गढ़ रही है औरत

एक औरत
कूट रही है धान
ढेंकी में धान के साथ
कूट देना चाहती है वह
सारी बाधाएँ
…जो खड़ी हो जाती हैं
अक्सर उसके सामने।

एक औरत पछोर रही है अनाज
भूसी की तरह…

उड़ा देना चाहती है वह
अपने सारे दुखों को

एक औरत चला रही छेनी
गढ़ना चाहती है वह
पत्थर पर एक इबारत।

See also  धमक | अरुण कमल

एक औरत लिख रही है
अपनी कथा
उसे नहीं बींधते
बान कामदेव के।

प्रिय की याद में
अपना आपा भी नहीं
खोया है उसने
वह खड़ी है धरती पर
उसने किया है संकल्प
वह बदल देगी
सारे मिथक
जो उसे करते है कमजोर
बना देते हैं उसे
सिर्फ देह।
औरत अब
अपने हाथों से
गढ़ रही है
अपना वजूद

Leave a Reply

%d bloggers like this: