चीख | रमेश उपाध्याय
चीख | रमेश उपाध्याय

चीख | रमेश उपाध्याय – Cheekh

चीख | रमेश उपाध्याय

शेखर भाईसाहब और जया भाभी को तीन साल के लिए लंदन जाना था। उनकी अनुपस्थिति में ताई की देखभाल करने के लिए मैं और कावेरी पर्याप्त थे, लेकिन शेखर भाईसाहब को हम पर भरोसा नहीं था। वे अपनी माँ की-और शायद पूरे घर की-देखभाल की जिम्मेदारी कुमार साहब को सौंप गए। कुमार साहब उनके पुराने और भरोसेमंद मित्र हैं। भाईसाहब के हमउम्र हैं, लेकिन अविवाहित हैं। लाजपत नगर में एक बढ़िया मकान किराए पर ले रखा है, जिसमें अकेले रहते हैं। वहाँ से थोड़ी दूरी पर ही उनका दफ्तर है, जहाँ वे एक ऊँचे पद पर सरकारी नौकरी करते हैं। उनके माता-पिता और भाई-बहन इत्यादि या तो हैं ही नहीं, या वे उनसे कोई संबंध नहीं रखते। उन्हें अकेलापन पसंद है। अकेले रहने को वे आजाद रहना कहते हैं और अपनी आजादी उन्हें प्यारी है। हाँ, मित्रों का साथ उन्हें अच्छा लगता है। इसके लिए वे या तो क्लब जाते हैं, या मित्रों के घरों में होने वाली दावतों में शामिल होते हैं, या उनके तथा उनके परिवारों के साथ आस-पास ही कहीं पिकनिक पर और कभी-कभी छुट्टियाँ मनाने के लिए पहाड़ वगैरह पर जाया करते हैं।

लंदन जाने से पहले भाईसाहब ने एक शाम उन्हें डिनर पर बुलाया था। कुमार साहब अक्सर आते रहने के कारण ताई से, भाभी से और कावेरी से परिचित थे। मेरा परिचय कराते हुए भाईसाहब ने उनसे कहा, “यह सुधीर है, मेरा चचेरा भाई। सरकारी नौकरी में है। अभी तक लखनऊ में था, ट्रांसफर हो जाने से दिल्ली आ गया है। चाचा-चाची और दूसरे भाई-बहन सब लखनऊ में हैं और यह अभी अविवाहित है, सो हमने कहा कि दिल्ली में अकेले कहाँ रहोगे, यहाँ एक कमरा खाली पड़ा है, उसमें रहो। यह भी तुम्हारा ही घर है।”

कुमार साहब ने ‘नमस्कार’ में जुड़े मेरे हाथों को अलग करके मुझसे हाथ मिलाया और मेरी नौकरी वगैरह के बारे में पूछा, तो वे मुझे भले आदमी लगे। मैं कभी-कभार एक-दो पैग दोस्तों के साथ बैठकर ले लिया करता था, लेकिन भाईसाहब को, जो शाम को रोजाना ही ‘ड्रिंक’ लिया करते थे, मैंने यही बता रखा था कि मैं नहीं पीता। मगर कुमार साहब ने कुछ इस अंदाज में पूछा कि मैं कभी-कभार पी लेने की बात कबूल कर बैठा। बस, कुमार साहब ही नहीं, भाईसाहब भी खुश हो गए। दोनों ने आग्रह करके मुझे भी हमप्याला बनाकर साथ बिठा लिया।

भाभी उस समय ताई के कमरे में टी.वी. देखते हुए चाय पी रही थीं और कावेरी के बनाए गरमागरम पकौड़े खा रही थीं। कावेरी रसोईघर में रात का खाना पकाने के साथ-साथ हम लोगों की सेवा भी कर रही थी। भाईसाहब की फरमाईश पर कभी कुछ चिखौना ले आती, कभी हम लोगों के खाली गिलासों को फिर से भर देती। कुमार साहब उससे हँसी-मजाक करते, तो वह बुरा न मानती, बल्कि मुस्करा देती या खिलखिलाकर हँस पड़ती।

