नजमा की जिंदगी का वर्तमान रंग होली के रंगों से गहराई तक जुडा है। परसों ही नजमा भारत जाने वाली है। नजमा – एक पाकिस्तानी फौजी की विधवा।

कराची के एक बंगले में गुमसुम सी बैठी नजमा आज तक अपने जीवन की भूल-भुलैया समझ नहीं पाई है। इस शहर में, इस देश में, वह कितनी बार आहत हुई है। कितनी बार उसने उस मौत को गले लगाया है जिसमें इनसान का शरीर तो नहीं मरता लेकिन आत्मा कई-कई मौतें मर जाती है। आज भी वह छलनी हुई आत्मा को अपने इस शरीर में ढो रही है जिसमें अपने ही ऊपर चढ़ाए गए कपड़ों को उठाने की ताकत नहीं।

यह सच है कि उसने इमरान को कभी अपना शौहर नहीं माना। वैसे निकाह के समय काजी साहब के पूछने पर उसने भी ”हाँ” ही कहा था। लेकिन अगर अम्मा अपनी मौत का वास्ता दे कर कसमें दिलवाए, या फिर अब्बा मियाँ इस्लाम के खतरे में पड़ने का डर दिखाएँ तो वह बेचारी ”हाँ” के अतिरिक्त कह भी क्या सकती थी। बुलंदशहर में जन्मी नजमा पाकिस्तानी सेना के कैप्टेन इमरान के साथ विवाह कर कराची में आ बसी थी।

कराची एक अलग किस्म का शहर था। बुलंदशहर और लखनऊ से अलग तो था ही, दिल्ली से भी एकदम अलग था। नजमा ने समुद्र कभी देखा नहीं था। हवा में पानी की नमकीन नमी कभी महसूस नहीं की थी। गाँव की खुली हवा में पली नजमा के लिए फौजी छावनी का माहौल खासा दमघोंटू था। मलीर कैंट का इलाका भी अजीब सा था। कराची की मुख्य सड़क शाह फैजल रोड से एक शाख की तरह निकलती हुई एक सीधी सड़क मलीर कैंट से जा कर मिलती थी। शहर-ए-गुलशन – नाम तो गुलशन था उसका लेकिन ले जाती थी वीराने की ओर। एक लंबी अकेली सुनसान सड़क – खौफ से भरपूर – नजमा अपने आपको उस सड़क पर कभी सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती थी।

घर में भी नजमा कुर्सियों के कुशन और कुर्सियों को सीधा करती रहती; हर कमरे में बिछे महँगे पाकिस्तानी कालीनों से तागे और कूड़ा साफ करती। तीन कमरों का घर-घर के भीतर अकेलापन और बाहर वीराना। बुलंदशहर की अपनी उस बड़ी सी हवेली और उसमें काम करने वाले गरीब मुलाजिमों के बच्चों की दोस्ती उस की यादों में गीलापन पैदा करते रहते। …यहाँ घर के कमरों की ऊँची-ऊँची दीवारें जैसे उसे अपने ही घर में कैदी होने का अहसास देतीं। ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम और रसोईघर सभी जगह नीले थोथे वाला सफेद चूना पुता था। हर कमरे में शीशम की लकड़ी का भारी भरकम फर्नीचर रखा रहता। बाहर बगीचे में टोकरी-नुमा कुर्सियाँ थीं – दो चार नहीं पूरी दर्जन भर। जब कभी अतिथि शाम बिता कर वापिस जाते तो इमरान का बैटमैन बेचारा उन भारी भारी कुर्सियों को वापिस रखते-रखते हाँफने लगता।

गुसलखाने की छत और दीवारें भी बहुत ऊँची थीं। दिल्ली के मुकाबले कराची में ठंड तो ना के बराबर पड़ती थी, लेकिन वहाँ सब लोग हमेशा गर्म पानी से ही स्नान करते थे। घर में हर वक्त एक ही चर्चा सुनाई देती। नाश्ते में क्या बनेगा, दोपहर के भोजन का मीनू क्या होगा और फिर रात के पकवान क्या होंगे। नाश्ते में भी मीट, लंच में भी और डिनर तो बिरयानी के बिना हो ही नहीं सकता था। दालें तो फिर भी बन जाती थीं लेकिन सब्जियाँ खाए तो नजमा को कई-कई दिन बीत जाते। अभी नजमा को बहुत सी बातें सीखनी और समझनी थीं। फौजियों के तौर तरीके होते भी तो अजब हैं। प्यार और लड़ाई में कुछ खास अंतर नहीं महसूस होता। फौजी लोग सिविलियन लोगों को तो इनसान ही नहीं समझते थे।

इमरान भी खासा जिद्दी किस्म का इनसान था, ”देखो नजमा, अब तुम मेरी बेगम हो। यू हैव नो चॉयस।”

”सुनिए, इतनी जल्दी क्या है? मैं आहिस्ता-आहिस्ता अपने आपको तैयार कर लूँगी।”

”मैं यह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी बीवी के पास हिंदुस्तान का पासपोर्ट हो। अगर किसी को पता चल गया तो लोग क्या कहेंगे। मेरी तो सारी जिंदगी पर बदनुमा दाग लग जाएगा।”

