देवदूत
देवदूत

वह मंच पर बैठा था
दिव्य आलोकपुंज जैसा
सधी हुई कमलनाल पर
चमकते हुए हीरे की तरह

और लोग भी थे उसके आजू-बाजू
धुंधले, अस्पष्ट, लगभग नजर से बाहर
चौंधियाई हुई आँखों में

समा नहीं रहा था वह

सपनों के अगणित सूर्य समेटे हुए
अंधेरे, अपमान, भूख और
बजबजाती नाउम्मीदी के
सघन जंगल में भटकी आत्माओं को
मुक्ति की आवाज देता हुआ
धरती पर स्वर्ग उतारने का
आभास जगाता हुआ

उसके सामने भीड़ थी
अनागत की उमंग से लहालोट
तालिया बजा रहे थे लोग
अवरोध फाँद कर आगे आने को आतुर
झुंड गगनभेदी नारे लगा रहा था
कुछ बच्चे बहुत रोमाँ चित थे
उन्हें उनके माँ-बाप ने
सब-कुछ बता दिया था
वे तेजी से पास खड़े पेड़ों की
फुनगियों पर सवार हो गए थे

उनका हृदय पसलियों के भीतर
इतना तेज बज रहा था
मानो सीने से बाहर निकल
आना चाहता हो
नास्त्रेदमस ने कहा था
हाँ, हाँ नास्त्रेदमस ने कहा था

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कि एक दिन
वह प्रकट होगा और
चारों ओर फैल जाएगी
कभी न खत्म होने वाली रोशनी
कि एक दिन वह आएगा
और सबको मुक्त कर देगा
कि एक दिन
वह हवा में हाथ लहराएगा
और मिट जाएगी गरीबी
खत्म हो जाएगी भूख
कि एक दिन
वह अपनी अमृतवाणी से नष्ट कर देगा
सबकी बीमारियाँ, बुढ़ापा और मृत्यु
कि एक दिन
वह निकलेगा सडकों पर
और फूट पड़ेंगी नदियाँ
सुख, वैभव, ऐश्वर्य की
डूब जाएँगी झुग्गी-झोपड़ियाँ
उसकी वेगवती धार में
खेतों में खूब अनाज होगा
बागों में खिलेंगे अनदेखे फूल
तितलियाँ बाँटेगीं भरपूर रंग
पेड़ों से टपकेंगे मीठे फल

बच्चे बहुत उत्साहित थे
उनके कंधों पर पंख उग आए थे
पहली बार वे नास्त्रेदमस पर

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यकीन करना चाह रहे थे

वे यह सोचकर भाव-विह्वल थे
कि एक रंक राजा बनकर आया है
वह भूला नहीं है अपने दुर्दिन
अपनी पीड़ा, अपना संघर्ष
वह सिर्फ कहानी नहीं सुनाएगा
वह नए संवाद रचेगा, नई कहानी गढ़ेगा

वह मंच से उतरा और
भीड़ जुलूस की शक्ल में बदल गई
मंच से महामंच तक
मैदान से अभेद्य किले तक
सड़क से सरकार तक

उस दिन भी खूब उत्सव मना
गाँव में, कस्बों में, शहरों में
पटाखे छूटे, नगाड़े बजे
सुरीली शहनाइयों के स्वर गूँजे
जमीन से आसमान तक
आशाएँ पसरीं जगमग जगमग

जिसने भी देखा था रोशनी का वह तूफान
अपने पास से गुजरते हुए
आँखें मल रहा है अब
चेहरे पर पानी की छींटें मार रहा है
समझ नहीं पा रहा
यह नींद थी, सपना था या केवल भ्रम

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आँखें बंद करते ही
दिखने लगता है वह
वादों को पूरा करने का
वादा करते हुए
सपनों को हकीकत में बदलने के
सपने दिखाता हुआ
आसमान में ऊँगली से छेद करने के
मंसूबे से हाथ लहराता हुआ
बदलाव के लिए बार-बार बदलाव
की पुकार लगाता हुआ
आँख खुलते ही बिखर जाती है
उसकी आवाज, उसका साज
एक स्वप्न-नाट्य की तरह

अब वह महामंच पर है
क्षण-क्षण बदलते हुए अपना रूप-रंग
उसके पास रंग-विरंगी पोशाकें हैं
अदेखे, अनसुने अनगिनत चेहरे हैं
रोज नए नाटक, रोज नया रिहर्सल
इसके बावजूद कि कोई अक्षर उभरता नहीं
काले कैनवस पर काली पेन से
लिख रहा है लगातार
पूछ रहे हैं लोग
आखिर कब खत्म होगा ये इंतजार

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