सभी के शरीर में मस्से कहीं न कहीं होते ही हैं। उनकी संख्या ज्यादा नहीं होती। हर कोई अपने शरीर में उनकी जगह के बारे में जानता है। उनकी संख्या का भी कुछ-कुछ अनुमान उसे होता है। लेकिन हमारे गाँव में सेमलिया की पूरी देह में मस्से ही मस्से थे। इतने कि उसे खुद अपनी देह में उनकी जगह और उनकी संख्या के बारे में अंदाजा नहीं होगा।

मस्से सबसे ज्यादा उसके चेहरे पर थे। मस्से भी बड़े-बड़े। गोल, चमकीले। चने की दाल या भुट्टे के दानों की तरह चेहरे पर छितराए हुए। उनमें से कोई-कोई तो काफी बड़ा भी था। जैसे चेहरे पर त्वचा का कोई बुलबुला बन गया हो। कुंदरू के आकार का। सेमलिया का रंग काला था।

यह तब की बात है, जब तक बिजली हमारे गाँव में नहीं आई थी। रात में लालटेन, लैंप और दिए जला करते थे। सँझबाती हुआ करती थी। बुआ शाम होते ही पहला दिया जला कर, सारे घर में उसे फिराने के बाद, भगवान के पास रख देती थीं। उस दिए को सब प्रणाम किया करते थे। लैंप को हम ‘लंफ’ कहते थे।

ढिबरी भी होती थी, जो किसी छोटी-सी शीशी के ढक्कन में छेद बना कर, उसमें चिथड़े की बत्ती डाल कर और उसके काँच के पेट में मिट्टी का तेल भर कर बनाई जाती थी। सेमलिया को याद करते ही ऐसी ही ढिबरी या लालटेन की पीली-धुँधली रोशनी में कौंधता हुआ एक काला, दानेदार, मस्सों से भरा, डरावना चेहरा दिखाई देने लगता। तरल हँसी में डूबी, मिचमिची आँखोंवाला चेहरा।

‘आ गया जमदूत!’ बुआ सेमलिया को अदरक और तुलसी की चाय देते हुए कहतीं। सेमलिया अपनी हथेली को अँगौछे में लपेट कर टहटी का गर्म गिलास पकड़ता और रात के धुँधलके में धीरे-धीरे हँसता।

इस गाँव से दस मील दूर, एक दूसरे गाँव सिहाला में भी हमारे खेत थे। सिहाला पहाड़ी के ऊपर, जंगल के पार बसा हुआ एक छोटा-सा गाँव था। हमारे इस गाँव की मिट्टी बलुहन थी, जिससे यहाँ धान, कोदो, कुटकी, तिल जैसी फसलें ही होती थीं। जब कि सिहाला में काली चिकनी मिट्टीवाले खेत थे, जहाँ सब कुछ पैदा होता था। गेहूँ, चना, अलसी और धनिया भी।

सेमलिया ही हमारी खेती देखने महीने-पंद्रह दिन में सिहाला जाता था। जब सेमलिया वहाँ से लौटता तो हमेशा रात ही क्यों होती थी, यह मैं नहीं समझ पाता था। शायद पैदल उतनी दूर चलने, और फिर जैसा लोग कहते थे, जंगल एक ऐसा चुंबक था, जो सेमलिया को अपने अंदर खींच लेता था और फिर जंगल के भीतर यहाँ-वहाँ भटकने की वजह से सेमलिया को गाँव लौटने में देर हो जाती होगी। मैं इसीलिए उसका चेहरा लालटेन या ढिबरी की पीली रोशनी में ही देख पाता था।

सिहाला तक पहुँचने के लिए कई पहाड़ी-जंगली नाले और लगभग साढ़े चार मील लंबा, एक घना जंगल पार करना पड़ता था। इसे रिछहाई जंगल कहते थे। इसमें जानवर रहते थे। तेंदुए, हिरण, चीतल, साँभर, रोझ। लेकिन सबसे ज्यादा रीछ। जब महुए जंगल में पक कर टपकते, तो गाँव की औरतें उन्हें बीनने से डरतीं क्योंकि रीछ औरतों को ही सबसे ज्यादा पकड़ता था। एक बार पड़ोस के गाँव छिलपा की एक औरत को रीछ ने जंगल में पकड़ा तो उसने उसे पहचान लिया। वह फौज से भाग कर आया फुनगा गाँव का बिजराज सिंह था।

वैसे कहते हैं एक बार एक डाकिए की लाश रिछहाई जंगल में मिली थी, जिसका सिर किसी रीछ ने ढक्कन की तरह खोल कर उसका भेजा निकाल लिया था। और मनीऑर्डर के रुपए भी ले गया था।

अब तो उस रास्ते के सारे नाले सूख गए हैं। जंगल भी उतना घना नहीं रहा। सरकारी फॉरेस्ट ऑफिसर और ठेकेदारों ने मिल कर काट डाला। जानवर भी नहीं बचे। बस इक्का-दुक्का सियार कभी-कभार जरूर दिख जाते हैं।

अब तो हमारे गाँव में लालटेन और दीए भी नहीं जलते। बिजली आ गई है।

सेमलिया अब नहीं है।

लेकिन लालटेन की धुँधली-कमजोर रोशनी में, मिचमिची आँखों में मुस्कराता उसका काला, दानेदार, मस्सों से भरा डरावना चेहरा अब भी दिखने लगता है।

ऐसा डरावना, जिससे कभी डर नहीं लगता।

‘जमदूत!’ बुआ की आवाज उभरती है।

बुआ भी अब नहीं हैं। उनकी किडनी फेल हो गई थी। और मृत्यु के पहले उनकी देह सूज गई थी। जैसे किसी ने पंप से उनके भीतर हवा भर दी हो।

‘मेरे भीतर पानी भर गया है।’ उन दिनों वे कहा करती थीं।

सेमलिया जब रात में हमारे दूसरे गाँव सिहाला से लौट कर आता, तो लालटेन की रोशनी में बाँस के अपने टोकरे में से तरह-तरह की चीजें निकाल कर, आँगन में फैलाता जाता।

हरे-रोएँदार जंगली पड़ोरे, पहाड़ी बेर, शेर की मुखारी, चार-चिरौंजी, कठजमुनी, अमरुक, काँदा, छतनी, पूटू, छींदकाँद, जंगली करौंदे।

…और सिहाला के तालाब से पकड़ी गई स्वादिष्ट सौर मछली, सरसों के तेल में जिसके तले हुए कोरौरा खाते हुए पिता जी गाँव के दूसरे लोगों के साथ रात में महुए की रासी पीते। और सब लोग जोर-जोर से बोलते।

या फिर जाल में फाँसे गए तीतर, लावा, गुड़रू, पोंडकी।

सेमलिया हर महीने-पंद्रह दिन में यह करिश्मा करता। और उसके डरावने, दानेदार, काले, बीहड़ चेहरे की छोटी-छोटी आँखें ढिबरी या लालटेन की रोशनी में कौंधती रहतीं।

सेमलिया मेरे बचपन का जादूगर था।

सेमलिया ने एक बार मुझे जंगली खरगोश के दो छौने ला कर दिए थे। जंगली खरगोश को हम ‘खरहा’ कहते थे। उस रात कत्थई-भूरे रंग के दोनों छौने उसने मेरी गोद में डाल दिए थे। पहले मैं डरा। फिर मेरा डर तुरत ही दूर हो गया। वे दोनों बहुत ही छोटे थे।

मेरी उम्र तब छह-सात साल की थी।

नर्म, मुलायम, भूरी पीठ। मैंने अपनी डरती हुई उँगलियों से उन्हें छुआ। उनके कान खड़े हो गए। उन्होंने चेहरा उठा कर मुझे चौंकते हुए देखा। मेरी उँगलियों के स्पर्श से उनके शरीर में एक सिहरन पैदा हो गई थी।

वे धीरे-धीरे काँप रहे थे।

…और उनके भूरे-कत्थई, नर्म रोयों में से एक अपरिचित-सी तेज गंध निकल कर आँगन के अँधेरे में फैल रही थी। लालटेन की मद्धिम रोशनी उस गंध में डूब गई थी और धीरे-धीरे मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतर रही थी। मैं हर तरफ से उस गंध से घिर गया था, जैसे कोई पानी के भीतर की गहराई में चारों ओर पानी से घिरता है।

यह कितना रोमांचकारी था। कितना अजब। वे जिंदा थे। बिल्कुल जीवित। वे दूसरे खिलौनों की तरह नहीं थे। वे साँस ले रहे थे। उनके शरीर धीरे-धीरे काँप रहे थे। और जहाँ वे ले आए गए थे, वहाँ की हर चीज को वे चौंकते हुए, आश्चर्य और उत्सुकता के साथ चुपचाप देख रहे थे।

‘उन्हें भूख लगी है।’ सेमलिया ने कहा। ‘अभी वे इतने छोटे हैं कि दूब या साग-भाजी नहीं खाएँगे।’

‘तो?’ मैं चिंतित था।

‘अभी तो पाँच-सात रोज उन्हें दूध पिलाना। फाहे से। फिर वे बड़े हो जाएँगे तो अपने आप पत्तियाँ खाने लगेंगे।’

‘फिर?’

‘फिर तुम्हारे साथ ये खेलेंगे। फिर तो इन्हें अपने कंधे पर बिठा कर घूमना।’

‘ये तू क्या ले आया, जमदूत!’ बुआ ने सेमलिया को तुलसी और अदरक की चाय देते हुए कहा। वे सेमलिया को हमेशा यही कहती थीं – ‘जमदूत!’

‘नन्हें को घर में बाँधने के लिए जंगल से दो खूँटे ले आया हूँ। अब ये कभी खाना-पीना, किताब-कापी छोड़ कर ढोर-डाँगर के साथ जंगल-पतेरा नहीं फिरेंगे।’ सेमलिया हँसते हुए चाय सुड़कता रहा।

उस रात बारह-एक बज गए होंगे, मेरी आँखों में नींद के कहीं लक्षण नहीं थे। नींद अगर आती भी तो उसे मैं हरगिज न आने देता।

जंगली खरगोश के वे दोनों बच्चे हर पल मेरे भीतर अपने प्रति एक नई उत्सुकता जगाते। हर पल कोई न कोई उनकी एक नई हरकत होती। हर बार वे कुछ नया करते। लालटेन के धुँधले उजाले में उन्होंने अपना एक बिल्कुल अलग संसार बना डाला था। और उनके साथ, उस संसार में मैं भी था।

वे इधर-उधर निरुद्देश्य रेंगते, फिर वापस अपनी पुरानी जगह को खोजते हुए उस ओर लौटते।

कई बार अपने नन्हें-से कोमल शरीर को सिकोड़ कर वे कूदने या छलाँग लगाने की कोशिश करते और हर बार आँगन की जमीन पर रुई के ढेले की तरह असफल लुढ़क जाते। अभी गति या छलाँग को सँभाल पाने की ताकत उनकी नन्हीं कमजोर देह में पैदा नहीं हो पाई थी।

वे वास्तव में बच्चे हैं। मुझसे भी छोटे। यह अनुभव वे हर पल मुझे अपनी हरकतों से कराते। और हर पल उनके प्रति मेरा प्यार और गहरा होता जाता। मैं उनके सामने खुद को बड़ा और समझदार अनुभव करता।

वे एक छोटी-सी हरकत करते और मेरे भीतर उमंग और प्यार का एक नया विद्युत पैदा हो जाता। वे इतने अच्छे क्यों थे? मैंने उनमें से एक, जो ज्यादा छोटा और कुछ अधिक चंचल था, उसको अपनी हथेली में रख कर उठा लिया और अपने होठों को उसकी नाक पर धीरे से छुआया। लेकिन अम्माँ ने इसे देख लिया और डाँटा।

‘क्या करते हो? कीड़े चले जाएँगे नाक के भीतर से।’

वे कटोरे में में थोड़ा-सा गाय का दूध और रुई का फाहा ले कर आई थीं।

मैंने रुई के फाहे को दूध में डुबा कर उन्हें दूध पिलाना शुरू किया। वे सचमुच भूखे थे। उनकी लगातार हिलती और कुछ न कुछ सूँघती-सी नाक के नीचे आखिर मुँह कहाँ है, यह पता ही चलता था। लेकिन देखते ही देखते रुई के फाहे का दूध वे चूस जाते।

जब वे दूध पीते तो मेरे पूरे शरीर में एक अजीब-सी सिहरन होती। जब अम्माँ मुझे दूध पीते देखते होंगी, तो क्या उनको भी ऐसा ही लगता होता। मैं सोचता।

मुझे यह भी लगता जैसे मैं उनकी माँ हूँ।

दोनों में दूध पहले कौन पिएगा, इसके लिए वे एक-दूसरे के शरीर को धक्का भी देते। यह हद थी। इतने वे छोटे थे लेकिन यहाँ भी एक-दूसरे से होड़ थी। ये नन्हें छौने, जिन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले अपनी आँखें खोली होंगी, उनके बीच भी पेट के लिए ऐसा मुकाबला शुरू हो गया था।

‘ये ठीक बात नहीं। पारी-पारी से दोनों लोग पिएँगे। अच्छे बच्चे लड़ते-झगड़ते नहीं, मिल-जुल के दूध पीते हैं।’ मैंने फुसफुसा कर उन्हें समझाया।

बड़ेवाले का पेट भर चुका था। उसकी रुचि समाप्त हो चुकी थी और वह अब सुस्त हो चुका था। जब कि छोटा अभी भी फाहे को चूसने में लगा था।

‘अरेबा’ और ‘परेबा’। उस रात यही नाम उन दोनों के मैंने रखे। बड़ावाला, जो थोड़ा काहिल और सुस्त था, वह अरेबा। और छोटावाला, फुर्तीला और चंचल – परेबा।

परेबा हमारी भाषा में कबूतर को कहते हैं। लेकिन पालतू, घरेलू या शहरातू कबूतर को नहीं। वो तो बेचारे मामूली कबूतर ही होते हैं। परेबा तो होता है जंगली। बिल्कुल बेदाग, अछूता और वनैला। पहाड़ों के ऊपर चट्टानों की संधि में बसेरा करता है और दानों की खोज में दुनिया भर भटकता-उड़ता फिरता है। वह परेबा ही था, जिसका एक कहानी में गिद्ध से मुकाबला हुआ था। किसकी नजर कितनी तेज है। यानी किसकी आँख कितनी दूर तक देख सकती है। गिद्ध ने सौ मील दूर किसी खेत में मरे हुए एक बैल को देखा। तो परेबा ने उस बैल की लाश से दो हाथ, एक बीता, चार अंगुल दूर खेत में गिरे गेहूँ के सात दानों को देख लिया।

सबकी आँखें अपने अपने पेट में जानेवाली चीजों को देख ही लेती हैं। चाहे वे जहाँ और जितनी दूर हों। चाहे बैल जितनी बड़ी हों, या राई या तिल जितनी छोटी।

जब ये दोनों, अरेबा और परेबा, बड़े हो जाएँगे तो ये भी यहाँ से सौ मील दूर किसी खेत की मेड़, जंगल के मैदान या किसी आँगन के कोने में उगी दूब को देख लेंगे। और जैसे गिद्ध के पेट में बैल, कबूतर के पेट में गेहूँ का दाना और मेरे पेट में रोटी का कौर जाता है, वैसे ही इनके पेट में दूब जाएगी।

आँखें तो दरअसल पेट की ही होती हैं। भूख ही है, जो सब कुछ देखती है। पेट ही दुनिया को भूख की आँख से देखता हुआ अपना दाना-पानी खोजता है। वह पेट है, जो सब के शरीर को यहाँ-वहाँ दौड़ाता या उड़ाता रहता है।

अचानक ही मैंने ध्यान दिया। अरेबा यानी बड़ावाला, दूध पी कर अघाया हुआ और आलसी बन चुका छौना, लालटेन की रोशनी में बने उस छोटे-से संसार से फरार था। जब कि छोटावाला परेबा अभी भी फाहे से दूध पीने में लगा हुआ था। हालाँकि उसकी घूँट भरने की रफ्तार अब काफी धीमी पड़ चुकी थी।

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कहाँ चला गया अरेबा? मैं डर गया। हमारे घर में तीन बिल्लियाँ आती थीं। और एक बिल्ला भी। हम उसे बग्घा कहते थे। वह दिखता भी बाघ जैसा ही था। मोटा, बड़ा, डरावना, घमंडी, क्रूर और षड्यंत्रकारी। वह अपने ही बच्चों का गला काट कर उन्हें मार डालता था। कुछ लोग कहते थे कि बग्घा दरअसल एक वन-बिलाड़ था, जो जंगल से आता था।

अगर बग्घा ने अरेबा को देख लिया तो?