”आप सोचिए, पूरी जिंदगी एक हिंदुस्तानी हो कर बिताई है। अचानक अपने वजूद को कैसे बदल लूँ? आप तो जानते हैं मैं थोड़ी सेंसिटिव नेचर की लड़की हूँ। मुझे तो सुहागरात मनाने में ही कितना वक्त लग गया था।’

”देखिए बेगम, अल्लाह से डरिए, कुरान-ए-पाक भी कहती है कि बीवी को शौहर की बात माननी चाहिए। इस मामले में हम आपकी एक नहीं सुनेंगे। आप आज ही पाकिस्तानी पासपोर्ट की अर्जी भर दीजिए। इस बात को लेकर हम आपसे अब और बहस नहीं करना चाहते।”

रात भर रोती रही नजमा। तकिया भीगता रहा और इमरान करवट बदल कर गहरी नींद सोता रहा। सुबह होने को रोका जा सकता तो नजमा जरूर उसे रोक लेती। लेकिन सुबह हुई और सुबह के साथ ही शुरू हो गया इमरान का पासपोर्ट राग। नजमा की रोती हुई आँखों का इमरान के निर्णय पर कोई असर नहीं हुआ। इमरान की अम्मी और दोनो बहनें इस तरह चुपचाप काम कर रही थीं जैसे उन्हें इस मसले से कुछ भी लेना देना नहीं है। जुबेदा ने तो आ कर पूछ ही लिया, ”इमरान भाई, नाश्ता तो करके ही जाएँगे न आप दोनों? वैसे आलू के पराठे बना दिए हैं।”

नजमा ने कह दिया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। वह नहीं खाएगी नाश्ता। इमरान पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ। नजमा हैरान थी कि किस मिट्टी का बना है इमरान इतनी बेरहमी क्यों?

इमरान मियाँ ने कायदे से बैठ कर आलू के दो पराठे दही के साथ खाये, उस के साथ मसाले वाली चाय पी – एकदम फौजी अंदाज में, चाय को प्लेट में डाल कर।

नजमा से रहा नहीं गया, ”सुनिए, आप खुद ही फार्म वगैरह भर दीजिए, हम साइन कर देंगे। हमसे नहीं भरा जाएगा।” और नजमा लगभग भागते हुए बाथरूम में जाकर, अंदर से दरवाजा बंद करके खुल कर रोने लगी। उसे याद आ रही थीं अपनी सहेली चित्रा की बातें, ”देखो नजमा, यह जो संकटमोचन का मंदिर है न, इसकी बहुत मान्यता है। यहाँ जो भी आ कर मन्नत मानता है, वो जरूर पूरी होती है। मंगलवार को संकटमोचन का व्रत रखना होता है। हनुमान जी बहुत भोले हैं, जल्दी ही सबकी इच्छा पूरी कर देते हैं।” उसने कितने मंगल को जाकर संकटमोचन के मंदिर से प्रसाद के रूप में मिठाई खाई है। आज तो मंगल नहीं है; भला जुमेरात को हनुमान जी कैसे हमारी बात सुनेंगे? नजमा मन ही मन दुआ माँग रही थी, ”हे संकटमोचन मुझे इस हालत से बचा लीजिए, आज दफ्तर बंद हो जाए। मुझे पासपोर्ट देने के लिए अफसर मना कर दे। मैं जब भी वापिस अपने मुल्क आऊँगी, आपके मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने जरूर आऊँगी।” किंतु जुमेरात को मस्जिद की अजान के सामने संकटमोचन की दुआ नहीं सुनी गई।

और थोड़ी ही देर में आवाज भी आ गई, ”सुनती हैं बेगम, हमने फार्म पूरा भर दिया है, इस पर साइन कर दीजिए।” और नजमा ने अपने डेथ वारंट पर खुद ही अपने हस्ताक्षर कर दिए। वक्त ने नजमा के जख्मों के दर्द को कम कर दिया। लेकिन उन जख्मों के निशान नजमा की आत्मा पर स्थायी रूप से चिह्नित हो कर रह गए। वह जीवन भर अपने पति के इस कृत्य को माफ नहीं कर पाई। इमरान को कुछ फर्क नहीं पड़ा, वो भी हमेशा जानबूझ कर नजमा के सामने हिंदुस्तान की बुराई करता। नजमा ने कविता लिखनी शुरू कर दी। उसकी कविताओं में हमेशा दोहरा अर्थ छिपा रहता। वह कभी भी इकहरे अर्थ वाली कविता नहीं लिखती थी। वह अपनी कविताओं में अपने देश, अपनी सहेलियों, अपने परिवार, अपने वजूद को याद करती रहती। एक बार नजमा ने अपनी कविता कुछ यूँ शुरू की, ”मन करे माथे लगाऊँ मैं वतन की खाक को / कर के सजदे सिर झुकाऊँ उस जमीने पाक को।”

जुबेदा ने झट से कहा था, भाभी जान ये ‘उस’ जमीने पाक नहीं, ‘इस’ जमीने पाक होना चाहिए। इमरान की झुंझलाहट साफ सुनाई पड़ रही थी, ”जुबेदा मैं तो जिंदगी भर इंतजार करता रहूँ, तब भी तुम्हारी भाभी जान इस जमीन को पाक नहीं कहने वाली। ये तो मुहाजिरों से भी गई गुजरी है।”

