दो लफ्जों की एक कहानी | गीताश्री
दो लफ्जों की एक कहानी | गीताश्री

दो लफ्जों की एक कहानी | गीताश्री – Do Laphjon Ki Ek Kahani

दो लफ्जों की एक कहानी | गीताश्री

हैलो…

तुम्हें क्या लगता है, तुम वहाँ से भाग आई थी। हम भागते हैं लेकिन थोड़ा थोड़ा वहाँ छूट जाते हैं मान्या… ओ नहीं, गलत नाम, वान्या…। तुम थोड़ा छूट गई थी। मैं लाई हूँ तुम्हें… ये लो…

उसने विहँसते एक पैकेट पकड़ा दिया। मैंने गौर किया, वह हँसती है तो धूप छिटकती है जैसे। मैंने चुपचाप पैकेट ले लिया।

वैसे तुम तो पूरा का पूरा हमारी जिंदगी में छूट गई हो। हमारे साथ रहोगी। खैर… देखो देखो… क्या छोड़ आई थी। पैकेट में छिलके वाले काजू थे।

मैं इन दोनों को एयरपोर्ट पर अचानक पाकर अचंभित थी। मेरी निगाहों के सवाल दोनों पढ़ रहे थे। मैं अब भी चुप थी। डिपारचर गेट की तरफ बढ़ना चाहती थी, हमेशा के लिए गोवा को विदा देकर। उसने मुझे अपनी तरफ खींचा – तुम सच सुने बिना नहीं जा सकती। ये सही जगह नहीं है, बात करने के लिए, लेकिन तुम उस रात रुकी नहीं, हमदोनों उसी रात सबकुछ सच सच बताने वाले थे। प्लीज अब सुनते जाओ…

वह मेरा अनमनापन भाँप रही थी। डेविड दूर खड़ा था। सूखी आँखें, फड़फड़ाते होंठ और लाचारगी सा कुछ कुछ। सवारियों की भीड़ से हटाकर एक कोने में वह मुझे ले गई।

मैं जानती हूँ, तुम पर क्या बीत रही होगी। मैं एक वीमेन हूँ… आई अंडरस्टैंड यूअर फीलिंग। बट आई एम हेल्पलेस डियर… रियली। मैं तुम दोनों के बीच नहीं आना चाहती थी। सबकुछ अचानक हुआ। मैं जानती हूँ डेविड ने हमारे बारे में कुछ नहीं बताया था। सच ये है कि…

वह रो रही थी जिसमें मेरा रोना भी शामिल था। ये दो स्त्रियों का अरण्य रोदन था।


फ्लाइट समंदर के ऊपर है और मैं उसकी सतह पर पसरती चली जा रही हूँ… मैं तरल हो जाना चाहती हूँ… ठोस में रहकर सबकुछ सहना अब मेरे बस में नहीं… दुख का दरिया इतना बड़ा कि शब्द नहीं… आँसू बह रहे हैं…। जब मैं अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला करने जा रही थी, ठीक उसी वक्त ये सब होना था। क्यों… क्यों… किसे दोष दूँ… भाग्य को, डेविड को या उस स्त्री को… जो रहस्यों से परदा उठा कर सूत्रधार में बदल चुकी है। उसकी एक एक बात मेरे कानों में गूँज रही है। मुझे याद आ रहा है कि अबकि गोवा आते ही कैसे खटका हुआ था।

अबकि हवा में वो बात नहीं… वो तासीर, वो मीठी चुभन नहीं… ये हवा पहले सुरसुराकर देह से लिपटती और चिड़िया की तरह उड़ जाती थी, मेरी हथेलियों पर अपनी नरमाई छोड़ कर। वो गंध भी गायब है जिसमें फेनी का नशा और सुरांगिनी… सुरांगिनी… का गान बजता था। क्यों, पता नहीं। कुछ तो है जिसकी चुगली हवा कर रही है। हवाएँ हैं या आत्माओं का कोरस है। मैंने सुना है कई बार, पहचाना है सुर और डूब गई हूँ प्रेम में आकंठ। वैसे ही डूबी डूबी दबोलिम एयरपोर्ट पर उतरी हूँ। कोई शहर किसी के लिए इतना महत्वपूर्ण हो सकता है कि आप साल भर वहाँ का मौसम बदलने का इंतजार करें। इसका जवाब किसी के लिए हाँ हो या ना हो… मेरे लिए तो यही सच है कि कब दिल्ली में सर्दियाँ आएँ और गोवा की तरफ कूच किया जाए। नदी से दामन छुड़ा, समदंर के साथ साथ चलती हुई काली चमकीली धुली हुई सड़क पर उसका गरम, रोएँदार हाथ पकड़कर देर तक भटकने लिए मौसम का बदलना कितना जरुरी होता है। हल्के नरम अँधेरे में कैसीनों की टिमटिमाती रोशनियाँ मांडवी नदी में हौले हौले हिलती तो मैं जोर से उसका हाथ दबा देती और मुझे खींचता हुआ मीरामार की अँधेरी गलियों में ले जाता। वहाँ कोई आता जाता नहीं था। पंजिम सुस्त और उनींदा सा शहर है जिसने अपने हिस्से की रातें और उनकी मस्ती 15 किलोमीटर दूर के कुछ इलाको को सौंप दिया था, मुझे लगता था ऐसा। अबकि एक बार फिर मेरी फ्लाइट गोवा की धरती छू रही है। एयरपोर्ट से बाहर आकर मैंने अपना सामान फर्श पर पटका और खुली हवा में दोनों बाँहें फैला दी… ओह, समुद्री हवाओं, आओ, मेरी रूह को छुओ, समा जाओ मेरी साँसों में…

नारियल के झुरमुटों से रिहा होकर हवा मुझे छूकर निकल ही रही थी कि सामने हौर्न बजा। गाड़ी में डेविड था।

कम कम…

सीट खुली और मैं झोंके की तरह अंदर। लिपटालिपटी, चुम्माचाटी सब अंदर ही चलती कार में कर लेंगे। हिचकोले के दरम्यां रोमांस का मजा ही अलग, ठीक वैसे जैसे लहरों के बीच एक दूसरे में समा जाने को तत्पर हों।

डेविड शांत था। कोई हलचल नहीं, जैसे ड्यूटी निभा रहा हो।

क्या हुआ… मैं इतने दिन बाद आई हूँ… नो हग, नो किस्स… व्हाट इज दिस मैन…

वह चुप रहा। उसकी निगाह सड़क पर थी।

क्या हुआ है तुम्हें…

मैं अचानक खुद को ही बोझ सी लगने लगी थी।

उसने अपना ठंडा हाथ मेरी हथेलियों पर रखा। मैं सिहर गई। ये हाथ डेविड के नहीं हो सकते। हल्के अँधेरे में मैंने उसे गौर से देखा। पहले से दुबला हो गया है। चेहरा भी ज्यादा सँवला गया है और सूखा सूखा सा लग रहा है।

तुम ठीक तो हो… बीमार थे क्या…

यस मैन… नो प्रोब। सुशेगाद…।

जब भी डेविड किसी बात से बचना चाहता है तो पुर्तगीज शब्द सुशेगाद, यानी आराम से, कल की मत सोचो, आज में जीओ…, बोलकर चुप करा देता है।

कोई तो बात है… मत बताओ… हम जा कहाँ रहे हैं।

बोगनवेलिया रिसार्ट, अंजुना बीच पर, मेरे दोस्त की है, नया ही बना है। उसने अपने घर को ही रिसार्ट में बदल दिया है… तुम इन्ज्वाय करोगी। एकदम घना जंगल और भीड़ कम। शाम को लाइव म्युजिक। जानती हो, वहाँ कोई भी गाना गा सकता है, बाहर से किसी को नहीं बुलाते… तुम भी गा सकती हो।

तुम मेरे साथ रहोगे वहाँ…

नहीं…

क्यों… मैं इतनी दूर से तुम्हारे लिए आई हूँ, सबके ब्वाय फ्रेंड दूरियाँ नापते हैं यहाँ मैं इतनी दूर चल कर आई हूँ… देखा है कहीं… तुम तो आओगे नहीं दिल्ली, मुझे ही आना पड़ता है… मैं अबकि जाऊँगी नहीं…

अब नहीं आना पड़ेगा… डोंटवरी…

क्यों… क्या तुम आया करोगे दिल्ली? या शादी कर रहे हो मुझसे…

वह पहली बार मुस्कुराया और रहस्य की गहरी छाया उसके चेहरे पर फैल गई। मैंने नोटिस किया और दिल जोर से धड़क उठा।

रिसार्ट में अकेले ठहरने के खयाल से झुरझुरी होने लगी। तीन साल से लगातार आ रही हूँ, मैं दिन भर फ्री रहती थी। कैसिनो की सुपरवाइजरी का काम रात में चलता था। हर साल दिल्ली से स्पेशली मैं एक हफ्ता यहाँ का पूरा हिसाब हिसाब देखने देखती और दिल्ली वापस लौट जाती। मेरे पास सिर्फ दिन होता, समंदर में लहरों के बीच हाथ थामे हुए घंटो सुख में गोते लगाना, धूप में लेटे लेटे ठंडी बियर का मजा लेते रहे और कृत्रिम टैटू बनवाते रहे, एक दूसरे का नाम लिखवाते हुए…। सबकुछ अर्निवचनीय। मुझे यकीन ही नहीं होता कि मैं सपना जी रही हूँ या हकीकत में ये सब हो रहा है। दिल्ली की नीरस जिंदगी कुछ दिनों के लिए स्थगित हो जाती थी।

मैं फिर आई हूँ। मगर गोवा की हवा तक कोई संकेत दे रही है और मैं समझ नहीं पा रही हूँ, मैं समझना नहीं चाहती। मैं अपने नशे से बाहर नहीं आना चाहती। मैंने माँ को भी संदेश भेज दिया था कि मैंने अपना साथी, बहुत दूर, समंदर किनारे, ढूँढ़ लिया है। इसबार का आना कुछ अलग था… आगे के जीवन की लंबी प्लानिंग थी। कुछ सपने थे, कुछ उम्मीदों के उड़नखटोले थे, जिनपर मैं सवार थी।


मैं पहली बार गोवा जा रही थी। गोवा राजधानी एक्सप्रेस में रिजर्वेशन था। सेकेंड एसी में शांति रहती है, सोते हुए, पढ़ते हुए, गाने सुनते हुए, मजे से सफर कटने का रोमांच था। सुबह 11 बजे की ट्रेन थी सो दिन में नींद तगड़ी आ रही थी। मैं चादर तान कर निचली बर्थ पर सो गई। किसी सवारी की तरफ देखा तक नहीं। इस रूट की यह मेरी पहली यात्रा थी, पता नहीं कैसे लोग होंगे। बेहतर है सो जाएँ। लेकिन बोगी की कुछ सवारियाँ अजीब लगीं। दिनभर उनकी बकबक चलती रही। तरह तरह की हिंदी अंग्रेजी मिक्स आवाजें और खाने पीने का दौर…। मुझे तेज गुस्सा आ रहा था कि एक बार उठूँ और जोर से चिल्लाऊँ कि बस हो गया, सोने दो मुझे… पका दिया आपलोगों ने। मैंने गुस्से में मुँह से चादर हटाई और चिल्लाना चाहा कि…

हें…

डर कर चीख निकल गई। मेरे चेहरे के एकदम पास एक चेहरा झुका हुआ मुझे जगाने की कोशिश में था।

हाय… आई एम डेविड गोंसाल्विस।

साँवला सा, घनी मूँछों वाला, हाथ में खाने की प्लेट थी और चेहरे पर गहरी आत्मीयता। मजेदार बात ये कि मुझे मेरे गलत नाम से पुकार रहा था…

मान्या मान्या… उठिए, आप कुछ खाएँगी नहीं। मैं अपने गुस्से और डर पर काबू पाकर जोर से हँसी।

मेरा नाम मान्या नहीं, वान्या है… वान्या तिवारी।

ओह हाँ… वान्या जी… हैव समथिंग…

नो थैंक्स…

एक साथ कई आवाजें उभरी… क्यों नहीं खाएँगी आप। पूरे दिन तो सो रही थीं… हम तो लगातार खाते पीते चल रहे हैं। लीजिए… खाइए…

मेरे अलावा सभी एक दूसरे के गहरे परिचित लग रहे थे। बोगी में खाने पीने की गंध भरी हुई थी। दो दंपति और थे, डेविड के अलावा। डेविड अकेला था। ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी तो डेविड ने फिर मुझे पुकारा –

मान्या… आपको कुछ चाहिए तो बताओ…

मैंने कहा… वान्या… मान्या नहीं… अब मुझे झुँझलाहट हुई।

क्या फर्क पड़ता है, वान्या या मान्या… आप सुन तो लेते हो ना… बस… टेल मी…

प्लीज, मेरा नाम सही पुकारें…

ओके… वान्या जी… राइट… वी पुकारें… कौल मी – डी –

जी… थैंक्स… कुछ नहीं चाहिए…

और वह स्टेशन पर उतर गया। मैं बोगी के आत्मीय माहौल में घुलमिल गई थी। जैसे सब एक दूसरे को सालों से जानते हो। ट्रेन की सीटी बजी और डेविड नहीं आया। मैं घबराई। खिड़की के बाहर देखा, कहीं नजर नहीं आया। सहयात्री कैप्टन रतन बेफिक्र थे। डेविड नहीं आए।

रतन हँसे… आ गया होगा… किस ना किसी बोगी में चढ़ गया होगा…

फिर सबकी गप्पबाजी शुरू और मैं फिर चादर को खोलने लगी। डेविड नहीं आया, अच्छा है, सो लेती हूँ। जैसे ही चादर तानी कि एक आत्मीय आवाज फिर आई…

मान्या… मेरे जाने का फायदा ना उठाओ… उठो… देखो, क्या क्या लाया हूँ… आपको पसंद आएगा…

हूँह… मान्या नहीं, वान्या… आपने मेरा गलत नाम कहाँ पढ़ लिया?

चार्ट में… बाहर लगा है यही नाम…

हो ही नहीं सकता…

यही नाम है… मान्या…

मैं झटके से उठी कि देख लूँ, सही तो नहीं कह रहा…

डेविड ने मुझे घेरा…

चलती ट्रेन से कूदोगी क्या?

पूरी बोगी ठहाके लगा रही थी और मैं डेविड को गुस्से से घूर रही थी। मेरा नाम बिगाड़ कर रख दिया।

कूल मैन… कूल… वान्या… छोटा सा कोई नाम रख लें… या या या… चलेगा…

मुझे हैरानी हो रही थी कि ट्रेन की हल्की सी मुलाकात में कोई इतना बेतकल्लुफ कैसे हो सकता है। कैसे लोग हैं, ये लोग। सबकेसब मुझे इतना पैंपर क्यों कर रहे हैं। चैन से सोने नहीं दे रहे ऊपर से जबरन खिला पिला रहे हैं।

आप मेरे लिए क्यों कर रहे हैं ये सब…

मैं सबका खयाल रख रहा हूँ… आप अकेली हैं इसलिए थोड़ा ज्यादा… उसने चेहरे पर नकली गंभीरता ओढ़ ली थी।

थैंक्स… मैं खुद रख सकती हूँ अपना ध्यान…

तो रखिए ना… किसने रोका… पर हमें तो ना रोकें…

कैप्टेन को हँसी आ गई, अरे यार फालतू की बहस मत करो… अब खा पी लिया तो हम अंत्यात्क्षरी खेलेंगे… सब तैयार हो जाओ और ग्रुप चुन लो…

डेविड को जैसे मनचाहा काम मिल गया था। डेविड मेरे ग्रुप में आ गया। मैं गाने की बात हो तो कभी पीछे नहीं हट सकती। मुकाबला तगड़ा था। आराधना अच्छा गाती है और इसके पास गानों का स्टौक कम था। मेरे पास स्टौक बहुत है जिसे मैंने उस यात्रा में उड़ेल दिया और पूरी बोगी जैसे हतप्रभ कि कहाँ से खोज खोज कर ये गाने लाए जा रही है… डेविड गा तो नहीं रहा था बस कुछ गाने याद जरूर दिला दे रहा था… और मैं जैसे चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी… कजरा मुहब्बत वाला… गाने पर कैप्टन थिरक उठे और डेविड की आँखों में प्रशंसा चमक रही थी। मेरी टीम जीती और तय हुआ कि इसी बात पर जाम हो जाए।

बोगी में परदे तन गए और एक अकेले डेविड ने सबको एसा बाँधा कि आमने सामने बर्थ के 6 यात्री, कैप्टन, सोनिया, आराधना, अशोक सबके सब पास पास बैठे थे। वोदका का दौर शुरू था और सबके नमकीन के डब्बे खुल गए थे। जैसे एक ही परिवार के हिस्से हो सब। ना जाने कैसे, डेविड ने पूछा और मैंने हाँ कर दी।

डू यू लाइक व्हाइट वाटर…

क्या मतलब…

वीमेन ड्रिंक… वही वोदका…

उसने अपनी उँगली को चिड़िया की चोंच की तरह बना रखा था।

व्हाई नौट जी…

मेरे मुँह से निकला और उसने बच्चों की तरह ताली बजा दी। सारे खुश हो गए कि अब उनके शराब पीने पर किसी यात्री का विरोध नहीं झेलना पड़ेगा नहीं तो टीटी से शिकायत करने पर मामला जुर्म में बदल सकता था। ट्रेन के बार का अलग ही मजा होता है। पानी के बौटल में मिक्स वोदका की रंगत कोई पहचान ही नहीं सकता। चुस्की लेते लेते मैने देखा कि डेविड का सारा ध्यान मेरी तरफ है। वो मेरी खातिरदारी में जुटा रहा जैसे मेरे घरवालों ने उसे मेरी जिम्मेदारी सौंपी हो कि मैडम को यात्रा में कोई दिक्कत ना होने पाए। हमारे ठहाके पूरी बोगी में देर रात तक गूँजते रहे। मेरे सामने वाली बर्थ पर डेविड सोया था। मुझे नींद नहीं आ रही थी… मैंने पलट कर देखा, डेविड की आँखें खुली थीं और वह मुझे घूर रहा था।

मैंने पूछा, क्या हुआ?

कुछ नहीं… बस नींद नहीं आ रही…

और तुम क्यों जगी हो…?

ट्रेन किसी रोशन स्टेशन से गुजरी थी… हल्की रौशनी की कुछ कतरनें अंदर आई तो देखा, डेविड का चेहरा दिपदिपा रहा था। ठीक उसी पल मेरे भीतर कुछ हुआ, कुछ चनका और हल्के दर्द का खुशनुमा अहसास फैल गया रगो में। मैं उठ बैठी।

जो कुछ हुआ, उसका नींद से बैर होता है शायद। मुझे मीना कुमारी के पाँव और राजकुमार के पत्र का मजमून याद आया और हिलती हुई ट्रेन उत्तेजना से भर गई। मन हुआ कि ठीक इसी पल एक पत्र लिखकर डाल दूँ और नीलकमल की नायिका की तरह चेन खींच कर बीच राह में उतर जाऊँ, किसी अंतहीन सफर पर। डेविड ने अपनी बर्थ वाली लाइट जलाई।

नीड एनी हेल्प… मे आई…?

नो थैंक्स… बोलना चाहती थी, थरथरा गई। वह मेरे पास आ बैठा था। पता नहीं उसे क्या लगा, मेरे हाथ पकड़ा और हौले से चूम लिया। मैं वैसी ही बैठी रही… उसने धीरे से मुझे बर्थ पर लिटाया… मैंने आँखें मूँद ली… ऊपर से चादर ओढाई और मेरे सिर पर हल्की हल्की थपकी सा कुछ…। मुझे आराम आ गया था। मेरी बेचैनी को सुकून मिला लेकिन रगों में फड़कन बनी हुई थी।

सुबह चाय के साथ डेविड ने ही जगाया, वेकअप मैन… देखो… कोंकण रेलवे की ब्यूटी शुरू हो गई है… ट्रेन से जाने पर ही दिखती है ये… अमेजिंग लैंडस्केप… देखो तो सही…

डेविड आज कुछ ज्यादा ही सुंदर दिख रहा था। पूरी बोगी का वहीं इकलौता आकर्षण…। मडगाँव पहुँचने में अभी कुछ घंटे का वक्त था। डेविड ने मेरा सिर पकड़ कर खिड़की की तरफ कर दिया… उसका छूना मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं चाहती थी वो ये हरकत बार बार करे। लेकिन मैं नहीं कर पाई, आँखें जो जमी खिड़की के बाहर से लौट ही नहीं पाईं। इतना सुंदर लैंडस्केप किसी और यात्रा में शायद ही दिखे।

क्या तुम अक्सर ट्रेन से आते जाते हो।

नहीं… एकाध बार ट्रेन से… इतना वक्त कहाँ कि दो दिन ट्रेन में लगाऊँ…इस बार तो हेवी सामान की वजह से आना पड़ा… घर बनवा रहा हूँ… कुछ चीजें दिल्ली से ली हैं…

डेविड ने मेरे सवाल के जवाब में अपना पूरा पता खोल रहा था। पंजिम में एक शानदार विला बनवा रहा है, व्यवसायी है। मूलतः गोवन है… आदि आदि… मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे कानों में अरब सागर की लहरों का शोर भर गया था और आँखों में नारियल पेड़ो की कतारें…। वह मेरी अनमनस्यकता को भाँप चुका था, इसलिए अब मेरे बारे में सवाल शुरू कर दिया… आप क्या करती हैं, कहाँ रहती है… गोवा क्यों जा रहे हो… ट्रेन क्यों चुना, अकेली क्यों… इतने सवाल कि कुछ जवाब तो अब तक बाकी हैं। अब बोगी में हमीं दो थे, बाकी गौण।

हालत ये कि मडगाँव से पहले ही करमली स्टेशन पर डेविड ने सामान समेत मुझे उतार लिया और जहाँ मेरी बुकिंग थी, वहाँ रास्ते से फोन कर दिया।

स्टेशन पर पाँच मिनट के लिए गाड़ी रुकी थी, तत्परता से डेविड ने मुझसे पूछे बिना मुझे पकड़ा और सामान समेत नीचे। मैं हकबकाई सी उसके पीछे पीछे…। समझ नहीं पा रही थी करमली स्टेशन से मेरी जिंदगी का रास्ता किधर मुड़ रहा था। अपनी गाड़ी से ड्राइवर को उतार कर दूसरी गाड़ी में भेजा, खुद ड्राइविंग कर रहा था। मैं हवा के पंखों पर सवार थी। दिमाग काम करना बंद कर चुका था।

मेरे गेस्ट हाउस पर उसने गाड़ी रोकी। बाहर से बिल्डिंग देखी और मुँह बना लिया –

छीह… इसमें रहोगी तुम… ये कोई रहने लायक जगह है। तुम मेरी गेस्ट हो, गोवा में हो, रोमांटिक जगह में रहो यार… चलो यहाँ से… बागा चलते हैं… वहाँ मेरे दोस्त का रिसार्ट है, वहाँ स्टे करो… चलो…।

नो मैन… मेरे औफिस का गेस्ट हाउस है, पंजिम में, वहाँ… और हाँ… क्या कहा… मैं गेस्ट हूँ… हुम्म्म… बोल लो बोल लो… आगे मौका नहीं मिलेगा… नौट एगेन नौट एगेन…

ओरे बाबा, अब चलो… चलो तो…

डेविड की जिद तो जिद है। अब मेरे बस में कुछ नहीं था। मेरी कमान उसके हाथ में थी।


आज फिजाँ बदली हुई है। रास्ते भर असहनीय चुप्पी के बाद हम बोगनबेलिया रिजार्ट में थे। मेरा सामान कमरे में भिजवा कर उसने पूछा – आराम करोगी या सीधे रेस्टोरेंट चले। मैं खुल कर बात करना चाहती थी कि कुछ तो गड़बड़ है। एक हँसता खेलता इनसान इतना चुप चुप कैसे रह सकता है। वह तो दीवारों से भी बात कर सकता है। वह तनाव लेने नहीं देने में यकीन करता है। कभी उसे उदास देखा नहीं… वह अपने आसपास के लोगों को अपनी चुहल से रिफ्रेश कर देता था। आज उसके चेहरे पर तनाव की हल्की छाया दिख रही है। चेहरे की रौनक गायब है। पहले से दुबला दिखाई दे रहा है। पिछले दिनों हमारे बीच संवाद कम हुए थे। मैं भी अपनी माँ की बीमारी और नौकरी की बोरियत से जूझ रही थी। कई बार औफिस में गोवा ट्रांसफर की बात भी चलाई। लेकिन दाल गली नहीं। साल में सिर्फ एक हफ्ता कम था। मैं डेविड को ठीक से समझना चाहती थी, उससे पूछना चाहती थी, खुमार से ऊपर से उठकर मैं अब डेविड के साथ सेटल हो जाना चाहती थी।

सामने टेबल पर वेटर किंगफिश की प्लेट रख गया था। कैंडिल लाइट की मद्धिम रौशनी में, तली हुई मछली के मसालेदार टुकड़े पर मैं टूट पड़ना चाह रही थी। वेटर ने ड्रिंक के लिए पूछा, डेविड ने मना कर दिया। खाने को भी अपने लिए मना कर दिया।

तुम कुछ नहीं लोगे… व्हाट हैप्पेन डी…?

मैंने ड्रिंक छोड़ दिया और बाहर का खाना भी नहीं खाता।

अच्छा… किस खुशी में। मेरे साथ भी नहीं…?

जस्ट बिकौज हेल्थ प्राब्लम… नथिंग एल्स…

ओह… मुझे लग रहा था…

मेरी छोड़ो… तुम खाओ ना… यहाँ फिश की बहुत अच्छी वेराइटी मिलती है…

मुझे डेविड बहुत दूर दिखाई दिया… मीलों दूर… ये वो डेविड नहीं था, जो मुझसे मिलकर एसे खुश होता था जैसे जहान मिल गया हो। ये कोई और है… जो औपचारिकता निभा रहा है, कुछ कुछ छिपाता हुआ। ठंडी हवा का एक झोंका आया…

कहाँ खोई हो? सुनो, कुछ अनाउंस हो रहा है…

ये गाना दिल्ली से आई हमारी विशेष मेहमान मान्या यानी वान्या के लिए है…

सच ए फेलिंग कमिंग ओवर मी…
देअर इज वंडर इन मोस्ट एवरीथिंग आई सी…
नौट ए क्लाउड इन दी स्काई…
गौट दी सन इन माई आईज…
एंड आई डोंट बी सरप्राइज… इफ इटस अ ड्रीम…

थोड़ी दूरी पर बैंड के साथ लाइव गाना एक साँवली सी, पतली छरहरी काया वाली लड़की गा रही थी। मैं चौंक गई। मेरे लिए गाना… ये लड़की… क्यों… कैसे मेरा नाम पता… मैंने हैरानी में डेविड की तरफ देखा। वो मुस्कुरा रहा था।

व्हाट?

ये क्या है…? सवाल पूछने की मुद्रा में मेरी हथेलियाँ उठीं, अनंत की ओर। डेविड रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया और चुप रहा। मेरी आँखें फैलीं ही रहीं… इससे पहले कि सिकुड़ती, आँखें और फैल गईं, जैसे पूरे माहौल में सिर्फ मेरी आँखें हों और मैं सुधबुध खो रही हूँ… चेतना जा रही थी लेकिन आँखें फैली थीं।

ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना…
दे दूँगी जान जुदा मत होना रे…

अंग्रेजीभाषियों की जुबान में हिंदी ट्विस्ट होकर कितनी मीठी हो जाती है, इसका अंदाजा लगा। वह मेरा फेवरेट गाना गा रही थी और माइक लेकर टेबल पर बैठे हुए ग्राहकों के पास से गुजरती हुई। डेविड पहली बार थोड़ा असहज हुआ।

ओ मेरी बाँहों से निकल के…
तू अगर मेरे रस्ते से हट जाएगा…
तो लहरा के… हो बल खा के…
मेरा साया तेरे तन से लिपट जाएगा…

ये गाते हुए वह डेविड के पास आकर रुकी… एक हाथ डेविड की पीठ पर रखा और मेरी तरफ मुड़ी… डेविड ने हाथ बढ़ा कर छू लिया। वह मेरी तरफ पलटी।

ओ पछताओगी… कुछ ऐसे…
कि ये सुर्खी लबों की उतर जाएगी…

मैं हिली… ना मुस्कुराया गया ना सराहा गया। आमतौर पर एसे माहौल में मैं साथ साथ गाने लगती थी या झूमने लगती थी। मैं किसी और लोक में थी, ये क्या हो रहा है… ये लाइन मुझे क्यों सुना रही है। पहली बार मुझे अपना फेवरेट गाना चुभ रहा था, पता नहीं क्यों…