मैं लालटेन ले कर उसे आँगन में खोजने लगा। परेबा को मैंने बाएँ हाथ से अपनी छाती में चिपका रखा था। मैंने पूरे आँगन को छान मारा। तुलसी के चौरा के पास बेले और गेंदे के पौधे उगे हुए थे। वहाँ भी वह नहीं था। रसोई के दरवाजे की दाईं ओर, जहाँ केवड़ा था और जिसमें साँप आ कर रहते थे, वहाँ भी वह नहीं था।

‘वो इधर खड़-खड़ कर रहा है।’ अम्माँ की आवाज आई। मैंने जा कर देखा। परछी के एक कोने में, जहाँ चावल के बोरे रखे हुए थे और सूपा, दौरी, छलनी, कुरई-वहीं वह चुपचाप पसरा हुआ था। उसकी आँखें नींद में मुँद रही थीं।

‘अभी बग्घा देख लेता तो तुम अब तक उसकी पेट में पहुँच चुके होते, बच्चू!’ मैंने उसकी पीठ को हथेलियों से सहलाया।

‘अब तुम भी सोओ और उसे भी सोने दो!’ अम्माँ की थकी हुई आवाज आई। ‘मैंने देखो, उनके लिए यहाँ एक घर बना दिया है।’

मैंने देखा, परछी के कोने में, जहाँ परछी और भंडार की दीवारों के बीच एक सँकरी-सी जगह छूट गई थी, वहाँ अरेबा-परेबा के लिए अम्माँ ने एक घर बना डाला था।

तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं जब तक आँगन में रुई के फाहे से अरेबा-परेबा को दूध पिलाने में लगा था, अम्माँ इधर अँधेरे में चुपचाप उनका घर बना रही थीं। बिना मुझे बताए।

कितनी अच्छी थीं अम्माँ! …और क्या वह अरेबा-परेबा की भी माँ बन गई थीं?

लेकिन अगर ऐसा था तो घर बनाते हुए अम्माँ अरेबा और परेबा के बारे में सोच रही थीं, या मेरे बारे में? क्या अम्माँ के अलावा कोई और अपने जीवन में मेरे बारे में इतना कभी सोचेगा?

मैंने देखा, अम्माँ ने पुरानी रजाई के टुकड़ों और कई सूती चीथड़ों को उस सँकरी जगह में डाल दिया था। मेरी फटी-पुरानी कमीजें भी उनमें शामिल थीं। अम्माँ ने उस दरार में पीछे की ओर थोड़ी-सी खाली जगह भी छोड़ दी थी, जिससे अरेबा-परेबा रजाई और कपड़ों को गीला-गंदा न करें।

‘छुच्छू आए तो उधर जाना, समझे! और गुग्गू भी। नहीं तो अम्माँ बड़ी जोर से पीटेंगी। समझे!’ मैंने दोनों को निर्देश देते हुए, उन्हें उनके घर में रख दिया।

अम्माँ ने उस संध को बंद करने के लिए तार की जाली का एक किवाड़ भी बना डाला था। दोनों तरफ ठोंकी गई दो कीलों में वह जाली का टुकड़ा फँस कर उस संध को बाहर से बंद कर देता था।

अम्माँ ने जब इन कीलों को ठोंका होगा तो आवाज क्यों नहीं हुई? शायद मैं उस वक्त अरेबा को खोजने में लगा था और इतना चिंतित हो चुका था कि मेरे कान दुनिया की कोई भी आवाज सुनना बंद कर चुके थे।

लेकिन अम्माँ ने तो कोई ढिबरी या दीया भी नहीं ले रखा था। अँधेरे में उन्होंने घर कैसे बनाया? सबसे बड़ी बात कि उन्होंने दीवाल पर कील कैसे ठोंकी? अँधेरे में कील न दिखने पर हथौड़े या पत्थर से अँगूठा कुचल जाता है।

‘अब तो बग्घा भी कुछ नहीं कर सकता।’ अम्माँ की आवाज में निश्चिंतता और अपनी सफलता की खुशी मिली हुई थी। ‘चलो तुम भी सोओ! दो बज रहे हैं। सुबह चार बजे तुम्हारे बाबू जी उठ जाएँगे। कल सोमवार है।’

बाबू, यानी पिता जी रविवार को उपवास रखते थे और सोमवार को सुबह चार बजे उठ कर नहाते और पूजा करते थे। अम्माँ इतनी सुबह उठ कर उनके लिए पूरियाँ बनाती थीं। साथ में आलू परवल की सब्जी। या फिर बेसन का मसालेदार मींजा। मींजा को हम शाकाहारी कीमा कहते थे। पूरी के साथ वह बहुत स्वादिष्ट लगता था। इसके अलावा सेवईं या हलुवे, दोनों में से कोई एक मीठी चीज।

‘खरगोश क्या पूरी खाते हैं, अम्माँ?’ मैंने नींद में जाने के ठीक पहले अम्माँ से पूछा।

‘जब बड़े हो जाएँगे, तो जो-जो तुम खाओगे, वे भी खाएँगे। लेकिन अभी तो तुम सो जाओ। वे भी सो गए हैं।’ अम्माँ ने कहा।

‘मैंने उनका नाम रखा है – अरेबा-परेबा!’ यह मैं शायद नींद के भीतर से बोला था। मैं आँखें मूँद कर अभी भी चुपचाप अरेबा और परेबा को देख रहा था। मैंने अपनी नींद के भीतर लालटेन की मद्धिम-पीली रोशनी का वही संसार रच लिया था, जिसमें उनके साथ मैं भी मौजूद था। लेकिन यहाँ मैं सो नहीं रहा था, बल्कि उन्हें सोते हुए देख रहा था।

‘अरेबा-परेबा!’ अम्माँ ने गहरी साँस छोड़ी। वह साँस मेरी नींद के भीतर तक पहुँची। अपने घर में, रजाई के टुकड़ों और मेरी फटी-पुरानी कमीज पर सोते अरेबा-परेबा के कत्थई-भूरे, नर्म-मुलायम रोएँ अम्माँ की साँस से काँप गए। ‘बहुत अच्छे नाम हैं!’ अम्माँ ने कहा। ‘माँ… मतलब तुम्हारी नानी पहले गाया करती थीं – एहंकी से गइन हैं अरेबा-परेबा, मारिन हैं मोहिनियाँ बान रे!’

अम्माँ नींद के पार से बोल रही थीं और गा रही थीं। मैं अपनी रजाई के भीतर एक बहुत गहरी नींद के अँधेरे और कोहरे में धीरे-धीरे डूब रहा था। अरेबा-परेबा की कहानी मुझे अम्माँ ने ही सुनाई थी। वे दोनों शायद ढोला-मारू की कहानी में होते थे और मोहिनी बान चलाया करते थे। क्या वह बान मुझ पर भी उन्होंने चला दिया था?

