चंबल एक नदी का नाम | नरेश सक्सेना
चंबल एक नदी का नाम | नरेश सक्सेना

चंबल एक नदी का नाम | नरेश सक्सेना

एक

यह महाराजा रंतिदेव के अग्निहोत्र में
काटी गई सहस्त्रों गायों और बछड़ों के
बहे खून से बनी नदी
यह वेद व्यास के शांतिपर्व से निकली
एक अशांत नदी

बेईमान शकुनी ने अपने पाँसे फेंके यहीं
संपत्ति और सिक्कों के बदले
पत्नी हारी गई यहीं
फिर पाँचो पतियों और पितामह की सहमति से
सबने उसके वस्त्र उतरते देखे
यह उसके आहत वचनों से
अभिशप्त नदी

चंबल के तट तीर्थ नहीं,
प्राचीन सभ्यताओं का कोई नगर
न मेले पर्व तीज त्योहार
न पूजन हवन न मंत्रोच्चार
भयानक भायँ भायँ सन्नाटा भरी
कटी फटी विकराल कंदराएँ चंबल के आर-पार
क्षत विक्षत कर डाली हो जैसे
खुद अपनी ही देह किसी विक्षिप्त स्त्री ने सहसा धीरज खो कर,
टेंटी, करील, झरबेरी और बबूलों के जंगल में
उड़ती हू-हू करती रेत और सदियों का हाहाकार

चंबल के तट तीर्थ नहीं हैं
उसके बारे में प्रसिद्ध है

दरस करे तो रागी होय
परस करे तो बागी होय
करे आचमन मूड़ सिराये
चंबल तो बड़ भागी होय

दो

यमुना, गंगा, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनंदा
यह तो लड़कियों के नाम हैं
चंबल नही है किसी लड़की का नाम

जबकि, चंबल वह अकेली और अभागी नदी है
जो पुराणों में वर्णित अपने स्वरूप को
आज तक कर रही है सार्थक,
चंबल में पानी नहीं खून बहता है,
चंबल में मछलियाँ नहीं लाशें तैरती हैं
चंबल प्रतिशोध की नदी है
और वह कौन सी लड़की है
जो प्रतिशोध और खून से भरी नहीं है
और जिसमें लाशें नहीं तैरतीं,
फिर भी शारदा, सई क्षिप्रा, कालिंदी तो – लड़कियों के नाम हैं
चंबल नहीं है किसी लड़की का नाम

और वे नदियाँ
जिनके नामों पर रखे गए लड़कियों के नाम
और जो स्वर्ग से उतरीं थीं, धरती पर हमें तारनें
आज खुद अपने तारे जाने के लिए तरस रही हैं
भक्तों के मलमूत्र से
वमन और विष्ठा और बलगम से भर कर
वे हो गई हैं कुंभी पाक,
लेकिन उसी मलमूत्र और वमन और विष्ठा से
दिया जा रहा सूर्य को अर्ध्य
ओम् भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर वरेण्यम…।

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चंबल पर कब्जे के लिए हुए
देवों और दानवों में युद्ध इस कदर
कि रक्त और चर्म से भर कर वह कहलाई चर्मणवती, चर्मवती
यानी चाम वाली चंबल
आज जबकि बाजार आमादा है,
हर माता को चर्मवती बना देने के लिए
और कुछ अभागिनों को तो बना ही दिया जाता है चर्मवती

फिर भी
कल्याणी, सिंधु और जान्हवी
भागीरथी, सोन रेखा, नर्मदा, सरयू-मंदाकिनी
तो लड़कियों के नाम हैं,
चंबल नही है किसी लड़की का नाम

देखो कितनी सारी नदियों के तो नाम ही नहीं आए
उन करोड़ो करोड़ नदियों के नाम
जो सुखा दी गई स्रोत पर ही, रह गई अनाम

याद करो वह नदी
जो इतिहास में तो है, भूगोल में नहीं है
वह विद्या और बुद्धि की नदी, सरस्वती
तो शायद शर्म से ही धरती में समा गई
वह गोया, अब अपनी कब्र में ही बहती है
चंबल की बेटियों के नाम हुए,
फूलन देवी, कुसुमा नाइन, गुल्लो बेड़िन
फूल, कुसुम और गुल,
लेकिन फूलों के नाम वाली ये बेटियाँ फूल नहीं थीं
फूलों को नंगा नहीं किया जाता,
झोंटा पकड़ कर घसीटा नहीं जाता
फूलों को जलती हुई बीड़ियों से दागा नहीं जाता

कोमल अंगों में मिर्ची भर कर
कबुलवाया नहीं जाता कि
वे डायनें हैं
शिशुओं के नर्म कलेजे चाट-चाट कर खाती हैं
वे ही लाती हैं बाढ़ महामारी, अकाल, दुर्भाग्य
मुकदमें वे ही हरवाती हैं