भाईसाहब उसकी प्रशंसा करते हुए मुझे बता रहे थे, “कावेरी कमाल की लड़की है, सुधीर! बिहार से आई है। आदिवासी है। नाम से हिंदू लगती है, पर ईसाई है। पूरा नाम है कावेरी मसीह। इसके माता-पिता बहुत गरीब लोग हैं। ऐसे लोग अपनी लड़कियों को ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं पाते, इसलिए कोई अच्छी नौकरी तो इन्हें मिलती नहीं, शहरों में आकर घरेलू नौकरानी बन जाती हैं बेचारी। कावेरी भी आठवीं से आगे नहीं पढ़ पाई, लेकिन वैसे बहुत होशियार है। खूब मेहनती, कामकाज में अत्यंत कुशल और स्वभाव की बहुत ही अच्छी।”

बातों ही बातों में भाईसाहब ने कुमार साहब से कहा, “कुमार, मैं और जया अगले हफ्ते तीन साल के लिए लंदन जा रहे हैं। अम्मा यहीं रहेंगी। वैसे वे अकेली नहीं रहेंगी, घर का काम करने के लिए कावेरी है, बाहर के काम करने के लिए यह सुधीर है, लेकिन यह अभी दिल्ली में नया-नया है, जबकि अम्मा का ध्यान रखने के लिए डॉक्टरों और अस्पतालों से परिचित कोई जानकार आदमी यहाँ रहना चाहिए। और हमारी नजर में, यानी मेरी और जया की नजर में, वह आदमी तुम हो!”

“लेकिन, शेखर, मैं कैसे…?” कुमार साहब अचानक रख दिए गए इस प्रस्ताव से अचकचा गए। मगर भाईसाहब ने पूरी गंभीरता के साथ कहा, “देखो, कुमार, हमने बहुत सोच-समझकर यह जिम्मेदारी तुम पर डालने का फैसला किया है। पहली बात – तुम दिल्ली में मेरे सबसे पुराने और सबसे अच्छे दोस्त हो। दूसरी बात – अम्मा को तुम अपनी माँ समझते हो और वे भी तुम्हें अपना बेटा ही मानती हैं। तीसरी बात – तुम अकेले हो और शादी करके दुकेले होने का तुम्हारा कोई इरादा भी नहीं है। सो…।”

“लेकिन, यार…।”

“तुम्हारी सारी संभावित आपत्तियों पर हमने विचार कर लिया है, कुमार!” भाईसाहब ने उन्हें बोलने का मौका दिए बिना मुस्कराते हुए कहा, “तुम कहोगे तुम्हें इतनी अच्छी कॉलोनी में इतना अच्छा मकान इतने कम किराए पर मिला हुआ है, यहाँ आकर रहने के लिए उसे छोड़़ दिया, तो तीन साल बाद ऐसा मकान फिर नहीं मिलेगा। इसका जवाब यह है कि उस मकान को छोड़ो मत। अपना जरूरी सामान उठाओ, ताला लगाओ और यहाँ चले आओ। हर महीने जाकर मकान मालिक को किराया दे आओ और मकान की सफाई वगैरह करा आओ।”

“हाँ, मगर…”

“तुम्हारी दूसरी आपत्ति होगी – वहाँ से तुम्हारा दफ्तर बहुत पास है, यहाँ से दूर पड़ेगा। इस समस्या का समाधान है हमारी कार, जिसे चलाओगे तुम, लेकिन जिसकी देखभाल करने और टंकी फुल रखने का काम हम सुधीर को सौंप जाएँगे। हमारी अनुपस्थिति में घर का खर्च अम्मा चलाएँगी और गाड़ी पर होने वाला खर्च उसमें शामिल है…।”

“लेकिन मेरी बात तो सुनो, शेखर!”

“सुनूँगा, लेकिन पहले तुम्हारी तीसरी संभावित आपत्ति की बात कर लूँ। तुम कहोगे कि तुमने अपना घर-परिवार छोड़कर, शादी कभी न करने का पक्का विचार बनाकर, पूरी आजादी के साथ जिदगी भर अकेले रहने का फैसला किया है। इस पर हमें यह कहना है कि तुम अपने फैसले पर कायम रहो। अपना बेडरूम हम तुम्हें दे जाएँगे। उसमें तुम जैसे चाहो, वैसे रहो। तुम्हारी दिनचर्या जैसी है, वैसी ही रखो। यहाँ भी तुम्हें पूरी आजादी रहेगी।”

कुमार साहब ने फिर कुछ कहने के लिए मुँह खोला, तो भाईसाहब ने उन्हें रोककर हँसते-हँसते कहा, “यहाँ रहकर अपनी आजादी सुरक्षित रखने के साथ-साथ तुम एक आकस्मिक लाभ की आशा भी रख सकते हो। वह यह कि तीन साल तक अपना एकांतवास छोड़कर घर-परिवार में रहने से हो सकता है कि तुम भी हमारी तरह मनुष्य नामक सामाजिक प्राणी बन जाओ!”