लेकिन अम्माँ कितनी अच्छी हैं, दुनिया में! यह मैं उस नींद के भीतर भी जान रहा था। यह बात मैं अम्माँ को बोलना भी चाहता था, लेकिन अब मेरी आवाज ही पैदा नहीं हो सकती थी। क्योंकि जहाँ से आवाज पैदा होती है, वहाँ तो नींद पैदा हो कर मेरे मस्तिष्क के भीतर के पूरे आकाश में किसी बादल की तरह फैल गई थी।

उस रात वह नींद पता नहीं कितनी गहरी थी। सुबह मैं देर से उसमें से जाग कर निकल पाया।

बाबू नहा कर पूजा कर चुके थे। पूरी, मींजा और सेवईं खा चुके थे। शेविंग कर चुके थे। अपनी गाल पर ब्रश से साबुन का झाग बना चुके थे। फट्…फट्…फट्…!

जब कि इसके पहले मैं हमेशा बाबू के नहाते वक्त, गुस्लखाने में से आती बाल्टी, लोटे और पानी की आवाज से ही जाग जाया करता था। या अम्माँ द्वारा कड़ाही के कड़कते हुए घी में गोल-गोल पूरियाँ डालते ही पैदा होनेवाली छन्न्…छन्न् की आवाज से। हद से हद देर हुई, तो पिता जी की पूजा की आवाज से।

नमामी शमीशां निर्वाण रूपं…विभुं व्यापकम् ब्रह्म वेद स्वरूपं… मैं रजाई हटा कर पलंग पर बैठा ही था कि अम्माँ ने देख लिया।

‘आ जाओ! कुल्ला कर के जल्दी से आ जा जाओ। बहुत अच्छा मींजा बना है। आज तुम्हारे बाबू जी सोलह पूरियाँ खा गए।’

मैं अपनी पलंग से कूद कर भागा। लेकिन रसोई की तरफ नहीं, जिधर से अम्माँ आवाज दे रही थीं। बल्कि उधर की ओर, जिधर मेरी वह नई दुनिया थी, जो रात में मेरे सोने के पहले लालटेन की धुँधली-पीली रोशनी में बनी थी। अब लालटेन या ढिबरी की कमजोर रोशनी में नहीं, दिन के उजाले में मैं उन्हें देखूँगा। सेमलिया जिन्हें रात में मेरी गोद में डाल गया था।

मैं सीधा दौड़ता हुआ उसी तरफ गया। आँगन पार करता हुआ। ओसारे से कूदता और ड्यौढ़ी को फलाँगता हुआ। उसी तरफ, जहाँ अम्माँ ने रात में उनका घर बना दिया था। अम्माँ अभी भी लगातार रसोई से आवाज लगा रही थीं।

लेकिन मैं स्तब्ध रह गया। यह एक तेज, अविश्वसनीय आघात था।

मैंने अपनी आँखें मलीं। दुबारा उन्हें खोल कर देखा। मैंने भंडार की दीवाल को छू कर देखा। नहीं, यह सपना नहीं था। मैं वास्तव में जाग रहा था।

तो क्या सपना वह था, जो मैंने रात में देखा?

लालटेन की पीली, मद्धिम, कमजोर रोशनी में कौंधता हुआ सेमलिया का दानेदार, मस्सों से भरा, काला, डरावना चेहरा। और उसमें अपनी ही तरलता में पिघलती, मिचमिची-सी, हँसती हुई दो आँखें।

सेमलिया ने ही रात में दो जंगली खरहे के बच्चों को मेरी गोद में डाला था। मैंने उनकी कोमल, कत्थई-भूरे रोयों से भरी पीठ को छुआ और सहलाया था।

मैंने अपनी उँगलियाँ देखीं।

अम्माँ ने काँसे के कटोरे में गाय का दूध ला कर दिया था। मैंने रुई के फाहे से उन्हें दूध पिलाया था। सेमलिया को बुआ ने तुलसी और अदरक की चाय ला कर दी थी। और कहा था… ‘जमदूत!’

मैंने उनके नाम भी रखे थे… अरेबा और परेबा…!

अम्माँ ने इसी जगह, अँधेरे में ही, उनके लिए एक घर बनाया था। उसमें रजाई और मेरी अपनी पुरानी कमीज थी। उस घर में अम्माँ ने तार की जाली का एक फाटक भी लगाया था।

जब मैं रात में सो रहा था, तो अम्माँ ने मेरी नींद के पार से नानी का गाना भी सुनाया था : एहंकी से गइन हैं अरेबा-परेबा मारिन हैं मोहिनियाँ बान रे…!

लेकिन इस समय ठीक मेरी आँखों के सामने परछी और भंडार के बीच की वही सँकरी जगह मौजूद थी। बिल्कुल खाली। यहाँ कोई घर नहीं था। कोई घर कभी रहा भी नहीं होगा। उसमें रजाई के टुकड़े, चीथड़े और मेरी पुरानी कमीजें नहीं थीं।

वहाँ कोई जाली का दरवाजा-फाटक नहीं था। अरेबा-परेबा कहीं नहीं थे। कहीं भी नहीं।

मैंने झुक कर, अपनी आँखों को दीवाल के नजदीक सटा कर देखा। वहाँ कील ठोंकने के निशान जरूर दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन लगता था, वे बहुत पुराने हैं।

तो अब? मेरे भीतर एक डरावना खालीपन पैदा हुआ। एक भयावह निर्वात। और वह मेरे भीतर से उठता हुआ मेरी चेतना में छाने लगा।

मेरे भीतर मेरा सब कुछ लुट चुका था।

‘अम्माँ…!’ मैं अपनी पूरी ताकत भर चीखा। इतनी सुबह की ठंड में मेरा कमजोर शरीर काँप रहा था। उसमें कोई ताकत नहीं बची थी। धूप के आने में अभी देर थी।

‘अम्माँ! वे दोनों कहाँ गए?’ मैं उत्तेजना, दुख और बदहवासी में दौड़ता हुआ रसोई की ओर गया।

मिट्टी की काली दोहनी में अम्माँ गाय का दूध उबाल रही थीं। चूल्हे की आँच को चुपचाप तापती हुई। पास में ही मींजा की बटलोई और सेवईं का पतीला ढका हुआ रखा था। पूरियाँ फूल की परात में ढकी हुई रखी थीं।

‘कौन दोनों?’ अम्माँ ने मुझे तटस्थता के साथ चुपचाप देखते हुए कहा।

उनकी आँखें इतनी ठंडी और अजनबी थीं कि मैं भीतर से हिल गया। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। अभी कुछ ही पहले, कुछ ही घंटों पहले की रात में, यही अम्माँ दुनियाँ में सबसे अच्छी हुआ करती थीं। इतनी जल्दी इन्हें क्या हो गया? सुबह होते ही अम्माँ इतनी खराब कैसे हो गईं?

मैं रो रहा था। मेरे साथ कोई नहीं था। मैं उलझन और असमंजस में था। क्या सचमुच वह सब कुछ सपना था? अगर ऐसा था, तो वह कितना वास्तविक था। लेकिन मेरे सपने के भीतर सेमलिया कैसे आ गया। मैंने इसके पहले तो कभी भी, अपने किसी भी सपने में उसे नहीं देखा था।

लेकिन कहीं भीतर से मुझे यह कमजोर-सा भरोसा भी हो रहा था कि वह सब कुछ एक सपना भर नहीं था। उसमें सचाई जरूर थी। शायद मेरे साथ कोई न कोई षड्यंत्र हुआ था।

…और इसका सबसे बड़ा प्रमाण था, यहीं, इसी जगह, इस रसोई से ही साफ-साफ दिखाई देनेवाला, आँगन में पड़ा काँसे का वह कटोरा।

लेकिन कटोरे को तो मैंने कई बार पहले भी आँगन में उस जगह देखा था। अम्माँ अक्सर रात का बचा हुआ बासी दूध, जो सुबह तक फट जाता था, बिल्लियों के लिए रख देती थीं।

लेकिन फिर उस कटोरे के ठीक बगल में पड़ा रुई का वह फाहा! इसी से तो मैंने रात में उन्हें दूध पिलाया था।

कटोरे का बचा हुआ दूध तो रात में बिल्ली पी गई होगी। लेकिन फाहा तो कोई नहीं खा सकता।

