फ्रीबर्ड | गीताश्री
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फ्रीबर्ड | गीताश्री – Freebird

फ्रीबर्ड | गीताश्री

जैसे जंगल में किसी के कराहने की आवाज हो, वैसी ही उसके गले से बातें निकल रही थीं –

‘रिया… मैं क्या करूँ? वो मुझे बाँधना चाहता है। मैं अब किसी से नहीं बंध सकती यार… हमारे बीच ऐसा कुछ तय नहीं हुआ था। सबकुछ अचानक और यूँ ही तय हुआ था… नहीं-नहीं… ये संभव नहीं। मैं, अब किसी एक के साथ बंधकर अपने जीवन और कैरियर के सारे अवसर गँवाना नहीं चाहती… तू… तू… जानती है… मैं मुक्त हूँ…’

‘हम्म…’

‘जब मर्दों का कोई दीन धरम नहीं, तो औरतों से क्यों एकनिष्ठ प्यार, समर्पण चाहते हैं? आज मैं साफ बोलने वाली हूँ, बस बहुत हो गया। एक द्वार बंद होगा, हो जाए – आगे दस द्वार और खुल जाएँगे, कौन सा अकाल पड़ा है। बाढ़ की तरह उमड़े चले आते हैं, सामने लड़की दिखनी चाहिए। अब मैं वो ‘कलावती’ नहीं हूँ, …रिश्ते टूटे तो बिखरने लगूँ। ये स्साले ठरकी मर्द जाएँ भाड़ में…।’

कलावती की आवाज कई तरह के रस में डूबी हुई थी। घृणा, प्रेम, अफसोस, हर्ष, विषाद और आखिर में किसी अनचाहे रिश्ते से मुक्त हो जाने का भाव एक साथ उजागर हो रहा था।

एक और ब्रेकअप… कला एक और ब्रेकअप की तरफ बढ़ रही थी।

उसके कितने रिश्ते टूटे, मैंने उसकी गिनती बंद कर दी है। उनमें से कुछ मेरे अब भी दोस्त हैं और कुछ अनजान लोग थे। ताजा-ताजा बंदा मेरे लिए अनजान है। इसीलिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा। मगर मैं सोच में डूब गई हूँ कि ये कब तक।

इस स्त्री का ये सफर, ये प्रयोग कब तक जारी रहेगा। कहाँ थमेगी जाकर?

खुद रुकेगी या एक दिन उम्र इसकी वल्गा थाम लेगी? कुछ तो होने वाला है।

सिर्फ पाँच साल पहले की बात है। मेरे एक मित्र का फोन आया था, कितना चाह रहे थे। मिलने की जगह उनके किसी दोस्त का घर था। एबी- ११, राज नगर।

तलाशती हुई वहाँ पहुँची, ड्राईंग रूम में क्या भव्य इंतजाम। बीयर की ठंड़ी बोतलें सेंटर टेबल पर धरी हुईं। राजस्थान के पारंपरिक लेकिन अत्याधुनिक स्कर्ट पहने होस्ट ‘कलावती’ जी, अपने तीन चार बिल्लियों के साथ। कमरे के एक कोने पर हारमोनियम और तबला, तानपुरा और भी कुछ-कुछ। कुछ तस्वीरें प्राचीन सी दीखने वाली दीवारों पर टँगी थी। ड्राईंग रूम देखकर मेजबान की पसंद का पता चल रहा था।

कुल मिलाकर बेहद आत्मीय माहौल था जिसमें आने के बाद अतिथियों का कुछ हिस्सा यहाँ छूट जाता होगा… ऐसा लगा। मेरे मित्र का कुछ ना कुछ हिस्सा जरूर छूटने को बेचैन दिखा। इसी अंदाज में वे दिखे जबकि कला दीवारों के पार देखने की बातें करती रही।

मित्र से मिलकर जब लौटे तब तक हमारा काफी ज्ञानवर्धन हो चुका था। वे मेरे मित्र की पारिवारिक मित्र थीं। घर-परिवार वाली। बच्चे होस्टल में पढ़ते हैं। ‘कला’ जी अच्छा-खासा गाना गाती थीं, मगर उनकी गायकी – कोठी के बाहर तक नहीं पहुँची थी।

