चना
चना

चने को कई तरह से खाया जा सकता है। यहाँ में देशी काले चने की बात करुँगा। पहला तरीका है कि चने को भिगोकर और अंकुरित करके नाश्ते में खाना। दूसरा तरीका जो ज्यादा प्रचलित है वह है भुने (रोस्टेड) चने को छिलके सहित अच्छी तरह चबाकर खाना। इस तरीके में आपको चने को गलाने और अंकुरित करने के झंझट से मुक्ति मिलती है।

बाजार से भड़भूँजे से भुने हुए चने लाकर एक एअरटाइट डिब्बे में रख लीजिए और इसे शाम को दोनों भोजनों के बीच में स्नैक के तौर पर एक या दो मुठ्ठी (50–75 ग्राम) अच्छी तरह चबाकर रोज खाईये। एक सप्ताह में ही आपको बहुत से फायदे दिखेंगे। जैसे –

  • कब्ज से राहत क्योंकि छिलके सहित चने में फाइबर होता है।
  • आयरन होता है इसलिए एनीमिया में स्त्रियों के लिए बहुत ही फायदेमंद।
  • प्रिगनेन्ट महिलाओं के लिए भी फायदेमंद है क्यों कि यह आयरन का एक बहुत अच्छा स्त्रोत है।
  • इसमें प्रोटीन होता है तो डैमेज्ड मसल्स को रिपेयर करके कमर दर्द से भी मुक्ति दिलाता है।
  • मोटापा भी धीरे-धीरे कम होता है, लेकिन नियमित प्रयोग कीजिए। इसमें फैट न के बराबर होगा क्यों कि भुना हुआ है।
  • कार्बोहाइड्रेट कम मात्रा में होता है इसलिए ब्लड शुगर को भी नियंत्रित करता है।
  • नपुंसकता को भी धीरे-धीरे दूर करता है।
  • शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
  • रात में ज्यादा यूरिन जाने की समस्या हो तो भुने चने को गुड़ के साथ खायें आपको राहत मिलेगी।
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मैंने ये सारे पाइंट नीचे दिए गए लिंकों को पढ़कर अपनी भाषा में लिखें हैं। आप सभी कृपया ये लिंक पढ़ें ये हिंदी में ही हैं और अच्छे न्यूट्रीशियनों द्वारा लिखे गए ब्लाग हैं।

मैं आजकल पिछले 1–2 माह से भुने चने का सेवन कर रहा हूँ। नमकीन सेव, मिक्शचर, भुजिया, बिस्किट जैसे स्नैक बिलकुल नहीं लेता। भुने चने में हल्का नमक लगा ही होता है। कभी स्वाद बढ़ाने के लिए नीबू का रस टमाटर, और चाट मसाला डाल कर भी खा सकते हैं।

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पुराने समय यानि आज से 50–60 वर्ष पहले जब हमारे बुजुर्ग लोग देशाटन के लिए निकलते थे तो वो भुने चने, मुरमुरे (चने की लाई), मूँगफली आदि अपने साथ रखते थे। और घर के बनाए हुए देशी पकवान जैसे बेसन की बर्फी, आटे की मठरी, मूँगफली की गजक आदि रेडीमेड चीजें रखते थे। साथ ही खाना बनाने का सारा सामान ले कर चलते थे। जहाँ मौका मिला लकड़ी जलाकर रोटी या वाटी और दाल, सब्जी, भर्ता बना लेते थे।

मैंने अपने नाना जी और नानी जी को 1960–70 के दसक में उत्तराखंड के चारोंधाम इसी तरह करते हुए देखा है। जब वह यात्रा से लौटे तो मैं उनसे उनकी यात्रा का सारा विवरण सुनता था। उस समय मैं 10–12 वर्ष का रहा होऊँगा। उन्होंने जिन्दगीं भर यह नियम निभाया कि, “कै हाथ की, कै जात की।” इसका अर्थ है कि रोटी या तो खुद के हाथ की बनी खायेंगे या अपनी जाति के किसी के हाथ की बनी खायेंगे। पुराने ज्यादातर लोग यह नियम निभाते थे, होटल में बिलकुल नहीं खाते थे। आज यह कुछ अनुचित लगेगा और आज यह सम्भव भी नहीं है। खाना जैसे हाथ से और जैसी कमाई से बना हो इसका बहुत असर पड़ता है; इस बारे में पुराने लोगों ने कई कहानियाँँ पढ़ी सुनी होंगी। और उनमें तत्व है, आप चाहे माने या न माने।

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