मैं एक गहरी दुविधा और उलझन में फँसा हुआ था। मेरे दिमाग के भीतर कुछ धागे उलझ कर कोई बरम-गाँठ बन गए थे, जिसको मैं सुलझाने में लगा हुआ था।

यह एक कठिन गुत्थी थी।

‘मुझे बताओ, वे दोनों कहाँ हैं।’ मैं रोते हुए, अम्माँ से पूछ रहा था।

मेरा मन हो रहा था, चूल्हे पर चढ़ी हुई दोहनी को मैं उलट दूँ और उसके उबलते हुए झागदार दूध में अपने आप को जला डालूँ। इतना कि मैं मर जाऊँ। थोड़ा-बहुत अम्माँ को भी जला दूँ।

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लेकिन अम्माँ चुपचाप उठीं। चूल्हे पर रखी दोहनी को अपने आँचल से पकड़ा और उसे ले कर भंडार की ओर चली गईं। जाते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं।

मैं अकेला छूट गया था। अभी-अभी जो रात बीती, उसमें मेरा एक नया संसार बना था, जो अब मिट चुका था। उसका कोई निशान कहीं बाकी नहीं बचा था। उसके बारे में मुझे कोई कुछ बता भी नहीं रहा था।

एक कोई बुलबुला या गुब्बारा था। बहुत बड़ा। साबुन के घोल का, या अरंडी और थूहे के दूध का। जिसके भीतर एक फूँक भर हवा रात में फैल गई थी। वह अब फूट चुका था। वहाँ अब कुछ भी नहीं था। …यहाँ बाहर मैं बचा था। अकेला।

उस दिन मैंने कुछ नहीं खाया। पूरियाँ और मींजा भी नहीं, जो मुझे पसंद थे। जिनके लिए मैं सुबह चार बजे से उठ जाता था और बाबू के नहाने और पूजा कर लेने का इंतजार करता रहता था।

सेवईं भी नहीं।

दोपहर भी मैंने कुछ भी खाने से मना कर दिया। मैंने पानी तक नहीं पिया। कोई ला कर देता, तो मैं गिलास, दूर आँगन की तरफ फेंक देता।

मुझे दुनिया से और कुछ नहीं, बस वही दोनों चाहिए थे। अरेबा और परेबा। उन्हें कहीं छुपा दिया गया था। मेरे अलावा इस घर में बाकी हर कोई जानता था कि वे दोनों कहाँ हैं। लेकिन उनके बारे में मुझे कोई नहीं बता रहा था। सब जान-बूझ कर ऐसा कर रहे थे।

शायद मेरी पढ़ाई खराब होती। शायद मैं स्कूल न जाता। शायद मैं दिन-दिन भर, किताब-कॉपी छोड़ कर, उन्हीं दोनों के साथ भटकता रहता। इसलिए… इसीलिए।

सभी ने कोई गुप्त समझौता कर रखा था। सब चुप थे। शायद वे यह सोचते थे कि आखिरकार भूख से हार कर मैं खाना खा लूँगा। भूख मिट जाएगी तो मैं धीरे-धीरे रात की बात भूल जाऊँगा। लेकिन उनको मेरे बारे में कुछ भी पता नहीं था। मैं खाना और पानी क्या, अपने अरेबा और परेबा के लिए, साँस तक लेना छोड़ सकता था।

या फिर शायद वे यह सोच रहे हों कि धीरे-धीरे मुझे यह लगने लगेगा कि वह सब कुछ एक सपना ही था। साबुन और हवा का एक फुग्गा। जिसके भीतर रात में एक फूँक भर हवा भर गई थी। और जो सुबह फूट गया।

लेकिन कितने मूर्ख थे वे। उनकी समझ पर मुझे अफसोस होता था। उन्होंने रात की घटना के सारे निशान तो मिटा डाले थे लेकिन रुई का फाहा और काँसे का कटोरा आँगन से गायब करना भूल गए थे।

फिर उस गंध का तो उनको पता ही नहीं था, जो अब तक मेरे कपड़ों में से आ रही थी। जंगली खरहे की अजीब-सी तेज गंध।

वह गंध अब भी मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतर रही थी।

मैं अरेबा-परेबा को भूल नहीं सकता था। यह असंभव था। उनके साथ रात में जो एक नया संसार बना था, वह संसार अब अमर था।

लेकिन मुझे सबसे गहरा धक्का जिस बात से लगा था और जिससे मैं उबर नहीं पा रहा था, वह बात यह थी कि अम्माँ भी उन लोगों के साथ मेरे खिलाफ षड्यंत्र में शामिल हो गई थीं। वे ऐसी तो नहीं थीं। उन लोगों ने अम्माँ को शायद समझा-बुझा लिया होगा। बाबू अम्माँ से कहते भी थे कि तुम बहुत सीधी और मूर्ख हो। तुम दुनिया को नहीं जानती।

मेरा मन होता था कि मैं अम्माँ से जा कर कहूँ कि तुम उन दोनों को मुझे लौटा दो। मैं खूब पढ़ूँगा। खूब लिखूँगा। मैं हर रोज स्कूल जाऊँगा। जब मुझे बहुत तेज बुखार होगा तब भी। और जब खूब जोरों की बारिश हो रही होगी और ओले गिर रहे होंगे, तब भी।

अम्माँ ने लेकिन इतना बड़ा विश्वासघात मेरे साथ किया था, कि उनसे तो कुछ बोलने का मेरा मन ही नहीं कर रहा था। इस समय सबसे ज्यादा गुस्सा मुझे जिस पर आ रहा था, वह अम्माँ ही थीं। खाना न खा कर, पानी न पी कर, अपने आप को कमरे के भीतर कैद कर के, गिलास जोरों से फेंक कर मैं दरअसल अम्माँ को ही दंड दे रहा था। उन्होंने ठीक नहीं किया था मेरे साथ।

मैं अच्छी तरह से जानता था कि अम्माँ ने भी आज न तो पूरियाँ खाई होंगी, न सेवईं। उन्होंने दोपहर का खाना भी नहीं खाया होगा। वे बेतरह भूखी होंगी।

यह भी बिल्कुल हो सकता है कि उन्होंने भी आज दिन भर से पानी न पिया हो।

मैंने अपने आपको अपने कमरे में कैद कर लिया था। अगर हर कोई मुझसे चुप है तो मैं भी अब हर किसी से चुप रहूँगा। लो, अब तो खुश रहो। जो तुम कर सकते थे, तुम लोगों ने कर लिया। अब मेरी बारी है।

आखिरकार, जब दोपहर ढल रही थी और धूप का रंग बदल रहा था, तब अम्माँ मेरे कमरे में आईं। वे चुपचाप मेरी पलंग पर बैठ गईं और मेरे माथे पर अपनी हथेली रख दी। उन्होंने मेरा सिर सहलाना शुरू किया। उन्होंने एक-एक कर मेरी उँगलियाँ चटखाईं। उन्होंने मेरे पेट पर अपनी दो उँगलियों को आका-डाका चलाते हुए गुदगुदी पैदा करने की कोशिश की। लेकिन मैं तो पत्थर का बन गया था। मेरे शरीर में सचमुच इतना अधिक दुख भर गया था कि उसमें गुदगुदी पैदा ही नहीं हो सकती थी।

मैं उन सब लोगों के लिए मर गया था, जिन्होंने मेरे खिलाफ षड्यंत्र किया था।

और उनमें से अम्माँ भी एक थीं।

कुछ देर बाद अम्माँ ने मुझसे बोलना शुरू किया। उनकी आवाज में एक अजीब-सी निर्बलता थी। आवाज काँप रही थी और कहीं बहुत भीतर से आ रही थी।

‘यह ठीक नहीं होगा। अगर मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया, तो भगवान मेरे ऊपर नाराज हो जाएँगे। ऐसी बात किसी को बताते नहीं हैं। चाहे वह कोई भी हो।’