”मुहाजिरों से गई गुजरी!” यह कहने वाला मेरा अपना शौहर है!” नजमा कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी। पराया देश, पराए लोग। अपना पति भी पराया सा क्यों लगने लगता है। गिद्धों का एक समूह और बेचारी सी नजमा! किंतु जीवन तो जीना ही होता है। नजमा ने भी अपने आसपास के माहौल में रुचि लेनी शुरू की। मलीर कैंट पूरी तरह से फौजी क्षेत्र होने के कारण रहने वाले सभी लोग भी फौजी ही थे। सब एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर रहते।

अपने पति के साथ नजमा फौजी पार्टियों में भाग लेती तो उसकी ननदें उसे कराची के उच्च-मध्यवर्गीय माहौल से परिचित करवाती रहतीं। पति इमरान को बस एक ही रट रहती, “कश्मीर आजाद करवा कर ही रहेंगे।”

नजमा की समस्या यही थी कि उसका शरीर, आत्मा और दिमाग पूरी तरह से भारतीयता में रंगे थे। उसे पाकिस्तान की मिट्टी पर बारिश की हलकी फुहारें पड़ने के बाद मिट्टी से वैसी भीनी भीनी सुगंध आती नहीं महसूस होती थी जैसी कि अपने गाँव में। उसे लखनऊ विश्वविद्यालय में बिताया एक-एक पल परेशान करता है। वहीं तो उसकी मुलाकात हुई थी एक नौजवान से – चंद्र प्रकाश। सब उसे चंदर कह कर बुलाते थे। कुछ ही दिनों में नजमा चंदर के व्यक्तित्व में इस कदर रंग गई कि अन्य विद्यार्थियों ने उन्हें चाँद तारा कहकर बुलाना शुरू कर दिया। दूर-दूर से एक दूसरे को देख कर खुश हो जाने वाले चंदर और नजमा ने धीरे-धीरे भविष्य के सपने बुनने भी शुरू कर दिए थे। चंदर वैसे तो डाक्टर बनना चाहता था लेकिन उसके मन में एक कवि पहले से विद्यमान था। कृष्ण और राधा की होली के नगमें वह इतनी तन्मयता से गाता था कि नजमा भाव विभोर हो जाती। उसे होली के त्यौहार की प्रतीक्षा रहती। अपनी सहेलियों के साथ मिल कर होली खेलती और अपनी माँ से डाँट खाती। उसका होली के रंगों में रंग जाना उसकी आवारगी का प्रतीक था। किंतु माँ को उन रंगों का ज्ञान ही कहाँ था जो नजमा के व्यक्तित्व पर चढ रहे थे। नजमा अब चंदर की सुधा बनने को व्यग्र थी।

कराची के चिपचिपे मौसम में उसे याद आता था अपना शहर अपना देश। जब नजमा छोटी थी शाम को जैसे ही हल्की सी अँधेरी की बारीक सी चादर फैलती, तो चिड़ियाँ बेचैन हो कर आसमान पर झुंड के झुंड बना कर उड़ने लगतीं थीं। पूरा अँधेरा होते ही सन्नाटा सा छा जाता था। छिटपुट झींगुर की आवाज सुनाई देती और कहीं कोई जुगनू अपनी रोशनी बिखेरता निकल जाता। फिर धीरे-धीरे चाँद तारों की रौशनी फैलने लगती। नजमा घर के आँगन में लेटी यह सब तमाशा देखती और उसका आनंद लेती। कभी-कभी जब सुबह सवेरे आँख खुल जाती तो नजमा को महसूस होता कि चाँद अपनी ठंडी-ठंडी रोशनी से धरती को सराबोर करता डूब रहा होता और कोई सितारा टूट कर जमीन की गोद में गिरकर खो जाता। सुबह उठ कर नजमा जमीन के उस हिस्से में टूटा हुआ तारा खोजने जरूर जाती। उसे आज भी वही लगता कि जैसे अपने हिस्से के सितारे वहीं अपनी जन्मभूमि को सौंप कर आ गई हो। कराची का महानगरीय जीवन कभी भी उसके छोटे से शहर बुलंदशहर की यादों को ढक नहीं पाया। अपने गाँव की होली आज भी दिल में गुदगुदी मचाने लगती।