यह सुनकर मैं ही नहीं हँसा, कुमार साहब भी हँस पड़े। और हँसी-हँसी में ही तय हो गया कि भाईसाहब और भाभी की अनुपस्थिति में कुमार साहब यहीं रहेंगे।

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लेकिन कुमार साहब का यहाँ आकर रहना कोई सामान्य घटना नहीं थी। मैं जिस तरह लखनऊ से आकर यहाँ आराम से एडजस्ट हो गया था, कुमार साहब नहीं हो पाए। भाभी और भाईसाहब के बेडरूम को अपना बनाने के लिए उन्होंने उसमें कई परिवर्तन किए, क्योंकि उनके अनुसार वहाँ “हर तरफ जया और शेखर ही छाए हुए” थे। सबसे पहले उन्होंने भाभी और भाईसाहब की तस्वीरें हटवाई। कावेरी ने डबल बेड पर ओढ़ने-बिछाने की चादरें और तकियों के गिलाफ बदल दिए थे, लेकिन कुमार साहब ने अपने लिए नए गद्दे, नई चादरें और नए गिलाफ खरीदे। अलमारी में भाभी और भाईसाहब की जो चीजें रखी थीं, सब निकलवाकर उनकी जगह अपनी चीजें जमाई। बेड, टेबल लैंप, ड्रेसिंग टेबल वगैरह की जगहें बदलवाई। दरवाजे और खिड़कियों पर अपनी पसंद के नए परदे लगवाए। रेडियो और टी.वी. तो नए नहीं लाए, पर उनकी भी जगहें बदलीं। कमरे से अटैच्ड बाथरूम में भी कई चीजें बदलवाई, कई चीजें हटवाई, कई चीजें नई रखवाई। वहाँ से हटवाई गई चीजें कुछ ताई के कमरे में गई, कुछ कावेरी के कमरे में गई और कुछ मेरे कमरे में आई।

वे तो पूरे घर का ही नक्शा बदल देना चाहते थे, लेकिन कावेरी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। उन्हें बुरा लगा और उन्होंने ताई से कावेरी की शिकायत की, “अम्मा जी, यह नौकरानी है या घर की मालकिन?”

ताई बहुत व्यवहारकुशल हैं। हँसकर बोलीं, “आजकल नौकर-नौकर कहाँ होते हैं, बेटा! उनके बिना लोगों का काम नहीं चलता, इसलिए वे मालिकों के मालिक बनकर अपनी मरजी चलाते हैं। वैसे देखो तो यह ठीक भी है। मैं कहने को इस घर की मालकिन हूँ, लेकिन यह लड़की सारे दिन मुझ पर हुकुम चलाती है – अम्माजी, अब उठ जाओ, अब चाय पी लो, अब नहा लो, अब नाश्ता कर लो, अब दवा ले लो, अब खाना खा लो, अब सो जाओ। तो बोलो, मालकिन कौन है?”

कुमार साहब ताई के सामने निरुत्तर हो गए, लेकिन शाम को उन्होंने मुझे अपना हमप्याला बनाकर अपने साथ बिठाया और कावेरी के विरुद्ध शिकायतों का पिटारा खोल दिया। बोले, “यार, सुधीर, मुझसे तो यहाँ नहीं रहा जाएगा। यहाँ तो हर तरफ शेखर ही शेखर छाया हुआ है। हर समय उसी की बातें होती हैं। लगता है, जैसे वह तो लंदन जाकर भी यहीं है और मैं यहाँ आकर भी कहीं नहीं हूँ! अम्मा जी तो चलो, उसकी माँ हैं, उसकी बात करेंगी ही; लेकिन यह कावेरी? यह क्यों दिन-रात उसका गुणगान करती रहती है? साहब कितने बड़े आदमी हैं और फिर भी कितने अच्छे! कभी डाँटते नहीं, फटकारते नहीं। दूसरों को कामों में कमियाँ और गलतियाँ बताना तो जैसे जानते ही नहीं। हमेशा दूसरों की तारीफ ही करते हैं। खुद भी खुश रहते हैं, दूसरों को भी खुश रखते हैं।”

मैंने हँसकर, ताकि उनको बुरा न लगे, उनसे कहा, “क्या आपको भाईसाहब से ईर्ष्या होती है?”