कुछ देर अम्माँ चुप रहीं फिर उन्होंने कहा, ‘मैं बता दूँगी तो मेरे ऊपर बहुत बड़ा पाप लगेगा। महापाप। हो सकता है भगवान मुझे इसका दंड भी दे दें। लेकिन तुम बहुत जिद्दी हो। यह ठीक नहीं है। आगे चल कर तुम बहुत परेशान और दुखी रहोगे। न तो तुम कुछ खा रहे हो न पी रहे हो। तुम्हें पता है, अगर कोई एक जून का खाना नहीं खाता तो उसकी देह से एक चिड़िया के बराबर मांस कम हो जाता है। तुमने दो जून से नहीं खाया। तुम्हारे शरीर में से दो चिड़ियों के बराबर मांस घट गया है।’

और फिर अम्माँ ने बहुत सख्ती से मुझे घूर कर कहा – ‘लेकिन तुम कसम खा कर कहो कि ये बात तुम अब और किसी को, कभी नहीं बताओगे। चाहे कोई कितना भी डराए, या लालच दे।’

मैंने कसम खाई। उस बात को जानने की व्याकुलता में मेरा शरीर काँप रहा था। एक-एक पल मुझे भारी लग रहा था। मैं अम्माँ के चेहरे को लगातार घूर रहा था। कहीं अचानक वह अपना निर्णय न बदल दें।

‘हुआ रात में यह कि जब तुम सो गए और मैंने नानीवाला गीत गा कर खत्म ही किया था कि ऐसी आवाज होने लगी जैसे कोई जीप या कार हमारे आँगन तक आ गई हो। वह सचमुच की आवाज थी।

‘इतनी रात गए कौन आ गया? मैंने सोचा, शायद तुम्हारे बड़े ताऊ अपने ट्रैक्टर से आए होंगे। लेकिन मुझे अचरज ये हो रहा था कि ट्रैक्टर यहाँ आँगन तक कैसे आ गया? हमारे घर के तो दरवाजे ही ऐसे नहीं हैं कि यहाँ भीतर तक कोई ऐसी चीज आ सके।

‘मैंने किवाड़ खोल कर देखा… तो क्या बताऊँ! आँगन में इतनी तेज रोशनी हो रही थी कि आँख को कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता था। मैं बुरी तरह से डर गई। एक बात जान लो! वह आवाज ट्रैक्टर या जीप-कार जैसी होती हुई भी कुछ अलग ही तरह की आवाज थी। …और वह रोशनी भी, रोशनी होती हुई भी, बिल्कुल अलग तरह की ही रोशनी थी। मैंने सोचा शायद कोई उड़नतश्तरी हमारे आँगन में उतरी है। तभी ओसारे में रखी तिपाई से मेरा पैर टकराया और उसमें रखे पानी का जग और गिलास फर्श पर गिर पड़े। जोरों की आवाज हुई। और बस! फिर तो जैसे वहाँ भूडोल आ गया।’

मैं माँ की एक-एक बात सुन रहा था। उन्होंने मेरी दाईं हथेली को कस कर अपनी मुट्ठी में जकड़ रखा था।

‘जग और गिलास के तिपाई से गिरने की आवाज के साथ ही एक बवंडर जैसा वहाँ उठा और पलक झपकते सब लुप्प हो गया। एक दम गायब। आँगन में कुछ नहीं, बस अँधेरा बचा था।’ अम्माँ बोल रही थीं। उनकी आवाज में ऐसा सच था कि उनकी एक-एक बात पर मुझे विश्वास होता जा रहा था।

‘मैं सबसे पहले तुम्हारे अरेबा-परेबा को ही देखने गई। वहाँ कुछ नहीं था। उनका घर भी नहीं था। मैं घबरा गई और लौट कर आँगन में आई। और तभी फिर बड़े जोरों की आवाज हुई। ऐसा लगा जैसे आँगन में कोई भारी चीज गिरी हो।’

मैं सिहर गया था। अम्माँ कभी झूठ नहीं बोलती थीं। मुझसे बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस वक्त उनके माथे पर तीन झुर्रियाँ बनी हुई थीं। उनकी आँखें भी एक ही जगह ठहरी हुई थीं। मैं जानता था कि ऐसा तब होता था जब अम्माँ बिल्कुल पूरा सच बोला करती थीं। मुझे उनकी बात पर विश्वास हो गया था। मैंने उनकी हथेली कस कर पकड़ ली। अम्माँ ने गहरी साँस ली। जैसे उन्हें किसी बड़े संकट से मुक्ति मिली हो।

‘बच गई मैं। अगर उस वक्त मैं आँगन के दक्षिण की तरफ होती तो वे दोनों पत्थर मेरे ऊपर ही गिरते। मैंने जा कर उन पत्थरों को देखा, तो चौंक गई।’

कुछ देर चुप रहने के बाद अम्माँ ने कहा, ‘वे दोनों पत्थर, पत्थर नहीं थे। वे अरेबा-परेबा ही थे। मैंने उन्हें उठा कर घिनौची के नीचे रख दिया है। जाओ खुद देख लो।’

मैं अम्माँ के साथ वहाँ गया। आँगन के दक्षिणी तरफ, जिधर हमारा गुस्लखाना था, उसी तरफ घिनौची थी। लकड़ी के दो खंभों पर टिका हुआ काठ का एक पटरा। हमारे घर भर के पीने के पानी के मटके उसमें रखे जाते थे। एक ताँबे का, बाकी मिट्टी के। उसी के नीचे, अजब आकार के, बेडौल-से, वे दोनों पत्थर रखे हुए थे।

कत्थई और भूरे रंग के दो पत्थर के ढेले।

मैंने गौर से देखा। वे सचमुच जंगली खरगोश के छौनों की तरह लग रहे थे। उनकी आँखें थीं। पीठ थी। वे सिमट कर बैठे हुए थे। उन्होंने अपने कान सिकोड़ रखे थे। वे डरे हुए लग रहे थे।

‘वे लोग शायद देवताओं के बदमाश लड़के थे। अपनी उड़नतश्तरी में वे रात में घूमने निकले होंगे। लगता है, जब तुम रात में, आँगन में, अरेबा-परेबा को दूध पिला रहे थे, तब उन्होंने तुम्हें देख लिया होगा। इसीलिए कहा जाता है कि आधी रात के बाद घर के बाहर नहीं निकलना चाहिए। बाहर पता नहीं किसकी किसकी आँखें अँधेरे में होती हैं।

‘कभी-कभी तो रात की चिड़ियाँ, पहरुए या कीड़े-मकोड़े भी देवताओं को धरती की सारी बात बता देते हैं। झींगुरों को तुम कम मत समझो। एक-एक आदमी की दिन भर की सारी बात, वे गा-गा कर सारी रात देवताओं को बताते हैं।

‘तुम्हें मालूम है, आदमी के अलावा बाकी हर प्राणी असल में ईश्वर का जासूस होता है। चींटियाँ और मक्खियाँ तक। कुत्ते, बिल्ली, बैल और चमगादड़ तक। जुगनू भी।’

मैं अवाक् हो कर उन दोनों पत्थरों को देख रहा था। हाँ, वे अरेबा-परेबा ही थे। मैं दुख में डूब रहा था। कुछ भी हो, मैंने तो उन्हें अब खो ही डाला।

अम्माँ लगातार बोले जा रही थीं,

‘आदमी लोग सोचते हैं, उन्हें कोई नहीं देख रहा। लेकिन ईश्वर के ये जासूस उन्हें हर पल देख रहे होते हैं। छिपकली, चूहे और मच्छर तक…। यहाँ तक कि पेड़-पौधे और घास तक। कई कीड़े-मकोड़े तो ऐसे होते हैं, जिनकी आँख में कैमरे का लेंस लगा होता है। कौन क्या कर रहा है, एक-एक पल की, धरती के एक-एक कोने की, एक-एक इनसान की जानकारी लगातार भगवान तक पहुँचती रहती है…

‘लेकिन मैंने भगवान का क्या बिगाड़ा था? वे मुझसे मेरे अरेबा-परेबा क्यों छीन ले गए…?’ यह मेरा सवाल था।