होली खेलने की आदत, सखियों के साथ मौज मस्ती, मावे से भरी गुजिया का आनंद, नजमा का बस चलता तो सारा साल होली ही खेलती रहती। बंगला देश के जन्म के बाद की होली नजमा के जीवन की आखरी होली बनने जा रही थी। पहली बार चंदर ने अपने हाथों से नजमा के कँवारे गालों पर गुलाल मला था। गुलाल के बिना ही नजमा के गालों की शर्म ने उसे जो लाली दी थी, गुलाल उसके सामने पीला पड़ रहा था। और उन गालों को लाल होते देख लिया था दुर्गा मासी ने। दुर्गा मासी अपनी भानजी सुपर्णा के साथ चंदर के विवाह के सपने सजाए थी। नजमा के लाल होते गालों ने जैसे दुर्गा मासी पर लाल सुर्ख लोहे की छड़ जैसा काम किया था। शाम होते-होते इस्लाम खतरे में पड़ चुका था, नजमा का कॉलेज जाना बंद; अचानक पूरा घर अभागा हो गया था, ”मैं तो उस वक्त भी कहती थी, कि जब सभी लोग पाकिस्तान जा रहे हैं, तो हम ही क्यों यहाँ रहें। उस वक्त मेरी किसी ने नहीं सुनी। इस अभागन को पूरे शहर में एक भी मुसलमान लड़का नहीं मिला, जो काफिरों के घर जाने को तैयार बैठी है। हमारा तो परलोक ही बिगाड़ दिया है।”

अम्मा चिल्लाए जा रही थी और अब्बा गुस्से से आग उगल रहे थे। इससे पहले कि नजमा कुछ भी समझ पाती, उसे विमान में बैठा कर कराची भेज दिया गया था – इमरान मियाँ के घर। एम.ए. हिंदी बीच में ही रह गई। शरीर पर इमरान की मोहर लग गई थी, लेकिन दिल और आत्मा पर चंदर का कब्जा था। होली के रंग में रंगे चंदर की सूरत ही चंदर की अंतिम तस्वीर थी जो कि नजमा के दिल में बसी उसके साथ कराची चली आई थी।

”जुबेदा तुम्हें मालूम है कि पाकिस्तान में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा कहाँ हैं?”

”वो क्या होता है भाभी जान?”

”अरे, तुमने यह नाम कभी नहीं सुने? हमारे हिंदुस्तान में तो स्कूल के बच्चे भी जानते हैं उनके बारे में।”

”नहीं तो। वैसे भाभी जान आप बार-बार हिंदुस्तान के गुण गाने कम कर दीजिए। भाई जान को ये कतई पसंद नही है।”

हैरान, चुप नजमा अपनी ननद को बताती तो क्या बताती। लेकिन जुबेदा ने उसकी मुश्किलों को बढ़ा ही दिया, ”भाई जान ये मोहनजोदड़ो और हड़प्पा कहाँ हैं पाकिस्तान में?”

”तुम्हें क्या करना है वहाँ जा कर?”

”भाभी जान पूछ रहीं थीं।”

”क्यों नजमा साहिबा क्या आपके हिंदुस्तान वाले मोहनजोदड़ो और हड़प्पा को भी कश्मीर की तरह हडप जाना चाहते हैं? उनको कहना कि यहाँ तो तक्षशिला भी है। उनका बस चलता तो उसे भी बाँध कर अपने साथ ले जाते। इन सब शहरों का इस्लाम से कुछ नहीं लेना देना। वहाँ जा कर आप क्या करना चाहती हैं बेगम साहिबा? अगर आपको कहीं चलना ही है तो मक्का मदीना का सफर करिये, शायद अल्लाह मियाँ तुम्हारा भी कुछ भला कर दें।”

चुभती बातें, कटु वचन, हर वक्त याद दिलाया जाना कि वह हिंदुस्तान की यादों से बाहर आए – नजमा अब रात को चाँद से बातें करने लगी थी। उसे पूर्णमासी के चाँद में कृष्ण और राधा होली खेलते दिखाई देते। कृष्ण की पिचकारी से निकला रंग, चाँद को भी रंगे हुए था। चाँद की चाँदनी का रंग उस पर चढ़ने लगता। एक फौजी की पत्नी चाहे किसी भी देश में क्यों न हो, अकेलापन उसका सबसे बड़ा साथी होता है। फिर नजमा तो अपने साथ अपना अकेलापन सरहद के पार ले गई थी। वह कभी-कभी सोचती कि उसकी सास और ननदें उसकी मनःस्थिति को समझ क्यों नहीं पातीं। फिर शीघ्र ही अपने आपको समझाने लगती कि इसमें उनका क्या कसूर। वे बेचारी उतना ही तो सोच सकती हैं जितना उन्होंने सीखा है। उसकी सास हैरान भी होती कि उसे कैसी बहू मिली है। ”नजमा बेटी तुम बाहर जा रही हो तो पंसारी से थोड़ा सामान भी लेती आना।”

”जी अम्मी। मुझे लिखवा दीजिए।”

”एक किलो मूँग साबुत, मलका, काले चने और 6 टिकिया लक्स साबुन। आयलटीन का एक डिब्बा।”

”अरी बहू तुम ये कौन सी जबान में लिख रही हो?”

”जी अम्मी हिंदी में लिख रही हूँ।”

”अरे तुम्हें उर्दू लिखनी नहीं आती क्या?”