“नहीं यार! शेखर से मुझे ईर्ष्या क्यों होगी? वह तो मेरा सबसे प्यारा दोस्त है। लेकिन यह कावेरी हर समय उससे मेरी तुलना करे, यह मुझे पसंद नहीं। वह शेखर का हवाला दिए बिना कोई बात ही नहीं करती। उसके खयाल से मेरा हर काम शेखर का-सा होना चाहिए, मेरी हर चीज शेखर की-सी होनी चाहिए। मुझे कब सोकर उठना चाहिए, कब नहाना चाहिए, कब नाश्ता करना चाहिए, कब दफ्तर जाना चाहिए, कब वापस आना चाहिए-यह सब तो शेखर का उदाहरण देकर बताती ही है, यह भी बताती है कि मेरा खाना, मेरे कपड़े, मेरे जूते, मेरा साबुन, मेरा तेल, मेरा तौलिया, यहाँ तक कि मेरा जाँघिया-बनियान भी सब उसके साहब का-सा होना चाहिए। वह कौन होती है मुझे यह सब बताने वाली? नौकरानी है, तो नौकरानी की तरह रहे!”

कुमार साहब ये बातें काफी गुस्से में कह रहे थे और मुझे उनका गुस्सा बेवजह और बेकार लग रहा था। मैंने उनका मूड ठीक करने के लिए कहा, “इसे इस तरह देखिए, कुमार साहब, कि वह आपका कितना खयाल रखती है! दरअसल वह बरसों से यहाँ काम कर रही है, इस घर को और इस घर के लोगों को अपना-सा समझती है। मुझे भी यहाँ आए ज्यादा दिन नहीं हुए, पर इतने ही दिनों में वह, उम्र में मुझसे इतनी छोटी होकर भी, बड़ी बहन का-सा बरताव करती है। आदेश भी देती है – सुधीर भैया, जरा यह कर दो; सुधीर भैया, जरा वह कर दो!”

“लेकिन मैं आजाद पंछी हूँ। अपनी मरजी का मालिक। फिर, मैं जैसा हूँ, वैसा हूँ। किसी और जैसा कैसे बन सकता हूँ? यह लड़की क्यों मुझे हर मामले में शेखर जैसा देखना चाहती है? शेखर मुझसे कह गया है कि मैं यहाँ जैसे चाहूँ, वैसे रह सकता हूँ। मैं अपनी दिनचर्या जैसी है, वैसी ही रख सकता हूँ। यहाँ भी पूरी आजादी के साथ रह सकता हूँ।”

“हाँ, तो रहिए न!” मैंने कहा और कहने के साथ ही मुझे एहसास हुआ कि मेरे स्वर में थोड़ी झुँझलाहट झलकी है, इसलिए फिर हँसकर बोला, “आपने अपना कमरा तो एकदम अपने ढंग से सेट कर ही लिया है, बाकी सब काम भी आप अपने ढंग से ही करते हैं।”

“यही तो दिक्कत है!” कुमार साहब ने मुझे तौलती-सी नजर से देखा, जैसे समझने की कोशिश कर रहे हों कि मैं उनके पक्ष में हूँ या कावेरी के पक्ष में। फिर मानो मुझे अपने पक्ष में मानकर बोले, “मैं अपने कमरे में भी अपने ढंग से नहीं रह पाता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं अपना कमरा जैसा छोड़कर जाऊँ, लौटकर आने पर मुझे वैसा ही मिले। मगर वह कमरे की सफाई करने के नाम पर मेरी सब चीजें उलट-पलट कर देती है। शिकायत करता हूँ, तो कहती है – साहब इन चीजों को ऐसे ही रखते थे और ये ऐसे ही ठीक लगती हैं! मुझे क्या ठीक लगता है, इससे उसे कोई मतलब नहीं!”

