अनकहा ही रह गया कुछ | जयकृष्ण राय तुषार

अनकहा ही रह गया कुछ | जयकृष्ण राय तुषार

अनकहा ही रह गया कुछ
रख दिया तुमने रिसीवर
हैं प्रतीक्षा में तुम्हारे
आज भी कुछ प्रश्न-उत्तर।

हैलो! कहते मन क्षितिज पर
कुछ सुहाने रंग उभरे
एक पहचाना सुआ जैसे
सिंदूरी आम कुतरे,
फिर किले पर
गुफ्तगू
करने लगे बैठे कबूतर।

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नहीं मन को जो तसल्ली
मिली पुरवा डोलने से
गीत के अक्षर सभी
महके तुम्हारे बोलने से,
हुए खजुराहो
अजंता
युगों से अभिशप्त पत्थर।

कैनवास पर रंग कितने
तूलिका से उभर आए
वीथिकाओं में कला की
मगर तुम-सा नहीं पाए,
तुम हँसो तो
हँस पड़ेंगे
घर, शिवाले, मौन दफ्तर।

सफर में हर पल तुम्हारे
साथ मेरे गीत होंगे
हम नहीं होंगे मगर ये
रात-दिन के मीत होंगे,
यही देंगे
भ्रमर गुंजर
तितलियों के पंख सुंदर।

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