”नहीं अम्मी हमारे हिंदुस्तान में तो सभी लोग हिंदी लिखते हैं।”

”अरे हिंदू चाहे किसी जबान में लिखें, हमें क्या फर्क पड़ता है। मगर तुम तो मुसलमान हो। अपनी जबान में लिखो।”

”मगर अम्मी मुझे तो उर्दू लिखनी नहीं आती है। हाँ पढ़ जरूर लेती हूँ। हमारे हिंदुस्तान में तो बहुत से मुसलमान सिर्फ तेलुगू, तमिल या मलयालम जानते हैं। वहाँ हर मुसलमान की जबान उर्दू नहीं है।”

”या अल्लाह! कैसी लड़की मिली है! नजमा ये बात तुम समझ लो अच्छी तरह कि उर्दू तो तुम्हें सीखनी ही पड़ेगी।”

नजमा की समस्या ये थी कि वह अपनी मर्जी के विरुद्ध इमरान से विवाह करके पाकिस्तान रवाना कर दी गई थी। ऐसे में अगर उसे थोड़ा अतिरिक्त प्यार मिल जाता या फिर उस की मनःस्थिति को समझने का प्रयास किया जाता तो वह अवश्य ही अपने ससुराल से हिलमिल जाती। लेकिन कसूर ससुराल का भी कहाँ था। पूरे परिवेश में खलनायक कोई नहीं था। बस स्थितियाँ ही ऐसी थीं कि नजमा के लिए उनमें पिसना उसकी विवशता थी। अपनी भोली गलतियाँ करने से भी बाज नहीं आती थी नजमा। एक दिन जुबेदा से पूछ ही तो लिया, ”जुबेदा, यहाँ कराची में होली कहाँ खेलते हैं?”

”होली! ये क्या होती है?”

”यह एक त्यौहार होता है जिसमें सब एक दूसरे पर रंग डालते हैं।”

अम्मी ने सुन लिया, ”नजमा बेटी, तू काफिरों जैसी बातें क्यों करती है। रंग खेलना इस्लाम में हराम है मेरी बच्ची। मैं तो समझ भी लूँगी क्योंकि मैं भी हिंदुस्तान की पैदायश हूँ, अगर कहीं इमरान के कानों में ये बात पड़ गई तो गजब हो जाएगा। अब तू शादी करके यहाँ आ गई है बेटी, अपने आपको यहाँ के रस्मों-रिवाजों में ढाल मेरी बच्ची। तू भूल जा कि तू हिंदुस्तान से यहाँ आई है। अब तू इस घर की इज्जत है। इस इज्जत को बनाए रख बेटी। तेरी जिंदगी अब इमरान है, होली नहीं।”

नजमा प्रयत्न भी करती कि इमरान के प्रति उसके मन में कोई कोमल तंतु जन्म ले ले। किंतु इमरान का फौजी अक्खड़पन उस तंतु को जन्म लेने से पहले ही कुचल देता। उसे रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता था कि नजमा क्या महसूस कर रही है। उसे तो अपनी भूख शांत करनी होती थी जो हो ही जाती थी। प्रकृति ने बनाए हैं नर और मादा शरीर और प्रकृति ने ही बनायी है वासना। सृष्टि ने उत्पत्ति के लिए ही वासना को जन्म दिया है। सभी जानवर उत्पत्ति के लिए संभोग भी करते हैं। इनसान ने अपने आप को जानवरों से अलग करने के लिए प्रेम जैसी कोमल भावना का आविष्कार किया है। यदि प्रेम एवं वासना दोनों का समन्वय हो जाए तो जीवन के अर्थ ही बदल जाते हैं।

प्रकृति ने अपना रंग यहाँ भी दिखाया और नजमा गर्भवती हो गई। रेहान के जन्म ने इमरान के अहम की तुष्टि तो की ही। नजमा की थोड़ी इज्जत भी बढ़वा दी। नजमा सोचती रह गई कि अगर कहीं गलती से भी बेटी पैदा हो जाती तो इमरान से क्या-क्या सुनने को मिलता। इमरान खुश था कि पाकिस्तानी फौज के लिए एक और सिपाही ने जन्म लिया है।

फौजी स्कूलों में पढ़ रहे रेहान के साथ भी नजमा के कोमल तंतु नहीं जुड़ पा रहे थे। वह उसे अपने पुत्र से कहीं अधिक अपने पति का पुत्र ही लगता। उसके नाक नक्श भी इमरान पर ही गए थे। वैसे वह देखकर हैरान अवश्य होती कि कैसे प्रकृति एक छोटे से बालक में अपने पिता की शक्ल हूबहू डाल देती है।

समय बीतता रहा। बंगलादेश युद्ध को लोग भूलने लगे थे। लेकिन इंदिरा गांधी का नाम आज भी वहाँ एक बला की तरह लिया जाता था। बंगलादेश इमरान के मन में एक नासूर बना बैठा था। वह हमेशा किसी ऐसे मौके की तलाश में रहता कि वह बंगलादेश का बदला कश्मीर में ले सके। समय ने रेहान को भी बड़ा कर दिया। समय ने ही ऐसा भी किया कि रेहान के किसी भी और भाई या बहन ने जन्म नहीं लिया। इमरान और नजमा ने रेहान को अपनी-अपनी ओर से बेहतरीन परवरिश देने का प्रयास भी किया। लेकिन इससे हासिल ये हुआ कि रेहान चकरा सा गया। दो लोग जिनकी सोच एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत थी, एक बच्चे को अपनी-अपनी तरह से परवरिश देने का प्रयास कर रहे थे।