गाते गाते वह फिर डेविड के पास आई…
मैं हूँ पीछे सौ इल्तिजाएँ लिए…
जी मैं खुश हूँ… मेरे सोना…
झूठ है क्या, सच कहो ना…
कि मैं भी साथ रहूँगी…
रहोगे जहाँ… ओ मेरे सोना रे…

डेविड उठ कर उस लड़की के साथ फ्लोर पर चला गया। कई जोड़े थिरक रहे थे। डेविड ने माइक लिया…

ये सजा तुम भूल ना जाना…
प्यार को ठोकर मत लगाना…
दोनों गा रहे थे…
ओ मेरे सोना रे सोना…

मैं वहाँ जैसे होकर भी नहीं थी। गाना खत्म हुआ तो सबने ताली बजाई… मेरे दोनों हाथ अनंत की ओर थे। मैं ध्वनिविहीन ताली बजा रही थी।

अँधेरे और गहरा गए थे। रेतीली जमीन पर उगे घने पेड़ हिल रहे थे, हौले हौले। पत्तों की सरसराहट मेरे भीतर पैवस्त हो रही थी।


पूरे हफ्ते तक डेविड का कोई पता नहीं चला। कल मिलने का वादा करके विदा हुआ। उसके बाद से मोबाइल औफ, दफ्तर में फोन लगाया तो साहब आए नहीं का रटा रटाया जवाब मिलता। मैं दिन भर अकेली पागलों की तरह कभी कंदोलिम तो कभी अंजुना बीच पर घूमती। शाम को कैसिनो का वक्त होता था। हिसाब किताब में आधी रात होती फिर थककर वापस होटल आओ और अपनी औकात भर चादर में लिपट कर सो जाओ। कैसिनो का माहौल मुझे जमता नहीं था। पता नहीं क्यों लोग महँगी टिकटें लेकर आते, हजारों रुपये हार जीत कर बिसूरते-खिलखिलाते लौट जाते। मैं शीशे के केबिन से सारा तमाशा देखती और तरह तरह इन प्राणियों के बारे में सोचती रहती। ये खाए-पीए-अघाए लोग…। सबसे ज्यादा हैरानी तो अधेड़ औरतों और लड़कियों को देखकर होती, जो सिर्फ कंपनी देने के नाम पर आतीं और खाली मर्दों से फ्लर्ट करतीं। लाल, पीली नीली बत्तियाँ मशीनों से निकलती, जलती बुझती तो उनके चेहरे मुझे दिख जाते। पूरा माहौल शराब और शोर में डूबा। हारने पर मर्द से ज्यादा औरते सिर धुनतीं…

कहा था ना, बीच में ही वापस हो लो… क्यों आगे बढ़े…? लो… फूलिश मैन… सब लुटा दिया… हाय हाय… बैड लक्क…

वाऊ… मेरी जान… ग्रेट ग्रेट… मजा आ गया… यू अमेजिंग… तुम्हें कोई नहीं हरा सकता…

लड़कियाँ सगर्व ताली पींटती और मर्द घूँट भरते, जैसे किला फतह कर लौटें हों, रानियाँ तिलक लगाएँ। पैसे को समेटते जैसे बीच पर बैठी कोई बच्ची सीपियाँ समेटती है अपने दामन में।

कुल मिलाकर दिलचस्प नजारें और सरगोशियाँ। चुपचाप देखें तो भी मजा आए।

मैं डेविड को सैंकड़ों बार फोन लगा चुकी थी। हर बार कोंकणी में वही भाषण सुनना पड़ता। किससे कहूँ… क्या कहूँ… क्यों कर रहा है वो ये सब… क्या चाहता है… कोई बात है तो स्पष्ट क्यों नहीं करता…?

क्या स्पष्ट करेगा डेविड…? मेरे भीतर से कोई और बोला।

यही कि समय आ गया है हमारे बीच आगे की चीजें तय हो जाएँ… मैं दिल्ली छोड़ने को तैयार हूँ… अब फैसला उसे लेना है…

डेविड तो कभी सीरियस होता ही नहीं… हर बात टाल जाता है हँस कर… क्या कहेगा वो… मैं जानती हूँ उसे… वह भी चाहती है मैं यहाँ सेटल हो जाऊँ… याद है जब पहली बार मिले और मैं दिल्ली वापस लौट रही थी तब डेविड का मुँह कितना सूखा हुआ था। बार बार टिकट पोस्पौंड करवाने को कह रहा था। चाहकर भी नहीं रुक पाई थी। एयरपोर्ट पर अलग होते हुए कलेजा कट रहा था। डेविड ने आँखें फिर लीं और मैं जल्दी भागी काउंटर की तरफ। शीशे से एक बार देखा, उसकी धुँधली छाया चिपकी हुई थी वहाँ, वाष्प की तरह। मेरी आँखों में समंदर ठहरा हुआ था।

घर चलोगी आज रात…? वहाँ नाइट स्टे करो…

मेरे जाने से पहले की ये आखिरी रात थी। जितना रोना था, रो चुकी थी, जितना सोचना था, सोच चुकी थी।

डेविड ने पहली बार अपने घर चलने का न्योता दिया। मेरे सामने साक्षात खड़ा था। मुरझाया-सा, मलिन-सा। जैसे किसी ने निचोड़ लिया हो।

क्यों… क्यों जाऊँ तुम्हारे घर… कहाँ थे अब तक…?