‘कला’ किसी बेचैन आत्मा की तरह मुझे मिली जिसमें उड़ने की चाह जोर मार रही थी। मुझे उसे देखकर बुद्धिनाथ मित्र की कविता की वह पंक्ति याद आई – एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो…।

कला ‘जीने’ और उड़ने की चाहत से भरपूर एक स्त्री थी। 40 वर्षीय सुंदर, बनारसी स्त्री, कुछ-कुछ बनारसी सिल्क-सी, महीन धागों से बुनी हुई। सिल्की आवाज जो आवश्यकतानुसार कभी उल्लास में डूबती तो कभी-कभी ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है’ …के दर्द में डूबी हुई निकलती थी।

इस दर्द ने मुझे बाँध दिया उसकी दोस्ती के डोर से। उसकी हर प्रकार पर उसके घर खिंची चली जाती थी। कभी-कभी फोन पर लंबी वार्ताएँ आयोजित होती। शिकायतों का अंबार, पति की नाकामी (भौतिक और शारीरिक) का रोना, बिल्लियों की आपसी लड़ाई, अंगूर के झाड़ का बेवजह सूखते जाना और सबसे बड़ी समस्या तात्कालिक प्रेमी की। वह अतीत में डूबने वाली स्त्री नहीं थीं। वर्तमान का ऐसा दोहन करते मैंने किसी और को नहीं देखा जो भी है बस यही एक पल है… की तर्ज पर उसकी दिनचर्या सेट होती थी। मुझे उसने इस सबका गवाह बना लिया था। उसे कभी-कभी सलाह जरूर चाहिए थी। वह सुनती और करती ठीक उसके उल्टा। मैंने सलाह देने जैसी बेवकूफी बंद कर दी। बाद में लगा कि वह ‘सलाह’ जैसी सस्ती चीज से ऊपर उठती जा रही थी।

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वह गाना चाहती थी, या गाने के बहाने उड़ना – यह फर्क पता नहीं चल पा रहा था।

हमेशा की तरह उसका एक बार फोन आया।

‘बात सुन, मुझे कोठी के लान में एक ‘पोटा केबिन’ बनवाना है। वहाँ में संगीत का साजो सामान रखूंगी और रियाज करूँगी। हम वहाँ अपनी दारू पार्टी भी करेंगे। हमें कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। क्या तू अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके दिल्ली नगर निगम से परमिशन दिला देगी?’

फोन के उस तरफ ‘कला’ के चेहरे के भाव कैसे रहे होंगे, पता नहीं। लेकिन आवाज अंत तक आते आते कातर हो गई थी।

‘मैं देखती हूँ, किसी को पकड़ना होगा… बताती हूँ।’

मैंने धर्र से फोन काटा और दिमाग दौड़ाने लगी कि इसकी मदद कैसे करूँ। कोई जरिया नहीं दिख रहा था। दो दिन उधेड़बुन में निकल गए। तीसरे दिन खिन्न भाव से उसके घर पहुँच गई। बेल बजाई तो हड़बड़ाई सी ‘कला’ बाहर आई। बिल्कुल बनी-ठनी सी। चेहरे पर आश्वस्ति का भाव जैसे भटके हुए नाविक को सामने टापू दिख गया हो। अंदर एक सरदार जी बैठे थे। ‘ये मि. कोहली है। एक दिल्ली नगर निगम में चीफ इंजीनियर… मैंने इन्हें खोज निकाला। ये मेरा काम करवा देंगे…।’

‘कोहली जी घनी मूँछों और कसी डाढ़ी के बीच मुस्काए होंगे – ऐसा लगा।’

मुझे राहत मिली। चलो काम हो गया। हम थोड़ी देर बैठे, फिर मैं उठ आई। कोहली जी देर तक बैठने के मूड में दिखे। उनकी आँखें चमक रही थीं। ऐसा लगा, जैसे उन्हें भी किसी ऐसी ही जगह की तलाश थी। अपने घर की तरह सोफे में धँसे हुए उन्हें छोड़ आई। मगर माथा तो ठनकता रहा।

एक घंटे बाद ‘कला’ का फोन आया।

फोन उठाते मैंने पूछा। काम हो गया तेरा?’