रेहान लंदन में पढ़ाई कर रहा था। शादी के छब्बीस साल बाद भी नजमा और इमरान के बीच यदि किसी चीज की कमी थी तो वो थी विश्वास की। इमरान का नजमा पर अविश्वास का सीधा-सीधा कारण था नजमा का हिंदुस्तानियत से बाहर न आ पाना; हिंदी भाषा का प्रयोग करना; होली में अतिरिक्त रुचि होना; उसकी स्कूल कॉलेज की सहेलियों की सूची में सभी नाम हिंदू लड़कियों के नाम होना और बार-बार अपना तकिया कलाम दोहराना कि हमारे हिंदुस्तान में तो ऐसा होता है। वहीं नजमा के दिल में ये बात गहराई तक उतरी हुई है कि इमरान उसे कभी भी कहीं भी छोड़ सकता है। नजमा के दिल से इस घटना को हटा पाना लगभग असंभव है।

”बेगम साहिबा, अब तो आप भी कार चलाना सीख लीजिए। आप मोबाइल भी हो जाएँगी और कार चलाना तो एक अच्छी कला भी है।”

”आप क्यों तकलीफ करते हैं? हम किसी मोटर ड्राइविंग स्कूल से सीख लेंगे।”

”अरे बेगम, जब हम हैं तो स्कूल की क्या जरूरत! पूरे पाकिस्तान में हम से अच्छा उस्ताद आपको कहाँ मिलेगा?”

”देखिए मैं गलती करूँगी, तो आपको गुस्सा जरूर आएगा। फिर आपका मूड खराब होगा। चलिए हम कहीं घूम आते हैं। हम कार चलाना ड्राइविंग स्कूल से ही सीख लेंगे।”

किंतु इमरान हाशमी आज बहुत बढ़िया मूड में थे। नहीं माने। और हो गई कार की ट्रेनिंग शुरू।

”अरे बेगम ध्यान से। आप अगर क्लच दबाए बिना गेयर बदलेंगी तो सोचिए बेचारा गेयर क्या करेगा। टूट-फूट जाएगा और नुकसान होगा सो अलग।”

नुकसान की चर्चा सुनते ही नजमा के दिमाग में तनाव बढ़ गया। गलतियाँ भी उसी हिसाब से बढ़ने लगीं। बार-बार इमरान का टोकना और व्यंग्य कसना। ”नजमा जी, आप गाड़ी साँप की मानिंद क्यों चला रही हैं? ऐ सड़क पर चलने वालो सब जा कर अपने घरों में दुबक कर बैठ जाओ आज हमारी बेगम सड़क पर गाड़ी ले आईं हैं, जिस जिस को अपनी जान प्यारी हो, भाग लो सर पर पाँव रख कर।”

नजमा ने एक बार फिर कहा कि बाकी ट्रेनिंग फिर कभी हो जाएगी। लेकिन इमरान कहाँ मानने वाला था। जब नजमा ने गलत मोड़ की ओर मोड़ दी गाड़ी, तो इमरान फट पड़ा, ”बेगम हम अगर भैंस को भी कार चलाना सिखा रहे होते, तो वो भी अब तक बेसिक बातें सीख गई होती। आप तो कमाल करती हैं। आपके हिंदुस्तान में लोग ऐसे ही कार चलाते हैं क्या?”

बस, अब बहुत हो चुका था, ”हम अब कार नहीं चलाएँगे.” कह कर नजमा ने कार का दरवाजा खोला और कार से नीचे उतर गई। इमरान के अहम को ठेस लगी, ”अरे भाई अगर छोटी सी बात कह भी दी तो क्या फर्क पड़ गया?”

”हम ने कह दिया न, हमें कार चलानी नहीं सीखनी।”

”देखो नजमा, हम आखरी बार कह रहे हैं कि कार में बैठ जाओ और कार चलाओ, वर्ना हम से बुरा कोई न होगा।”

”हमारा फैसला आखरी है। आप ड्राइविंग सीट पर आ जाइए।”

”अगर मैं ड्राइविंग सीट पर आ गया, तो आपके लिए अच्छा न होगा।”

इमरान ड्राइविंग सीट पर आए, कार स्टार्ट की और नजमा को घर से पाँच मील दूर सुनसान सी सड़क पर अकेले छोड़कर कार आगे बढ़ा दी।

नजमा सोचती रह गई कि ये हुआ क्या। वह अभी भी उम्मीद लगाए बैठी थी कि इमरान कार मोड़कर वापिस लाएँगे और उसे मना कर ले जाएँगे। लेकिन इमरान नहीं आए। नजमा वहीं सड़क किनारे बैठ कर खूब रोई। अल्लाह से ले कर संकटमोचन तक सभी को शिकायत भरे लहजे में याद किया। फिर हारी हुई खिलाड़ी की तरह, अपनी बेइज्जती की पोटली को साथ बाँधे, फटफटिया आटो रिक्शॉ पर घर पहुँची। वहाँ जुबेदा ने बताया, ”भाभी जान, भैया तो क्लब चले गए हैं। रात का खाना वहीं खा कर आएँगे।” नजमा ने उस रात कुछ नहीं खाया। उसे एक बात का विश्वास हो चुका था कि यह इनसान उसे जिंदगी के किसी भी मोड़ पर अकेला छोड़कर जा सकता है। विश्वास के काबिल नहीं है इमरान।

