इस बीच क्या कुछ नहीं उग आया 
दो देहों के बीच 
झाड़ झंखाड़ खर पतवार जंगली बेलें नाज़ुक लताएँ 
आदिम दीवारों से निकली गुप्त गुफाएँ अँधेरी घाटियों में 
भौंचक्की दिशाओं में सीढ़ियाँ उभर आईं 
कुछ ढूह कुंठाओं के टिके रहे 
जीभ पर अब फीके पड़े इन गाढ़े अँधेरों में

ज़हर है सच 
पर यही है

See also  तड़प | आत्माराम शर्मा

कितनी कितनी कल्पनाएँ हैं 
गोता खाती पतंगों की डोर से लटकी हुई 
गहन घाटियाँ हैं अंतर की 
दो देहों के बीच

इस बीच दो देहों के बीच कितना समय उग आया है 
यात्राएँ बदल गईं संदर्भ बदल गए अपने होने के 
भोलेपन की शिनाख़्त मुश्किल रही शातिर समय में 
जीवन बुलबुलों सा उगता फूटता मिटता रहा 
मृत्यु के पार जो भी हुआ 
आकलन था 
कुछ दिलासाओं का कुछ भय का 
कुछ नकेलों का इन पालतू करोड़ों पर 
विद्रोह से डरी सत्ताओं का धर्मशास्त्र 
दो देहों के बीच नकली सपने भरता रहा 
रक्तिम अँधेरों में 
कुछ लिपियों के गहरे दंश लगे हैं अचेतन पर 
ज़हर है सच 
पर यही है 
नए असंतोष की बेगानी आब-ओ-हवा में 
कुछ भोली और सहज होनी थी कई कल्पनाएँ

See also  वह जल ही था | ए अरविंदाक्षन

दो देहों के बीच उस आदिम माँ ने 
सहेज कर रखा था अपने प्रथम डिंब में 
एक स्वप्न 
इन फीके गाढ़े अँधेरों में फिर 
वही स्वप्न चुपचाप उग रहा है 
दो देहों के बीच