‘नहीं यार, इतना आसान नहीं है। परमिशन लेने की लंबी प्रक्रिया समझा गए हैं कोहली जी। कल भी आएँगे, कह रहे थे। मगर जल्दी करवाएँगे।’ वह थोड़ी रुँआसी थी। एक हफ्ता बीता। अपनी व्यस्तताओं में उसे फोन करना भूल गई। एक दिन अचानक फिर उसका फोन आया।

‘घर आ, कुछ सलाह लेनी है।

फिर सलाह… मानेगी तो नहीं। करेगी, वही जो तेरा मन करेगा।’

‘तू आ तो सही, मामला ही कुछ ऐसा है… तू ही हल निकाल सकती है।’ यह बेचैन आत्मा की पुकार थी। घर गई। वहाँ उसने जो पूरे हफ्ते का हाल सुनाया और जो सलाह माँगी, उससे मेरे होश उड़ गए। मामला कुछ यूँ, कला की जुबानी सुनिए।

कोहली जी रोज सुबह फोन करते, और पूछते आपके पति दफ्तर कब जाएँगे। और जैसे ही पतिदेव विजय सक्सेना जी घर से निकलते, कोहली जी नियमित आ धमकते। आते ही, ड्राईंग रुम में रखे हारमोनियम, तानपुरा और तबला को प्यासी नजरों से निहारते, कभी छूते, कभी कोई तार छेड़ते तो कभी तबला पर उँगली पटक लेते। ‘कला’ उनके इस संगीत प्रेम पर हैरान होती। एक दिन वह ‘आहें’ भरने लगे।

‘हाय, मैं भी गायक बनना चाहता था। मुझे भी गाने का बड़ा शौक था जी। लेकिन घर गृहस्थी के चक्कर में, नौकरी की व्यस्तता में सब खत्म हो गया।’

कभी कहते… मैं तबला अच्छा बजा लेता था। जाकिर हुसैन का तबला सुनकर मैं रो पड़ता हूँ… आह, कितना अच्छा बजाते थे गोदई महाराज… आपने ‘शोले’ फिल्म देखी है – जब गब्बर के घोड़े दौड़ते हैं तो कैसे पीछे से आवाज आती है… टपर टपर… गोदई महाराज ने तबला बजाया है उसके लिए।

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कभी कहते, ‘बहुत अच्छा गाती हैं आप। मंचों पर क्यों नहीं गातीं। प्रोफेशनल बन जाइए। मेरी बहुत ऊँची जान-पहचान है, बड़े-बड़े लोगों से मिलवाता हूँ। आप छा जाएँगी।’

कोहली जी कभी कुछ प्रलाप करते कभी कुछ।

‘कला’ को बड़े-बड़े लोग बहुत अट्रैक्ट करते हैं, सो यह सब सुनकर उसके भीतर अपना ही ‘गान’ सुनाई देने लगता और ‘पोटा केबिन’ की कल्पना तिरोहित होने लगती। कोहली जी उसकी तंद्रा तोड़ते।

कला जी… कला जी कहाँ खो गईं आप? ये सब सच होगा, बस आप प्लान करिए। ये घर में बैठकर तबला-झाल बजाने से कुछ हासिल नहीं होगा… करते है कुछ आपके लिए… करना पड़ेगा। वह उसे झकझोरता।

फिर कला को अपनी व्यर्थता का बोध होने लगता। कोहली के जाने के बाद घंटों उसके दिमाग में गीत-संगीत और तालियाँ बजती रहतीं। उसका खुमार तब उतरता जब रात को घर आकर पति हड़काते। ‘क्या तुम गीत-संगीत की बात करने लगती हो उससे। इंजीनियर तुम्हारे घर आ रहा है, तुम उससे काम की बात छोड़कर सारी फालतू की बातें कर ले रही हो। क्या है ये सब। बुलाओ उसे, नक्की करो। बहुत हो गया, ये गीत-संगीत।

‘कला’ जमीन पर आ गिरी। ओ हाँ… वो काम तो रह ही गया। ये इंजीनियर उसे बेवकूफ तो नहीं बना रहा। रोज आता है, पति के जाने के बाद, उसे गीत-संगीत की पट्टी पढ़ाकर लौट जाता है। ये क्यों करता हैं ऐसे? उसने अकेले में कोई ऐसी वैसी अनाधिकार चेष्टा भी नहीं की, फिर?