आजकल नजमा अपनी कविताओं की पेंटिंग बना रही थी। अपनी कविता को कैनवास पर उतारने का उसका शौक उसे एक ही थीम को दो कलाओं के माध्यम से पेश करने का मौका देता था। पाकिस्तान में राजनीतिक माहौल गरमा रहा था। कारगिल की तैयारियों में कर्नल इमरान हाशमी की भूमिका बहुत अहम थी। इमरान ने कभी नजमा को कारगिल के बारे में कोई सूचना नहीं दी।

कारगिल युद्ध शुरू हो गया। सभी फौजी सरहद पर निकल गए थे। मुहल्ले में बस औरतें ही दिखाई देती थीं। शहर में कब्रिस्तान का सा सन्नाटा महसूस होने लगा था। वैसे यह युद्द भी एक अजीब सा युद्ध था। दोनों देश लड़ भी रहे थे और पाकिस्तान कहे भी जा रहा था कि उनका देश युद्ध में किसी तरह से नहीं जुड़ा हुआ है। दोनों ओर से लोग मारे जा रहे थे। बहुत से पाकिस्तानी सैनिक भी शहीद हुए। किंतु राजनीतिक कारणों से पाकिस्तानी सरकार ने उन शवों को पहचानने या स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उन शवों में से एक शव कर्नल इमरान हाशमी का भी था। इमरान को कहाँ पता था कि उसका अंतिम सरकार हिंदुस्तान की थल सेना करेगी और वो भी भारत की धरती पर। उसका परिवार उसके शरीर के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाएगा।

इमरान की मौत के बाद नजमा पाकिस्तान में नितांत अकेली पड़ गई। अम्मी तो जन्नत के लिए कब की रवाना हो चुकी थीं। दोनों ननदें भी अपने-अपने घरों वाली थीं। नजमा को कराची कभी अपना घर लगा ही नहीं था और पाकिस्तान सरकार ने इमरान की मौत को कोई महत्व ही नहीं दिया था। कोई मरणोपरांत पदक तक नहीं। कोई जमीन या वजीफा नहीं। राजनीति की शिकार नजमा ने भारत जाने का फैसला किया। अपने हिंदुस्तान जा कर देखना चाहती थी कि वहाँ क्या कुछ बदला है।

लेकिन अब उसे भारत जाने के लिए वीजा लेना पड़ेगा। जिस देश की खातिर वह कभी पाकिस्तानी नहीं हो पाई, आज वहीं जाने के लिए वीजा लेना होगा। इमरान की अच्छी जान पहचान थी, उसकी बेवा होने का एक लाभ तो था कि काम हो जाते थे। यह भी हो गया। किंतु फिलहाल तो दोनों देशों में उड़ानों पर ही प्रतिबंध लगा हुआ था। नजमा पहले अपने पुत्र रेहान को मिलने लंदन गई, और वहाँ से ब्रिटिश एअरवेज से दिल्ली। बड़ी भाभी और उनके बच्चे नजमा को लेने आए थे।

दिल्ली से बुलंदशहर का सफर उसकी रंगों में रक्त का बहाव बहुत तेज करता गया। सोच-सोच कर परेशान थी कि क्या चंदर आज भी वहाँ रहता होगा, क्या डाक्टर बन गया होगा, क्या उसे याद करता होगा? फिर मन ही मन मुस्कुरा भी रही थी। कितनी बेवकूफ है वो, भला चंदर ने क्या अपना जीवन नहीं जीना था। उसकी भी शादी हुई होगी, उसके भी बच्चे होंगे। कितना मजा आएगा चंदर के बच्चों को देखकर। अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा होता, तो वो बच्चे उसके अपने होते! इस उम्र में भी उसके गाल लाल हो आए थे।

बड़े भाई के घर जाने से पहले तो वह दिल्ली को पहचानने का प्रयास कर रही थी। एअरपोर्ट इतना बड़ा और माडर्न हो गया था। रास्ते में चौड़ी सड़कें, फ्लाइ ओवर, और सभी माडर्न कारें। जब भारत छोड़कर गई थी तो बस एंबेसेडर और प्रीमियर कारें ही तो होती थीं। क्या चंदर के पास भी अपनी कार होगी। अगर डाक्टर बन गया होगा तो जरूर होगी। चित्रा उसे देख कर क्या करेगी। बच्चे अपने फूफी को देख कर खुश थे मगर पहली बार मिलने वाली झिझक जरूर थी। भाभी जान इमरान के बारे में बातें कर रही थीं। रेहान की पढ़ाई, नौकरी और शादी। भला भाभी से चंदर के बारे में कैसे पूछे। भाभी ने बताया कि चित्रा ने तो वहीं एक वकील से शादी कर ली थी। उसके तीन बच्चे हैं – एक बेटी और दो बेटे। इंदु शादी कर के लखनऊ चली गई थी। कमला से कोई संपर्क रहा नहीं था। चित्रा से मिलने को बेताब थी नजमा। क्या उसे पहचान लेगी? अगर पहचान गई तो कैसे व्यवहार करेगी?