“तो आप उससे कह दीजिए कि वह आपके कमरे में न आया करे। या कमरे में ताला लगाकर जाया कीजिए। कमरे की सफाई आप खुद ही कर लिया कीजिए!” दबाते-दबाते भी मेरी खीज मेरे स्वर में उभर ही आई।

“कैसी बातें करते हो, यार! क्या यह घर, यह कमरा, मेरा अपना है? क्या मैं यहाँ अकेला रहता हूँ? मैं तो केवल यह चाहता हूँ कि मुझे अपने ढंग से रहने दिया जाए।”

“ठीक है, मैं कावेरी को समझा दूँगा।” मैंने कहा और अपना पहला ही पैग खत्म करके अपने कमरे में चला आया।

आगे की कहानी सुनाने से पहले इस मकान के बारे में कुछ बातें बता देना जरूरी है। यह दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी में बनी इकमंजिली कोठी है। बाहर वाले गेट से इसमें प्रवेश करने पर एक सीधा रास्ता कोठी के अग्रभाग में बने बरामदे तक जाता है। रास्ते के इधर-उधर दोनों तरफ लॉन है और बाउंड्री वॉल के सहारे फूलों और सब्जियों की क्यारियाँ। आम और अमरूद के कुछ पेड़ हैं और नीबू के कई झाड़। बोगनवेलिया की झाड़ियाँ मेन गेट वाली दीवार के पास हैं, जिनकी सफेद और गुलाबी लतरें बाहर की ओर फैली रहती हैं। लॉन और बगीचे की देखभाल करने के लिए माली रोज आता है। पानी देता है, निराई-गुड़ाई करता है और उपलब्ध फल-सब्जियाँ भीतर आकर कावेरी को दे जाता है।

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लेकिन बगीचे के फलदार पेड़ एक समस्या भी हैं। उन पर तोतों और गिलहरियों की दावतें तो होती ही रहती हैं, कभी-कभी बंदरों के झुंड भी आ जाते हैं। उन्हें भगाने के लिए आँगन के एक कोने में एक लंबा बाँस और एक मोटा डंडा हमेशा रखा रहता है। बंदरों को भगाने का काम कभी कावेरी अकेले करती है, कभी मुझे भी करना पड़ता है।

बाहर वाला बरामदा काफी बड़ा है। आगंतुकों के लिए वहाँ बेंत की कुर्सियाँ हैं और ऊपर सीलिंग फैन। मिलने या किसी काम से आने वालों को वहीं बिठाकर, जरूरी हुआ तो चाय-पानी पिलाकर, वहीं से विदा कर दिया जाता है।

अंदर पक्के संगमरमरी फर्श वाला आँगन है, जिसके बाद अंदर वाला लंबा बरामदा है। बरामदे के दोनों छोरों पर एक-एक छोटा कमरा है और बीच में तीन बड़े कमरे हैं – बाएँ ओर ताई का कमरा, बीच में बड़ा ड्राइंग-कम-डाइनिंग रूम, और दाएँ ओर भाभी-भाईसाहब का बेडरूम, जिसमें आजकल कुमार साहब रहते हैं। सुबह का नाश्ता, शाम की चाय और रात का खाना सबका एक साथ ड्राइंग-कम-डाइनिंग रूम में होता है, जो बैठक या बीच वाला कमरा कहलाता है। बाएँ ओर के ताई वाले कमरे के बाहर जो छोटा कमरा है, उसमें मैं रहता हूँ और दाएँ ओर के बेडरूम के पास वाले छोटे कमरे में कावेरी रहती है। उधर ही, कावेरी के कमरे के पास किचेन है, जिसका दरवाजा आँगन में खुलता है। इधर मेरे वाले छोटे कमरे की तरफ लेट्रीन-बाथरूम है। तीनों बड़े कमरों में अटैच्ड बाथरूम हैं, लेकिन मैं और कावेरी बाहर वाले साझे लैट्रीन-बाथरूम का इस्तेमाल करते हैं। कावेरी को वहाँ जाने के लिए पूरा आँगन पार करना पड़ता है। धूप और बारिश से बचने के लिए वह मेरे कमरे तक पूरा बरामदा पार करके इस तरफ आती है। ऐसे ही मुझे किसी काम से किचेन में जाना होता है, तो मुझे भी कावेरी के कमरे तक पूरा बरामदा पार करना पड़ता है।

मेरा और कावेरी का कमरा ऐन आमने-सामने है। हम दोनों के कमरों की एक-एक खिड़की बरामदे में खुलती है। एक-दूसरे के कमरे में जलती-बुझती बत्ती से हमें पता चल जाता है कि दूसरा कब तक जागा और कब सोया। मैं खाना खाकर अपने कमरे में आ जाता हूँ, लेकिन मुझे जल्दी नींद नहीं आती। रात को देर तक उपन्यास पढ़ता रहता हूँ। कावेरी सबको खाना खिलाकर और खुद भी खाकर किचेन के काम निपटाने के बाद लगभग ग्यारह बजे अपने कमरे में जाती है और थोड़ी ही देर में बत्ती बुझाकर सो जाती है। अजीब-सी बात है कि उसके बाद चाहे ताई के कमरे की या कुमार साहब के कमरे की बत्ती जलती रहे, मुझे नींद आ जाती है। मानो मेरी नींद आने से पहले कावेरी के सो जाने का इंतजार करती रहती हो।

लेकिन इसका मतलब आप कुछ ऐसा-वैसा न लगाए। कावेरी मजबूत कद-काठी की, साँवली, किंतु सुंदर लड़की है। हँसमुख, कार्य कुशल और व्यवहारकुशल। कहने को वह इस घर की नौकरानी है, लेकिन वास्तव में वही मालकिन है। भाभी और भाईसाहब के लंदन जाने के बाद से घर की पूरी जिम्मेदारी उसने बखूबी सँभाल ली है।

ताई को क्या करना है, स्वस्थ रहने के लिए क्या खाना है, क्या नहीं खाना है; कब सोना है, कब जागना है, इत्यादि वही बताती है। कुमार साहब को कब सोकर उठना है, कब चाय पीनी है, कब नाश्ता करना है, कब रात का खाना खाना है और कब सो जाना है, अपने दफ्तर से लौटते समय बाजार से क्या-क्या लेते हुए आना है, ताई को कब-किस डॉक्टर के पास इलाज या चेकअप के लिए ले जाना है, इत्यादि भी कावेरी ही बताती है।

और मुझे तो वह किसी गिनती में लेती ही नहीं। मैं लेट्रीन में बैठा हूँ और उसे जाना है, तो बेझिझक दरवाजा पीटकर कहेगी, “जल्दी निकलो, मुझे जोर की लगी है।” बाजार से कुछ मँगवाना होगा, तो पैसे पकड़ाकर चीज का नाम बताते हुए कहेगी, “जाओ, दौड़कर ले आओ।” कपड़े धोते समय अगर मैं घर में दिख गया, तो बुलाकर आदेश दे देगी, “सुधीर भैया, ये कपड़े उठाकर तार पर डाल दो।” उसके घने और लंबे बाल उलझ जाएँगे, तो कंघी मुझे पकड़ाकर सामने खड़ी हो जाएगी, “अच्छी तरह सुलझाना, एक भी बाल टूटा, तो तुम्हारे सिर के सारे बाल उखाड़ लूँगी!”

एक दिन तो उसने गजब ही कर दिया। बाथरूम से नहाकर निकली और आँगन में से ही मुझे पुकारने लगी। मैंने अपने कमरे से निकलकर देखा कि वह बालों को सिर पर जूड़ी की तरह लपेटे हुए, वक्ष को तौलिए से ढँके हुए, नीचे सिर्फ पेटीकोट पहने हुए खड़ी है। मुझे देख मेरे पास आई और मेरी ओर पीठ करके बोली, “जरा हुक लगा दो, मुझसे लग नहीं रहा।” मेरी तो हालत खराब! ताई या कुमार साहब ने देख लिया, तो क्या सोचेंगे? क्या कहेंगे? लेकिन उसके आदेश का पालन तो करना ही था। मैंने काँपते हाथों से हुक लगा दिया और वह “थैंक यू” कहकर अपने कमरे की तरफ दौड़ गई।

शाम को मुझे पता चला कि ठीक उसी समय कुमार साहब किसी काम से अपने कमरे के दरवाजे पर आए थे और उन्होंने यह दृश्य देख लिया था।

जिस दिन उन्होंने कावेरी की शिकायतें की थीं और मैंने झुँझलाकर कह दिया था कि ठीक है, मैं कावेरी को समझा दूँगा, उस दिन के बाद से मैंने शाम को उनका हमप्याला बनकर उनके पास बैठना बंद कर दिया था। लेकिन उस शाम वे मेरे कमरे में आए और आग्रह करके मुझे अपने कमरे में ले गए। कावेरी को बुलाकर उन्होंने पीने का सामान छोटी मेज पर सजवाया और जब तक वह पीने और खाने की चीजें ला-लाकर रखती रही, वे उससे कुछ छिछोरे किस्म के मजाक करते रहे, जैसे, “कावेरी, तुम्हारी यह स्कर्ट नई है क्या? तुम पर बहुत फब रही है।” या “कावेरी, क्रिश्चियन लड़कियाँ तो शराब पीती हैं, तुम नहीं पीतीं?” कावेरी हमेशा की तरह हँसकर कभी “थैंक यू” तो कभी ”सॉरी” कहती रही। लेकिन एक बार उसने मेरी तरफ ऐसे देखा, जैसे पूछ रही हो – “आज इन्हें क्या हुआ है?”

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कावेरी सलाद वगैरह देकर चली गई, तो कुमार साहब ने “चीयर्स” करते हुए व्हिस्की का लंबा घूँट भरा, सिगरेट सुलगाकर ढेर-सा धुआँ उड़ाया और मुझसे पूछा, “कबसे शुरू हुआ?”

“क्या?” मैं समझा नहीं।

“जो भी हो, भाई, सवेरे का सीन देखकर मजा आ गया!” कुमार साहब ने एक अश्लील मुस्कराहट के साथ कहा, “हुक-वुक लगाने का काम कब से चल रहा है?”

बात समझ में आते ही मेरा सारा शरीर झनझना गया। मुझे उन पर ऐसा क्रोध आया कि उठकर एक झापड़ मारूँ या व्हिस्की से भरा गिलास मारकर उनका सिर फोड़ दूँ। लेकिन मैं सँभल गया। ताई को पता चला, तो क्या हाल करेंगी वे मेरा? और मुझ से भी ज्यादा कावेरी का!

“जैसा आप सोच रहे हैं, कुमार साहब, वैसा कुछ नहीं है। कावेरी जैसी बिंदास लड़की के लिए यह बेहद मामूली बात है।”

“हाँ, ऐसी लड़कियों के लिए ये बातें मामूली ही होती हैं। ये उस काम को भी काम ही समझती हैं। इनको पैसा दो और वह काम ले लो। मैं कई लड़कियों से ले चुका हूँ।”

“एक्सक्यूज मी।” मैंने “शटअप” की तरह कहा और अपने कमरे में चला आया।

रात को कावेरी ने बीच वाले कमरे में खाना मेज पर लगाकर बुलाया, तो ताई और मैं अपने-अपने कमरे से निकलकर खाना खाने पहुँच गए और कुमार साहब की प्रतीक्षा करने लगे। कावेरी उन्हें बुलाने गई, तो उन्होंने उससे कहा कि वह उनका खाना उनके कमरे में ही दे जाए। कावेरी आकर उनके लिए प्लेट में खाना रखने लगी, तो ताई ने पूछा, “कुमार क्यों नहीं आ रहा है? उसकी तबियत ठीक नहीं है?”

“पता नहीं।” कावेरी ने मुँह बिचका दिया, “तबियत तो ठीक ही लग रही है।”

“ठीक है, आज ले जा, लेकिन आइंदा के लिए उससे कह दे कि यह घर है, होटल नहीं है, यहाँ रात का खाना सब साथ बैठकर खाते हैं।”

कावेरी खाना देकर लौटी, तो उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। लेकिन उसने अपने-आप को सँभाल लिया और रसोईघर में जाकर हम लोगों के लिए रोटियाँ बनाने लगी, ला-लाकर परोसने लगी। बीच में वह कुमार साहब के लिए रोटियाँ लेकर गई, तो उनके बर्तन लिए हुए लौटी। उन्होंने या तो खाना खाया ही नहीं था या बहुत कम खाया था। ताई और मैं खा चुके, तो उसने मेज साफ की और खुद खाने बैठ गई। उसे वहीं छोड़ ताई अपने कमरे में चली गई, मैं अपने कमरे में चला आया।

रात को सोने से पहले, जब तक नींद न आए, मुझे उपन्यास पढ़ते रहने की आदत है। उस रात भी मैं बिस्तर पर लेटकर पढ़ने लगा। सामने की खिड़की से कावेरी के कमरे की खिड़की दिखाई दे रही थी। किचेन का काम निपटाकर कावेरी अपने कमरे में घुसी, तो मैंने दो नई चीजें नोट कींरू एक, उसने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद नहीं किया। दूसरे, उसके हाथ में वह डंडा था, जो बगीचे के पेड़ों पर से बंदर भगाने के काम आता था और उसके बाद आँगन के एक कोने में दीवार के साथ टिकाकर छोड़ दिया जाता था।