मैं भूल गई थी कि मैं कहाँ खड़ी हूँ। मांडवी नदी के किनारे बोट लेने के लिए खड़ी थी कि अचानक डेविड आ खड़ा हुआ। डेविड ने मेरा हाथ पकड़ा और खींचता हुआ अपनी कार तक ले गया। मैं चिल्लाती रही… चीखती रही… उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। चुपचाप गाड़ी चलाता रहा। मेरा विलाप बंद हो चुका था। मैंने पता नहीं क्या क्या उसे कहा, वह सुनता रहा। हिंदी गाने की सीडी हौले हौले मेरे विलाप के बैकग्राउंड में बजती रही। ना उसने तेज किया ना धीमे।

आई लव हिंदी सौंग्स… इसमें हरेक सिचुएशन में फिट होने वाले गाने हैं…

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों…

गाना अच्छा नहीं लगा तुम्हें…? चलो बदल देता हूँ… ये सुनो…

अजीब दास्ताँ है ये… कहाँ शुरू कहाँ खत्म…

मेरा मन गाने में कहाँ… नारियल के पेड़ों की कतारों में उलझा था। इन्हीं सड़कों पर, किनारे किनारे… देर तक हम भटका करते थे।

किसी अजनबी शहर में गुम हो जाना, कितना रोमांटिक अंदाज है। डेविड खुद को मेरे साथ भटक जाने देता था। रास्ता नहीं बताता था। मैं इधर उधर भटकती हुई अंत में सही रास्ते पर आ जाती थी। एसा करते हुए ही मैंने पंजिम की तमाम गलियाँ देख डालीं। हर बिल्डिंग, चर्च, पेड़-पौधों से भटके हुए राही सा रिश्ता बन गया था।

बोलोगी नहीं कुछ…?

क्या बोलूँ…? मेरी आँखें डबडबाई हुई थीं। मैं खुद को बेहद अपमानित और छली हुई महसूस कर रही थी। मैं डेविड से लिपट जाना चाहती थी। चाहती थी वह पहले की तरह मुझसे बात करे, मुझे छेड़े, गाने गाए, शहर के बारे में बताए, अपने बारे में बताए… मुझसे माफी माँगे… या फिर ठोस वजह बताए कि क्यों गायब रहा। मैं रुठकर मान जाने को तैयार बैठी थी। वह दोनों से अनजान था या अनजान होने का नाटक कर रहा था या उसे मेरी परवाह नहीं रही। कोई बात है जिसकी परदेदारी हो रही है। मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे। अब तक घर जाने को कभी नहीं बोला। मैंने भी जिद नहीं थी कभी। घर के बारे में जब भी सवाल पूछो तो टाल जाता… कहता कि अभी मुझे अपना घर बनाना बाकी है। जमीन देख रहा हूँ… किसी पहाड़ी पर बनाऊँगा… विला जैसा… ब्लू रंग का… समंदर जैसे रंग का… जिसमें कमसेकम पाँच गाड़ियाँ रखने की जगह हो। बड़ी छोटी सब…। घर बना लूँ फिर ले चलूँगा… पक्का…। ये सब सुन कर मैंने घर के बारे में पूछना ही बंद कर दिया। अब किस घर में ले जा रहा है। लगता है घर बन गया है। शायद सरप्राइज हो…। दिल को तसल्ली मिली।

ओ… वाउ… ये तो सचमुच विला है… प्यारा सा घर… अलथीनो पहाड़ी पर छोटा सा कौटेज। ब्लू रंग… बाहर बड़ा लौन…।

कम कम… इधर…

बेल बजी… दरवाजा खुला…

मैडम कहाँ है?

अपने रूम में है… रियाज कर रही हैं… शाम की… आज शी-पैबल में गाना है उनको।

मेड इतना बता कर चली गई।

मैडम… ठन्न से लगा। ये मैडम कौन हैं?

मैं आश्चर्य में हिचकोले खा रही थी कि गाने की आवाज सुनाई दी… मैं उस तरफ बढ़ी।

अजीब दास्ताँ है ये… कहाँ शुरू कहाँ खत्म… ये मंजिलें हैं कौन सी… ना वो समझ सके ना हम…

एक लेडी गा रही थी। उसकी पीठ मेरी तरफ थी। ये आवाज कुछ जानी पहचानी सी है… कहीं सुना है… इससे पहले… हिंदी में ट्विस्ट आवाज…

ओ मेरे सोना रे सोना रे…

छन्नाक… भरभरा कर विला की साँकलें खुलीं।

वह पलटी…

हाय, आय एम पैरिन, पैरिन इलाविया गोन्सालविस, डेविड स वाइफ…

उसने हाथ बढ़ाया… पतली हथेलियाँ आगे बढीं, मैने थामा, हथेलियों का ठंडापन मेरी हड्डियों में सनसनी की तरह पैठ गया।

आई नो यू… मैंने आपके लिए गाना गाया था… हैव यू रिमेंबर…?

आँ… हाँ… यस यस… हाय… यू रियली सिंग वेल… मैं वहाँ नहीं थी। इतना बोलते हुए मैं अनुपस्थित हो चुकी थी। सिर्फ डेविड की आवाजें सुनाईं दे रही थीं… हम कितना जानते हैं जिंदगी को… कभी भी कुछ भी हो सकता है। तुम्हें जिंदगी पर यकीन क्यों है… मैं तो जैसे जिंदगी का साथ दे रहा हूँ… ये ना कहे कि बीच राह में छोड़ गए।

ऐसा क्यों बोलते हो डेविड… तुम तो इतने हँसोड़ हो… चंचल, मस्त… ये अचानक दार्शनिक क्यों हो जाते हो… समथिंग रौंग विद यू… क्या बात है?

कुछ नहीं रे… बस यूँही डायलौग मार लेता हूँ… बस तुम साथ होती हो तो जिंदगी का खयाल कुछ ज्यादा ही आने लगता है।

हैलो… ड्रिंक लोगे?