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‘भगवान ने नहीं, देवताओं के बदमाश और शरारती बच्चों ने तुम्हारे खरगोशों को चुराया। भगवान ने जब उन्हें डाँटा होगा, तो उन्होंने उन्हें पत्थर बना कर नीचे वापस गिरा दिया…!’ अम्माँ ने कहा, ‘अब चलो, थोड़ा-सा खा लो। सुबह की पूरियाँ, मींजा और सेवईं मैंने बचा कर रखी हैं। अगर तुम खाओगे, तो मैं भी खा लूँगी।’

मैं हालाँकि रोता रहा। अरेबा-परेबा को दो पत्थरों के रूप में वापस पा कर भी मेरे भीतर का खालीपन भरा नहीं था। इस आकस्मिक वंचना और देवताओं के बदमाश बच्चों द्वारा किए गए अन्याय की पीड़ा बहुत गहरी थी।

भला उन नन्हें-नन्हें खरगोश के बच्चों की क्या गलती थी, जिन्हें अकारण पत्थर के बेजान, बेडौल ढेलों में बदल दिया गया था। न अब वे साँस ले सकते थे, न भूख लगने पर रुई के फाहे से दूध पी सकते थे। पत्थर बने हुए, भीतर से वे कितने बेचैन होंगे। प्यास लगती होगी, तो पत्थर बने वे कितना तड़पते होंगे।

अब तो बड़े हो कर हजार मील दूर किसी जंगल, खेत की मेड़ या किसी आँगन में उगी दूब को देख लेने का सपना भी वे नहीं पाल सकते थे।

अम्माँ ने भी, दिन भर के बाद, मेरे साथ खाना खाया। वे मुझको बहुत अच्छी तरह समझती थीं। मेरे भीतर के दुख और खालीपन का उन्हें पूरा-पूरा पता था।

शायद इसीलिए खाना खाने के बाद उन्होंने मेरी ओर बहुत प्यार, करुणा, असहायता और उदासी के साथ देखते हुए कहा :

‘लेकिन मुझे पक्की उम्मीद है कि एक न एक दिन, जब देवताओं के वे लड़के या कोई दूसरा नेक देवता, इधर, हमारे आँगन से हो कर गुजरेगा, तो वह इन दोनों पत्थर के ढेलों को वापस अरेबा-परेबा बना कर, जिंदा कर देगा…! भगवान के इतने दूत और जासूस धरती पर हैं, कोई न कोई तो इस अन्याय और तुम्हारे दुख के बारे में उन्हें बताएगा ही…!

मुन्ना, तुम खुश रहना सीखो !’

यह घटना कम से कम चालीस-बयालीस साल पहले की है।

मैं कई-कई बार घंटों, घिनौची के नीचे रखे पत्थर के उन दोनों ढेलों को घूरता रहता। देवताओं से मन ही मन प्रार्थना करता हुआ कि वे उन्हें जंगली खरगोश के बच्चों में वापस बदल दें।

कई-कई बार मुझे भ्रम होने लगता कि वे दोनों, भूरे-कत्थई ढेले धीरे-धीरे हिल-डुल रहे हैं। मैं उनके निकट जा कर उन्हें टकटकी बाँध कर घूरता। मुझे बिल्कुल लगता कि वे साँस ले रहे हैं। उनका पत्थर का शरीर धीरे-धीरे काँप रहा है।

एक बार तो मुझे पूरा यकीन हो गया कि उनमें से बड़ावाला अरेबा, जो ज्यादा सुस्त और काहिल था, वह सचमुच जिंदा हो रहा है। मैं भागता हुआ गया और कटोरे में थोड़ा-सा गाय का दूध ला कर उसके मुँह से लगा दिया। आप विश्वास करें, पत्थर का अरेबा, कटोरे का सारा दूध पी गया। उसके दुबारा जीवित हो जाने की खुशी और उत्तेजना में मेरे आँसू निकलने लगे।

लेकिन मेरी बहुत प्रतीक्षा और गिड़गिड़ाने के बावजूद अरेबा वैसा का वैसा ही रहा आया। शायद दूध पीने से उसका पेट भर गया था और वापस मेरी दुनिया में लौटने के बारे में उसकी रुचि समाप्त हो चुकी थी। वह पत्थर बना ही खुश था।

इस घटना के चार-पाँच साल बाद अम्माँ मर गईं थीं। उन्हें कैंसर हो गया था। उनकी श्वासनली गल गई थी और अंत में वे बोल नहीं पाती थीं।

कई-कई बार एक गहरा अपराधबोध मुझे होने लगता है। कहीं मेरी जिद और गुस्से से हार कर अम्माँ ने उस रात की जो बात मुझे बता दी और जिसका पाप उन्होंने अपने ऊपर सिर्फ इस कारण ले लिया कि मैं खाना नहीं खा रहा था और मेरे शरीर से दो चिड़ियों के बराबर मांस कम हो गया था, कहीं देवताओं ने उसी का दंड तो उन्हें नहीं दे दिया। देवता कोई आदमी तो होते नहीं कि उनके भीतर कोई दया-माया हो। मैं हूँ ही ऐसा। अपनी जिद और अपने गुस्से में मैं अंधा हो जाता हूँ।

लेकिन उन देवताओं को भी तो स्वर्ग में रहने का कोई हक नहीं है, जो खरगोश के नन्हें-कोमल छौनों को इस तरह पत्थर के ढेले में बदल देते हैं। और किसी माँ को एक छोटी-सी बात बता देने पर उसकी साँस लेनेवाली नली गला देते हैं।

कितना अभागा हूँ मैं। मैंने सेमलिया के दिए हुए जंगली खरगोश के दोनों बच्चों, अरेबा-परेबा को ही नहीं, अपनी माँ को भी खो डाला, जो दुनिया में सबसे अच्छी थीं।

अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ। लेकिन हमारे गाँव के घर के आँगन में अम्माँ के रखे हुए वे दोनों पत्थर अभी भी मौजूद हैं।

मैं अब तब की तरह, छह-सात साल का नहीं हूँ। अब यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि उस रात वास्तव में क्या हुआ होगा।

दरअसल, परछी और भंडार की दीवार की संध में अम्माँ का बनाया घर उतना सुरक्षित कभी नहीं था। तार की जाली का दरवाजा जो, इधर-उधर की दीवाल पर, अँधेरे में किसी तरह ठोंकी गई दो कीलों पर टिका था, वह एक मामूली झटके में गिर जानेवाला था। कीलों समेत।

उस रात जब मैं सो गया था और अम्माँ अपनी माँ यानी मेरी नानी का गीत गा रही थीं, उसी वक्त वह वनैला, हिंसक और आवारा वनविलाड़, जिसे हम बग्घा कहते थे और जो अपने ही बच्चों का गला काट डालता था, वहाँ आया होगा।

उसे खरगोश के छौनों के नर्म, भूरे-कत्थई रोयों से उठती गंध मिल गई होगी।

हो सकता है वह तभी से अँधेरे में घात लगाए बैठा रहा हो, जब मैं उन दोनों को रुई के फाहे से दूध पिला रहा था।

उसकी आहट से चौंक कर अम्माँ किसी तरह अँधेरे में रास्ता टटोलते हुए वहाँ तक पहुँची होगीं, क्योंकि रात में मिट्टी का तेल बचाने के लिए वे हमेशा लालटेन बुझा देती थीं। तब तक बग्घा ने अरेबा-परेबा को काट डाला होगा।

