दादी की चिट्ठियाँ

चौदह बरस पहले गुज़र गईं दादी
मैं तब बीस का भी नहीं था

दादी बहुत पढ़ी-लिखी थीं
और सब लोग उनका लोहा मानते थे
मोपांसा चेखव गोर्की तालस्ताय लू-शुन तक को
पढ़ रखा था उन्होंने
और हम तब तक बस ईदगाह और पंच-परमेश्वर ही
जानते थे

मैं और माँ सुदूर उत्तर के पहाड़ों पर रहते थे
नौकरी करने गए पिता के साथ
दादी मध्य प्रदेश में पुश्तैनी घर सँभालती थीं

आस-पड़ोस में काफी सम्मान था
उनका
वह शासकीय कन्या शाला की रौबदार प्रधानाध्यापिका थीं

वह जब भी अकेलापन महसूस करतीं
हमें चिट्ठी लिखतीं
यों महीने में तीन या चार तो आ ही जाती थीं उनकी चिट्ठियाँ

इनमें बातों का ख़जाना होता था
मैं बहुत छोटा था तो भी पिता के साथ-साथ
आख़िर में
मेरे नाम अलग से लिखी होती थीं कुछ पंक्तियाँ
बाद में इसका उल्टा होने लगा
मुझ अकेले के नाम आने लगीं

उनकी सारी चिट्ठियाँ
जिनके अंत में बेटा-बहू को मेरी याद दिलाना लिखा होता था

तब फ़ोन का चलन इतना नहीं था
और पूरा भाव-संसार चिट्ठियों पर ही टिका था

चिट्ठियाँ अपने साथ
गंध और स्पर्श ही नहीं आवाज़ें भी लाती थीं
मैंने अकसर देखा था
कोना कटे पोस्टकार्ड में चुपचाप आने वाली चिट्ठी ही
सबसे ज़्यादा शोर मचाती थी

See also  औरतें | मंजूषा मन

दादी हमेशा
अंतर्देशीय इस्तेमाल करती थीं
जो खूब खुले नीले आसमान-सा लगता था
उसमें उड़ती चली आती थीं
दादी की इच्छाएँ
दादी का प्यार

कभी-कभार इस आसमान में बादल भी घिरते थे
दूर दादी के मन में आशंका की
बिजलियाँ कड़कती थीं
उनका हृदय भय और हताशा से काँपता था
ऐसे में अकसर साफ़ नीले अंतर्देशीय पर कहीं-कहीं
बूँद सरीखे कुछ धब्बे मिलते थे

एक वृद्ध होती स्त्री क्या सोचती है अपने बच्चों के बारे में जो उससे अलग
अपना एक संसार बना लेते हैं?

दादी कहती थीं – सबसे भाग्यशाली और सफल होते हैं
वे वृक्ष

जो अपने बीजों को पनपने के लिए कहीं दूर उड़ा देते हैं

दादी भी सफल और भाग्यशाली कहलाना चाहती थीं
लेकिन वो पेड़ नहीं थी
उन्हें अपने से दूर हुए एक-एक बीज की परवाह थी

हम उनसे मिल नहीं पाते थे
कभी दो-तीन साल में घर जाते थे
वह हमारे हिस्से के कई सुख
सँजोए रखती थीं
मनका-मनका फेरती अपने भीतर की टूटती माला को
किसी तरह पिरोए रखती थीं

See also  हादसा | चंद्रकांत देवताले

हम छुट्टियाँ मनाने जाते थे वहाँ
शायद इसीलिए
पिता से वह कभी कोई जिम्मेदारी सँभालने-निभाने की
बात नहीं करती थीं

मैं दादी को उनकी चिट्ठियों से जानता था
कभी साथ नहीं रहा था उनके
और छुट्टियों में साथ रहने पर भी उनकी चिट्ठियों के न मिलने का
अहसास होता था
बहुत अजीब बात थी कि मैं साथ रहते हुए भी अकसर उनसे
चिट्ठी लिखने को कहता था

अच्छा तो मुझसे मेरी चिट्ठियाँ अधिक प्यारी हैं तुझे – कह कर हमेशा वह मुझे
झिड़क देती थीं
तब मैं घरेलू हिसाब की कॉपियों में उनके लिखे
गोल-गोल अक्षर देखता था
वह कहतीं अब मैं तुम्हारे पास ही आ जाऊँगी रहने
बस तेरे चाचाओं का ब्याह कर दूँ

तू भी पढ़-लिखकर दूर कहीं नौकरी पर चला जाएगा
फिर मैं तेरे पापा के घर से तुझे
चिट्ठियाँ लिक्खूँगी

तब मैं इस बारे में सोचने के लिए बहुत छोटा था

चौदह बरस पहले अचानक वह गुज़र गईं
छाती पर पनप आईं कैंसर की भयानक गाँठों को छुपातीं
भीतर-भीतर छटपटाती

See also  रिश्ता | अनामिका

लेकिन
उनके भीतर का वह संसार मानो अब भी नुमाया है
अकसर ही पूछता है पाँच बरस का मेरा बेटा
उनके बारे में
अभी अक्षर-अक्षर जोड़ कर उसे पढ़ना आया है

आज एक सपने की तरह देखता हूँ मैं
पुराने बस्ते में रखी उनकी चिट्ठियों को
वह गहरी उत्सुकता से साथ टटोलता है

यह भी उनके न रहने जितना ही सच है
कि बरसों बाद एक बच्चा
हमारे जीवन के विद्रूपों से घिरी उस नाजुक-सी दुनिया को
अपने उतने ही नाजुक हाथों में
फिर से
बरसों तक सँभालने के लिए
खोलता है!

Leave a Reply

%d bloggers like this: