ाफ़े
गुलाबी लिफ़ाफ़े

अब तक की उम्रों में एक उम्र थी
जब गुलाबी लिफ़ाफ़े आने शुरू हुए डाक में
डाकिया भी देते हुए
चोर निगाहों से फिर-फिर देखता उन्‍हें
मुस्‍कुराता
जैसे कुछ ग़लत पकड़ लेने के अभिमान में

मुझे गुलाबी पसंद ही नहीं था
वे आते ही खिझा देते मुझे भीतर भी निकलते गुलाबी ही पन्‍ने
महकते हुए इतना कि छींक आ जाती

पता नहीं क्‍या सोचकर भेजा जाता उन्‍हें मेरे पते पर
बाहर भेजने वाले का पता लिखे बिना
भीतर चिट्ठी भी अनाम
बहुत-बहुत भावुकता से भरी और आखीर में – तुम्‍हारी डैश डैश डैश

मैंने कभी पूरा विश्‍वास नहीं किया
पर शायद कोई आसपास की लड़की ही भेजती थी उन्‍हें
क्‍योंकि स्‍थानीयता ऐसी गंध है कि दूर से पहचानी जाती है
और दोस्‍तों की राय भी यही
कि गुलाबी लड़कियों का रंग है
पर वह अनाम रहना चाहती थी यह शायद उसकी मज़बूरी थी
मैं सब कुछ नामसहित चाहता था यह मेरा हठ था
सो मिलते और पढ़ते ही फाड़ डालता उन्‍हें

महीनों चला ये सिलसिला
फिर बंद हो गया मैंने भी सोच लिया शायद दूसरी किसी दिशा में बह चली हो हवा

अब अपनी उम्रों में वो उम्र है
जब सरकारी ख़ाकी लिफ़ाफ़े ही आते हैं अकसर
भारत सरकार सेवार्थ
जिनमें न कोई सेवा न कोई अर्थ
कमरे की मेज़ पर इकट्ठा होती रहती हैं ऐसी चिट्ठियाँ
नाम तो क्‍या पत्रांक सहित

बरसों को लाँघ अचानक कल फिर दिख पड़ा चिट्ठियों के बीच वही गुलाबी रंग
कुछ झिझक और कुछ मुँह को आती उत्‍सुकता से हाथ में लिया
चेहरे के नज़दीक लाया तो वही महक
वही मेरी छींक
पर अब कुछ भी लापता नहीं था
न बेनाम

बीच का सारा समय खो चुका था कहीं सब कुछ बहुत खुला-खुला था
जिसका था डर वही हुआ था

चिट्ठी में भावुकता नहीं बीते पंद्रह बरसों को धकेलता धिक्‍कार था
वो बहुत पास की एक लड़की का नाम था एक स्‍त्री के नाम में बदला हुआ

अभी आईना देखा है मैंने वहाँ बस एक पथरीला चेहरा दिख रहा है
उसने जो ढेर सारा बेरतीब-सा लिखा था चिट्ठी में
उसे कम शब्‍दों में यह एक लगभग कवि कुछ तरतीब से लिख रहा है –

तुमने बीस बरसों में बहुत कुछ पा लिया है 
मैंने खो दिया है सभी कुछ 
पाया है तो बस एक दूसरा उपनाम पिता के उपनाम और उससे जुड़ी एक पूरी उम्र को 
क़त्‍ल-सा करता हुआ 

अहंकारी !
तुम अब कवि हो जाओ प्रोफेसर हो जाओ मेरे किस काम के 
कभी मैंने बिना नाम लिखे अथाह प्रेम भेजा था तुम्‍हें लगातार महीनों तक 
मुझे पहचान ही जाओगे इस एक आस में

लो अब मेरी आवाज़ तक को सोख चुकी उस प्‍यास में 
नामसहित उतनी ही घृणा भेजती हूँतुम्‍हें 
शायद तुम सीख जाओ क़द्र करना उस सबकी 
जो अब भी 
तुम्‍हारे आसपास बेनाम है

ओ झूटे !
टी.वी. में दिखते किस मुँहसे कहते हो मंच पर चढ़ कर कि जो जन बेनाम रहे अब तक 
उन्‍हें नाम देना ही मेरी कविता का काम है 

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