नो, मैं पीती नहीं… थैंक्स…

मैं धम्म से बैठ गई, जो सामने चेयर पड़ी थी उसपर। मैं वहाँ से भाग जाना चाहती थी… इतना बड़ा धोखा… झूठ… क्यों डेविड… क्यों छुपाया… बताया क्यों नहीं… मुझे सपने देखने से मना क्यों नहीं किया? रोक देते ना… तुमने आगे बढ़ने दिया… क्या तुम छल कर रहे थे… या मजे ले रहे थे… तभी तुमने मुझसे एक दूरी बना कर रखी… याद आया… बीच पर तुम्हारा हाथ गल्ती से कहीं छू भर गया तो तुमने झट से हटा लिया। मुझे अच्छा लगा था, आत्मीय स्पर्श की गरमाई किसे अच्छी नहीं लगती। रेतीली हवा का नशा और बढ गया था। तुम तो अल्हड़ लहरों की तरह मुझे खींचते हुए भाग रहे थे…। देह से अनुपस्थित देह… मुझे भी एक पल के लिए खयाल नहीं आता था कि दुनिया में इस हँसी और समय से ज्यादा अहम कोई चीज होती है। आज ये… नई सच्चाई सामने, अप्रत्याशित। मैं कौन हूँ… कहाँ हूँ… एक पल के लिए बीमार माँ का चेहरा घूमा, उनकी आँखें मुरझाने लगीं। मैंने पैरिन की तरफ देखा… उसकी आँखें भी मुरझाई सी लगीं। पता नहीं… क्यों। वो मुस्कुरा रही थी। वह कुछ बता रही थी। डेविड दूर चला गया था। मैंने चारो तरफ देखा, भीतर से रुलाई-सी फूटी और मैं जिस दरवाजे आई थी, उसी से बाहर भागती चली गई।

दिल्ली एयरपोर्ट पर जैसे ही फ्लाइट ने लैंड किया, मैंने ड्राइवर को फोन करने के लिए मोबाइल को औन किया। भरभरा कर कई एसएमएस डेलिवर होने लगे। अनजान नं. था… डेविड का तो कतई नहीं…

मैंने एक एक कर पढ़ना शुरू किया…

मान्या… उम्मीद है तुम समझ गई होगी कि क्यों डेविड तुम्हारे करीब आया और क्यों अलग हुआ। वह अलग होकर भी अलग नहीं हुआ है, हाँ, बस इतना जरूर हुआ है कि डेविड की किडनी की बीमारी ने उसे बिल्कुल बदल दिया है। अब वो डेविड नहीं रहा जो तुम्हें मिला था।

– मुझे मेरा डेविड वापस तो मिला लेकिन बीमार और जरूरतमंद… जिस वक्त इसे किसी साथी की सख्त जरूरत थी, तुम नहीं थी कहीं… मुझे पता चला और मैं इसके पास आ गई। मैं तो डेविड से बहुत दूर जा चुकी थी।

– मुझे पता नहीं कि बीमारी भी कभी कभी टूटे दिलों को इतना जोड़ देती है।

– मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं मान्या… मुझे डेविड ने अस्पताल में लंबा समय बिताते हुए तुम्हारे और अपने बारे में सबकुछ बताया था। मैंने एक बार सोचा कि मैं फिर से दूर चली जाऊँ… डेविड तैयार नहीं हुआ।

– सच में… शायद मैं भी अब दूर नहीं जा सकती। मैं माफी माँगती हूँ तुमसे, तुम्हारे दिल को जो चोट पहुँची है। तुम जल्दी इससे बाहर निकल आओगी… उम्मीद करती हूँ…

– जानती हो, मैं तुम्हारे साथ वक्त बिताना चाहती थी ताकि बहुत कुछ बता सकूँ… अपने और डेविड के बारे में… डेविड ने तुम्हें धोखा नहीं दिया है। वह तुम्हे लेकर सीरियस था… सच… किस्मत में मेरी इंट्री लिखी थी… क्या करे… वह तुम्हे खुद बताने की हिम्म्त नहीं जुटा पाया, तो मेरा सहारा लिया। उसमें ताकत नहीं रही। भीतर भीतर वह टूट चुका है। उसे जिंदा रखना मेरी पहली प्राथमिकता है।

– हाँ, एक बात और… डेविड को जीवन भर डायलिसिस पर रहना है। मैं एक्सपर्ट हो गई हूँ घर में ही कर लेती हूँ। इस खौफ में रोमांस है मान्या…

– और हाँ… सुनो… अबकि तुम जब गोवा आओगी, तो अपनी दोस्त पैरिन के घर स्टे करोगी, रिसार्ट में नहीं। हम दोनों मिलकर डेविड का डायलिसिस करेंगे… उसे तो बाहर का खाना पीना नहीं है… हम दोनों चलेंगे ब्रीटोज… टीटोज… कबाना… लेडीज नाइट क्लब में… मैं गाना गाऊँगी और तुम थिरकना…

– आओगी ना… प्लीज डोंट से नो… से यस… प्लीज प्लीज… टिकट्स तुम्हारे मेल पर पहुँच जाएँगी… स्माइल प्लीज…

– मैं तुम्हारे लिए अपना प्रिय गाना गाऊँगी… हैव यू सीन एवर रेन्स… हैव यू वाक इन सन्नी डेज…

– स्वीटहर्ट…

इटस फार बेटर टू वाक विद यूअर फ्रेंड इन डार्क… रैदर टू वाक अलोन इन लाइट… (अँधेरे में किसी दोस्त के साथ चलना, रौशनी में अकेले चलने से कहीं बेहतर है।)

बेल्ट न. 8 से अपना सामान उठाते हुए मैंने देखा… पैरिन गा रही है, रौशनी झर रही है… डेविड मुस्कुरा रहा है… लहरें उठ रही हैं… रेत गीली गीली हो रही है… मेरे हाथ पर पैरिन की हथेलियों का दबाव बढ़ रहा था।

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दो लफ्जों की एक कहानी – Do Laphjon Ki Ek Kahani

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