वे थे भी कितने छोटे। और कोमल। कत्थई-भूरी रुई की दो नन्हीं गठरियों की तरह।

जैसा मैं था, अम्माँ यह अच्छी तरह जानती थीं कि मैं उस हादसे को सह नहीं पाऊँगा। उन्होंने सबसे ज्यादा अपने आप को अपराधी माना होगा। उन्होंने सोचा होगा कि अगर वे लालटेन ले लेतीं और रोशनी में कीलें ठोंकी होतीं, तो तार की जाली का फाटक इतना कमजोर न होता। दरअसल कीलें दीवार में धँसी ही नहीं थीं, इसीलिए सुबह जब मैंने देखा तो उनके निशान मुझे नहीं दिखे थे। निश्चित ही वे इस हादसे के लिए अपने आपको जिम्मेदार मानती रही होंगी। अम्माँ ने इसीलिए उस रात वह सब किया, जो मैं अपने अनुमान के आधार पर, आज चालीस-बयालीस साल बाद आपको बता रहा हूँ।

अम्माँ उस रात वहाँ पहुँच कर स्तब्ध रह गई होंगी। अपनी समझ से उन्होंने अरेबा-परेबा के लिए हर तरह से एक सुरक्षित और अभेद्य घर बनाया था।

फिर उन्होंने अरेबा-परेबा के मृत शरीरों को उठाया होगा और उन्हें घर के पिछवाड़े, जिधर नदी बहती है, वहाँ कहीं गड्ढा खोद कर उन्हें दबाया होगा। गड्ढा खोदने के लिए उन्हें भंडार घर में रखा सब्बल, उस अँधेरे में खोज कर निकालना पड़ा होगा। क्योंकि तेल बचाने के लिए लालटेन वे खुद सोने के पहले बुझा देती थीं।

इसके बाद उन्होंने घर के पिछवाड़े ही कहीं, अरेबा-परेबा के घर में डाले गए रजाई के टुकड़ों और मेरी पुरानी कमीज को जलाया होगा। अगर मैं उस दिन जिद और गुस्से में भर कर अपने आप को कमरे में बंद न कर लेता, बल्कि अरेबा-परेबा की खोज में बाहर निकल जाता, तो उन कपड़ों के जलने का सबूत मैं वहाँ पा सकता था। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वहाँ कहीं न कहीं राख जरूर रही होगी।

इसके बाद अम्माँ ने धीरे-धीरे अरेबा-परेबा के होने के सारे निशानों को मिटाया होगा।

उन्हें यह पूरा भरोसा रहा होगा कि अगली सुबह वे मेरे भीतर यह भ्रम पैदा करने में सफल हो जाएँगी, कि वह सब कुछ पिछली रात का एक सपना था और कुछ नहीं।

जैसा मैं था, उन्हें भरोसा रहा होगा कि वे मुझे इस भ्रम या दुविधा में डालने में कामयाब हो जाएँगी कि मैंने वह सब कुछ नींद में ही देखा था और उसे सच समझ बैठा था।

लेकिन अम्माँ आँगन से काँसे का कटोरा और रुई का फाहा हटाना भूल गईं।

यही सबसे बड़ी चूक, उस रात, उनसे हुई।

और उन्हें उस गंध का पता ही नहीं था, जो अरेबा-परेबा के कारण खुद मेरे शरीर और कपड़ों से उठने लगी थी।

…और फिर दूसरे दिन, मेरे लगातार रोते रहने और खाना-पीना छोड़ देने पर, पूरी दोपहर वे नदी के कछार में दूर-दूर तक भटकती रही होंगी।

वहीं उन्होंने खूब सोच-समझ कर एक कहानी गढ़ी होगी। …और वहाँ उन्होंने दो ऐसे पत्थरों को अंततः खोज निकाला होगा, जो जंगली खरगोश के बच्चों जैसे हों। माँ ने उन दोनों पत्थर के ढेलों को आँगन के दक्षिणी तरफ, घिनौची के नीचे ला कर रखा होगा।

इस पूरे दौरान वे अपने भीतर-भीतर वह कहानी बुनती रही होंगी। वे अच्छी तरह से जानती थीं कि मैं उनसे बहुत प्यार करता था और अगर दुनिया में किसी पर सबसे ज्यादा विश्वास करता था, तो वे खुद थीं। अम्माँ।

इसके बाद वे मेंरे कमरे में आई होंगी और मुझे वह कहानी सुनाई होगी।

लेकिन यह तथ्य आप बिल्कुल मत भूलिए, और मैं भी इसे कभी, बहुत सारी कोशिशों के बावजूद नहीं भूल पाता कि इतना सब करते हुए अम्माँ लगातार भूखी और प्यासी थीं।

वे रात भर सो भी नहीं सकी थीं, क्योंकि सुबह, उठते ही, उन्हें बाबू के व्रत के निवारण के लिए पूरियाँ, बेसन का स्वादिष्ट मींजा और गाढ़े दूध की सेवईं बनानी थी।

और इतना सब करने के बावजूद वे अब तक इसलिए भूखी थीं कि मैं भूखा था।

अम्माँ अब नहीं हैं। लेकिन उनके लाए गए दोनों पत्थर अब भी हमारे आँगन में मौजूद हैं।

और यह सच है कि कहानी लिखना मैंने किसी और से नहीं, अम्माँ से ही सीखा है।

लेकिन हमेशा की तरह अब मैं आप सबको वह घटना बता रहा हूँ, जिसके बिना कोई भी कहानी कभी पूरी नहीं होती। एक ऐसी घटना, जिस पर मुझे स्वयं भी आश्चर्य होता है।

सन् 2001 की मई के महीने की यह घटना है।

उस रात मैं, अपने घर के आँगन में, अपनी खाट पर लेटा हुआ था। घर के सारे लोग सो चुके थे। ऊपर आकाश खूब गहरा, स्याह-नीला और बिल्कुल निरभ्र था। बिल्कुल साफ। सृष्टि के पहले, स्वच्छ, नवजात आकाश की तरह।

…और असंख्य नक्षत्र, ग्रह और उपग्रह उस आकाश के समूचे विस्तार में अनगिनती तारों की तरह दूर-दूर तक टिमटिमा रहे थे।

ऐसा आकाश आप शहर के लोगों के पास नहीं होता।

संभवतः चतुर्दशी का चंद्रमा था। लगभग पूरा होता हुआ। उसका ठंडा, शांत, पीला और महीन उजाला हर तरफ फैल रहा था।

हमारा आँगन चंद्रमा की उस पीतल के रवे जैसी हल्दिया धूल से ढक गया था।

और तभी मैंने देखा। मैंने अपनी आँखें मलीं। मैं जाग रहा था। मैंने साफ-साफ देखा, घिनौची के नीचे रखे वे दोनों पत्थर हिलने-डुलने लगे।

फिर मैंने देखा, वे दोनों पत्थर के ढेले आँगन में यहाँ-वहाँ उगी दूब के बीच पहले रेंगने, और फिर कुछ पलों बाद, दौड़ने लगे।

निश्चित ही वे दोनों अरेबा-परेबा ही थे। उन्हें देवताओं ने वापस जीवित कर दिया था। वे आँगन में खेल रहे थे। निर्भय। कत्थई-भूरी रुई की दो नन्हीं-नन्हीं गठरियाँ।

…और उनके रोयों से उठनेवाली वह अजब चिर्रायंध जंगली गंध। वह गंध चारों ओर फैल रही थी। समूचे आँगन में, चंद्रमा के शीतल उजाले में घुल कर मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतरती हुई। मैं डर गया। कहीं बग्घा आ गया तो?

अब तो अम्माँ भी नहीं हैं, जो उन दोनों छौनों की हत्या के बाद, उनकी जगह पर पत्थर रख दें। और अब तो बग्घों की संख्या भी बहुत ज्यादा हो चुकी है। वे अकेले नहीं, अब तो झुंड और गिरोहों में रहते हैं। मैंने उन्हें बड़ी-बड़ी इमारतों के भीतर, कुर्सियों पर भी बैठे देखा है। संसार का हर कोमल, पवित्र, निष्कवच और सुंदर जीवन इस समय गहरे खतरे के बीच है।

आप गौर से देखें, हमारे समय की हर दीवार पर खून के छींटे हैं।

आप स्वयं बताइए, क्या मेरे डर का कोई आधार नहीं है?

आप यह भी बताइए कि क्या आप इसी तरह चुप देखते रहेंगे और बग्घे वारदात करते रहेंगे?

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