हाथ डुबोए गए खौलते हुए तेल में
और फफोले पड़ते ही अपराध सिद्ध हो गए
गिद्ध हो गए पंच परमेश्वर
और सभी जन
कांकर, पाथर, चिरई, कूकुर, भेड़ हो गए
घास हो गए, पेड़ हो गए
फूलो के मुँह से निकली कुछ बुदबुद पर चिल्लाया ओझा
लो सुन लो, इसने स्वयं कुबूला अपना डायन होना
अब ये मेरे हाथों मुक्ति चाहती है

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चौदह की या पंद्रह की, गुल्लो बेड़िन ने जब देखा
पूरी पंचायत हत्यारी है
और अगली उसकी बारी है
तो जान बचा कर भागी

कुछ कहते गुल्लो नागिन थी
कुछ कहते बस, नाचने वाली बैरागिन थी
कैसी दागी, कैसी बागी
कहते हैं डाकू लाखन ने पीछे से
और पुलिस ने उसके सीने पर गोली दागी

उस पर ना कोई लेख
न ही अभिलेखों में उल्लेख
पुलिस का कहना है, किंवदंती है
आज भी किंतु, गोहद बेसली नदी वाली
राहों से राही बचते हैं
कहते हैं सारी रात वहाँ गुल्लो के घुँघरू बजते हैं

धूप में पजर कर
जब फूलों के तलवों में पड़ गईं बिवाइयाँ
ओठों पर पपड़ियाँ, चेहरों पर झाइयाँ
बाल जटा जूट, सूजी हुई पलकें, सूजे हुए पाँव
नींद से भरी आखें लाल
और झुलसी हुई खाल
इस तरह
जब उनकी सारी कोमलता को कर दिया नष्ट
और रूह को कुरूप
तब कहा
”ये हैं दस्यु सुंदरियाँ”

कुत्तों और सियारों के रोने की आवाजों में
उनके रोने की आवाज
तेज आँधियों में चट्टानों से टकरा
बहते पानी में होती उनके होने की आवाज

पछुआ चले तो पच्छिम से आती है
उनके रोने की आवाज
और पुरवा चले तो पूरब से आती है उनके रोने की आवाज
और जब किसी दिशा में चलती नहीं हवाएँ
होती है सायँ सायँ
तब लोग समझ लेते हैं
यह उनकी बेहोशी की आवाज
गर्दन तक चलती हुई छुरी की खिस्स खिस्स
शामिल होती कीर्तन के ढोल धमाकों में

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने
अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब
पिलाई अपने बलात्कारियों को
और पेड़ों से बाँध कर
उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए

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फूल कैसे हुए पत्थर
और पत्थर कैसे हुए रेत
यह फूलों के रेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के खेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के प्रेत हो जाने की कथा है

तीन

चंबल का स्रोत खोजने मत जाना
स्रोत खोजते हुए कहीं तुम अपने
घर तक ही न पहुँच जाओ
और देखो
कि चंबल वहीं से निकल रही है
निकल चुकी है
या बस, निकलने वाली है।

सूर्य डूबने के साथ ही जैसे
लड़कियों का आकाश भी डूब जाता है
जैसे जैसे छायाएँ सिमटती हैं
लड़कियों की जगहें भी सिमटना शुरू हो जाती हैं
अँधेरा दाखिल हो उससे पहले ही
उन्हें दाखिल हो जाना चाहिए
अपने घरों के प्राचीन अंधकार में

लेकिन एक शाम
जब गायें खूँटों की तरफ
बकरियाँ बाड़ों की तरफ
और मुर्गियाँ दड़बों की तरफ हाँकी जा रही थीं
तीन बहनें निकलीं घर के बाहर
तालाब में डूबने
बड़की बोली पहले मैं डूबूँगी
क्योंकि छुटकी को डूबते हुए देख नहीं पाऊँगी
तो छुटकी बोली
जिज्जी, तुम नही रहोगी
तो अकेले मुझे डूबते हुए कितना डर लगेगा
सुनकर मझली ने छुटकी को चिपटा लिया
और बोली – हम तीनों बहनें एक साथ डूबेंगी

छुटकी बोली,
मझली, जब तेरी कमर तक पानी आएगा
तो मेरे सिर तक आ जाएगा
एक साथ कैसे डूबेंगी
मझली के आँसू आ गए
उसने छुटकी को गोद में उठा लिया

छुटकी बोली
मझली तुम्हें तो तैरना आता
तुम कैसे डूबोगी

मैं गले में पत्थर बाँध लूँगी
लेकिन रस्सी तो अपन लाए नहीं
मैं चुनरी से बाँध लूँगी पत्थर
लेकिन चुनरी हट जाएगी
तो तुम्हें शर्म नहीं आएगी
नहीं – मझली ने कहा
लाशों को कोई शर्म नही आती

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