आज आने दो, आज फाइनल बात करूँगी। सिर्फ पोटा केबिन और कुछ नहीं। कुछ पैसे वैसे भी दिला देंगे, अगर जरूरत हुई तो। बस वो परमिशन मिलवा दे। कोहली जी नियमित रूप से पधारे। आज कला तैयार थी, सिर्फ काम की बात करेगी। उनकी रंगत थोड़ी सी बदली हुई सी थी। चहकते हुए घर में घुसे। पहली बार उन्होंने ‘हाय कला’ कहकर विश किया। पंजाबी में पूछा… तुस्सी की कर रहे हो। अज मैनूँ त्वाडे नाल कोई गल करनी है। बोलते हुए उनकी कसी हुई दाढ़ी और घनी मूँछें फड़क रही थीं। चेहरा अब भी उनके भीतर कैद था।

‘हाय…।’

कोहली ने पहले तबले पर थाप लगाई। तानपुरे को छेड़ा। हारमोनियम को छुआ और कला के पास सामने आ खड़ा हुआ।

‘तुम मुझे संगीत सिखाओगी? मैं संगीत सीखना चाहता हूँ। फिर से अपने इस शौक को…’

कला हैरान… मैं… मैं… आपको सिखाऊँ। मैं खुद शौकिया हूँ… आपको कैसे…

‘नहीं आप ही सिखाओ।’

और सुनो…

कोहली की आँखों के हजारों बल्ब एक साथ जले।

कल से शुरू कर दो। रोज गाड़ी भेजूँगा। मेरे घर आ जाना… मेरी बीवी मायके चंडीगढ़ गई है। एक महीने बाद आएगी…

कला अब चीखी –

‘क्या मतलब है आपका?’ मैं आपके घर क्यों जाऊँ? आपकी बीवी घर पर नहीं और आप मुझे बुला रहे हैं – क्या मतलब…

कोहली पलटा, इरादा हो तो कल फोन कर देना। सोच समझकर जवाब देना… बाय।

तीर की तरह सन्न से निकल गया। कोहली के गंध में लिपटी हवा का एक झोंका ‘कला’ को छू गया। गुस्से और नफरत से भरी कला देर तक बड़बड़ाती रही। आज आने दो इन्हें, बताती हूँ, फिर इलाज करेंगे तेरा। रख अपना पोटा केबिन… नहीं चाहिए। स्साले, तेरे घर में आऊँगी संगीत सिखाने… बीवी को भेजकर मुझे बुला रहा है… मैं समझती नहीं क्या… सब समझती हूँ, इतनी आसान चीज नहीं हूँ… जो चाहे हजम कर ले… साले ने अपनी शक्ल देखी है… मूँछ और दाढ़ी ने असली चेहरा छिपा रखा है। इनके पीछे पता नहीं कैसी शक्ल होगी…

और भी तमाम तरह के अनर्गल प्रलाप… कला के कंठ से निकलते रहे।

तो सिखा देती संगीत… दिक्कत क्या है… मैं हँसी। जानती थी कि वह चिढ़ जाएगी।

तू विजय की तरह बात मत कर। ये सब सुनने के बाद विजय ने भी यही कहा था, सिखा देती संगीत। वह गाड़ी भेजने को तैयार था। दिक्कत क्या है। कमसेकम वो हमारा काम तो कर देता… तुमने एक बना बनाया काम बिगाड़ दिया। जाओ, खोजो कोई और…

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बड़बड़ाता हुआ बिस्तर पर धँस गया। रोज रात की तरह… उफनती हुई नदी से बेखबर।