घर आ पहुँचा। भाई जान से मुलाकात हुई। दुआ सलाम। औपचारिक बातें। छब्बीस साल पुरानी कड़वाहट को दोनों ही भुला देना चाहते हैं। बहन के जुर्म के लिए उसे देश निकाला देने के बाद मुलाकात के अवसर बने ही नहीं। आठ भाई-बहनों में सबसे छोटी नजमा के बाद घर में कोई दूसरी शादी भी तो नहीं होनी थी जिसके लिए नजमा आने का प्रयास करती। अम्मी और अब्बा के इंतकाल का दुख भी उसने पाकिस्तान में अकेले ही सह लिया था। वह एक ओर पाकिस्तान में अपने अकेलेपन से लड़ी, अपने वतन की याद में तड़पी, वहीं वह यह भी नहीं भूली थी कि उसे कराची एक सजा के तौर पर भेजा गया था। इमरान उसकी सजा था, इनाम नहीं। छब्बीस साल की कैद हुई थी उसे, बामुश्शक्त। जेल से छूटकर घर आई थी नजमा। आज सजा देने वाले भी इस दुनिया में नहीं थे और सजा भी। घर में भी बड़े भाई के रुतबे के साथ-साथ बहुत से परिवर्तन भी महसूस किए नजमा ने। बुलंदशहर में भी अब दिल्ली की सुविधाएँ आ पहुँची थीं। सब कुछ देखते हुए भी नजमा का दिल किसी भी चीज में नहीं लग रहा था। चित्रा का पता मालूम नहीं था – न उसे और न ही भाभी जान को। चित्रा के मायके जाना होगा। पता नहीं वहाँ कौन होगा। बिखरे हुए धागों को समेटना भी तो आसान काम नहीं होता। धागे उलझते जाते हैं – गाँठें नहीं खुल पाती हैं।

दो दिन के बाद चित्रा का पता लग पाया। और चित्रा तो नजमा को देख कर जैसे पगला सी गई। भूल गई कि तीन बच्चों की माँ है। समय जैसे थम सा गया था। दोनों सहेलियों में जम के बातें हुईं। दोनों ने मिल कर भोजन बनाया। नजमा ने चित्रा को आश्चर्यचकित कर दिया, ”क्या कहा, तुम शाकाहारी हो गई हो! यह चमत्कार कैसे हो गया?”

”वहाँ कराची में सब गाय का मीट खाते थे। हमने तो जिंदगी में कभी नहीं खाया था। जब मना किया तो हम पर हिंदू होने का इलजाम लगा दिया। हमने फैसला कर लिया कि हम मीट खाना ही बंद कर देंगे। हम ने घास फूस खाना शुरू कर दिया। अब तो यही खाना अच्छा लगता है। पहले-पहले अम्मी के हाथ के गोश्त की याद आती थी मगर अब तो सब पुरानी बातें हो गईं। वहाँ कराची में तो लोग हमें हिंदू ही कहने लगे थे।”

”कितने साल बीत गए न? यहाँ की याद तो खूब आती होगी? हम सहेलियाँ भी बिछड गई। कोई लखनऊ में है तो कोई दिल्ली में। कांता तो मुंबई चली गई है। और सुरेखा को अमरीका वाला आ कर ले गया। पहले-पहले तुम्हारे बारे में खूब बातें करते थे, फिर आहिस्ता-आहिस्ता सब के काम बढ़ते गए और नजमा रानी पीछे छूटती गईं। न तो चित्रा ने चंदर के बारे में कोई बात छेड़ी और न ही नजमा ने कुछ पूछा।

भाईजान के घर जल्दी ही नजमा बच्चों के साथ घुल मिल गई। बच्चे रेहान के बारे में बातें करते। उसके लंदन में रह कर पढ़ने से वे खासे प्रभावित लग रहे थे। नजमा के शाकाहारी हो जाने से भाभी जान को भोजन का मीनू बनाने में खासी परेशानी हो रही थी। बच्चों के लिए गोश्त बनाने के साथ-साथ अब सब्जी और दाल भी बनानी होती। दो-तीन दिन बस ऐसी ही बातें होती रहीं, जिनके न होने से नजमा को कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार तो नजमा बिना ठीक से सुने ही जवाब दे देती। उम्र के इस पड़ाव पर भी किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की चाह कितनी प्रबल हो सकती है जिसके हवाले कभी अपना जीवन कर देना चाहा था।

अगले सप्ताह एक बार फिर होली है। नजमा के दिल में अपनी आखरी होली की याद अचानक ताजा होने लगी है। कराची की घुटन के बाद अचानक एक और होली की खुली खुशबू! कैसी होगी अगले सप्ताह की होली? क्या उसके भतीजा-भतीजी भी होली खेलते होंगे? अचानक नजमा को लगा कि किसी ने उसके चेहरे पर गुलाल लगा दिया है। उसका चेहरा आज फिर ठीक वैसे ही लाल हो गया, जैसे छब्बीस साल पहले हुआ था। बस आज उसे देखने के लिए दुर्गा मासी जिंदा नहीं थी।

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