मुझे अनिष्ट की-सी आशंका हुई। मैंने कावेरी के पास जाकर पूछना चाहा कि मामला क्या है, लेकिन रात में उसके कमरे में जाना मुझे उचित नहीं लगा।

कावेरी के कमरे की बत्ती बुझ गई, तो मैं भी अपने कमरे की बत्ती बुझाकर लेट गया। बड़ी देर तक अँधेरे में जागता हुआ मैं खिड़की से बाहर देखता रहा। फिर न जाने कब मुझे नींद आ गई।

अचानक एक चीख सुनकर मेरी आँख खुली। मैं उछलकर उठा, बत्ती जलाई और अपने कमरे से बाहर निकल आया। कावेरी के कमरे में अँधेरा था, लेकिन मैंने बरामदे में कुमार साहब को अपना सिर दोनों हाथों से पकड़े और अपने कमरे की ओर भागते देखा। अंदर जाकर उन्होंने दरवाजा बंद किया, बत्ती जलाई और तत्काल बुझा दी। कावेरी के कमरे में अब भी अँधेरा था और कोई हलचल नहीं थी।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ा था कि अचानक ताई अपने कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर निकलीं और मुझे देखकर बोलीं, “क्या बात है, सुधीर? यह चीख किसकी थी?”

“पता नहीं, मैं भी चीख सुनकर ही जागा हूँ।”

“आ मेरे साथ, कावेरी को तो कुछ नहीं हो गया।”

हमने कावेरी के कमरे की तरफ कदम बढ़ाए ही थे कि उसके कमरे की बत्ती जल उठी। कावेरी दौड़ती हुई आई और ताई से लिपटकर रोने लगी। रोते-रोते उसने बताया कि शाम को जब वह कुमार साहब के कमरे में उनका खाना लेकर गई थी, उन्होंने कहा था कि रात को अपना कमरा खुला रखना और…”

“तुझे उसी समय मुझे यह बात बतानी चाहिए थी।”

“मैं उनकी शिकायत कैसे करती? वे साहब के दोस्त हैं और साहब उनको हमारी हिफाजत के लिए यहाँ रख गए हैं। सो मैंने अपने कमरे का दरवाजा तो खुला रखा, लेकिन अपनी हिफाजत का इंतजाम कर लिया था।”

मैं समझ गया, वह डंडे की बात कर रही थी।

“तो तू चीखी क्यों?”

“मैं कहाँ चीखी?”

मैं समझ गया कि कुमार साहब ने दोनों हाथों से अपना सिर क्यों पकड़ रखा था।

“तूने मारा उसे? बहुत अच्छा किया। चल, अब तू निश्चित होकर सो जा, मैं सब देख लूँगी।” ताई कावेरी को अपने से लिपटाए-चिपटाए उसके कमरे तक ले गई। उसे चुप कराया। खुद अपने हाथ से उसे पानी पिलाया और जब तक वह अपना कमरा अंदर से बंद करके बत्ती बुझाकर लेट नहीं गई, खिड़की से उसे देखती रहीं।

मेरे साथ अपने कमरे की तरफ लौटते हुए वे कुमार साहब के कमरे के दरवाजे पर ठिठकीं, कुंडा बाहर से बंद किया और जोर से बोलीं, “नीच, नालायक, अपना सामान पैक कर ले। यह कुंडा तभी खुलेगा, जब तू इस घर से जाने के लिए निकलेगा।”

फिर वे मुझसे बोलीं, “शेखर इसे मेरा ध्यान रखने के लिए यहाँ रख गया था और मुझसे कह गया था कि मैं इसका ध्यान रखूँ, ताकि यह इकलखोरा तीन साल में इनसान बन जाए। लेकिन यह तो जानवर है। यह किसी का क्या ध्यान रखेगा! अरे, कावेरी है, तू है, और मैं भी चाहे बीमार हूँ, पर अभी मरने वाली नहीं। हम अपना ध्यान खुद ही रख लेंगे।”

ताई धीमे और शांत स्वर में बोल रही थीं, लेकिन मुझे लगा, वे अपनी बातें जोर से चीखते हुए कह रही हैं और वह चीख लंदन तक सुनाई दे रही होगी।

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चीख – Cheekh

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