एक सामान्य घटना समझ कर मैं भूल गई ये सब। हमारे बीच एक महीने का गैप आ गया। इधर उधर की व्यस्तता में कला की परेशानी हवा हो गई थी मेरे जेहन से। भूलना ही बेहतर था, क्योंकि उसकी समस्या का कोई हल मेरे पास नहीं था।

मगर कहानी तो भी बाकी थी मेरे दोस्त… किस्सा कोताह ये कि कलावती जी अगले ही दिन संगीत टीचर बन गईं एक अधेड़ शिष्य की। ज्यों ज्यों संगीत का ज्ञान मिलता रहा… पोटा केबिन तो क्या, कोठी के सामने की सर्विस लेन भी पक्की हो गई।

मैं इन सबसे अवगत तब हुई जब कला का फोन आया कि वह किसी से बंध कर नहीं रह सकती…।

इस ताजा ब्रेकअप की खबर ने मुझे चौंकाया नहीं, लेकिन चौकन्ना जरूर कर दिया। क्या कर रही है ये औरत… कम समय की दोस्ती में ही मुझे कला ने अपने बारे में बहुत कुछ बताया था, जिसमें शादी के बाद कई अफेयर के किस्से भी शामिल थे। लेकिन वे सब इमोशनल धरातल पर पनपे और खत्म हुए।

क्यों अलग हो रही यार… सब ठीक तो चल रहा था…

नहीं यार… बहुत हुआ। हर रिश्ते की एक एक्सपायरी डेट होती है। डेट खत्म… रिश्ता खत्म… बनते समय ही उसके खत्म होने की डेट तय हो जाती है डियर…

वाह… क्या थ्योरी है…

हुआ क्या…

क्या बताऊँ… कोहली मुझको अपनी प्रोपर्टी समझने लगा था। मैं किसी से मिलूँ ना। कहीं आऊँ-जाऊँ ना। कोई मुझसे मिलने घर आए तो उसे प्रोब्लम। मेरा काम ऐसा है, दस लोग मिलने जुलने आएँगे। बड़े बड़े लोग घर पर मिलने आते हैं, मैं उसकी वजह से लोगों से मिलना जुलना बंद तो नहीं कर सकती ना… विजय को कोई प्राब्लम नहीं। वो खुश है कि मैं संगीत से कुछ पैसे कमा कर घर लाने लगी हूँ। समाज में हमारी इज्जत बढ़ गई है। ये कोहली का बच्चा, हमारा एक काम क्या करा दिया, बदले में मेरी पूरी जिंदगी पर कब्जा पाने का ख्वाब देखने लगा था। मेरी जिंदगी… मेरा मन… कला बोल रही थी, उसकी नजर लान में लगे बड़े से आम की डाल पर बैठी चिड़िया पर जमी थी. मेरी समझ में कुछ कुछ आ रहा था। ये शीला की जवानी के दौर की स्त्री है। रिश्ता टूटने की वजह पर कला का ज्यादा जोर नहीं था। मैं उठी… तूने जो तय किया वो ठीक है। वही कर जो मन कहे। तेरी जिंदगी… जीना, झेलना, सहना… सब तुझे है। यू बेटर अंडरस्टैंड… व्हाट टू डू… नौट टू डू…

देख…जो स्त्री अपनी हिफाजत और सुविधा के लिए अपनी आजादी से समझौता करती है, वो ना आजाद रह पाती है ना महफूज… मैं इस गति को प्राप्त नहीं होना चाहती… कला के भीतर से एक गहरी नाद सुनाई दी मुझे। कला ने बहुत मार्मिक जगह चोट कर दी थी।

प्रेम कला की सोच से गायब था। हो सकता है उसने उसे बहिष्कृत कर दिया हो या आत्मा की गहराई में कहीं सुला दिया हो।

मैं उठी। गेट तक गई… वह मुझे वहाँ तक छोड़ने आई। ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए मैंने देखा – लालबत्ती वाली सफेद एंबेसडर कार रुकी, वो उतरे और कला जी चहकती हुई उनसे जा लिपटी। गेट बंद हो चुका था। कोहली मेरे दिमाग में घूमने लगा। ओह… तो ये मामला है… नेता जी इस इलाके के विधायक हैं।

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