अकेली औरत का हँसना
अकेली औरत का हँसना

अकेली औरत
खुद से खुद को छिपाती है।
होंठों के बीच कैद पड़ी हँसी को खींचकर
जबरन हँसती है
और हँसी बीच रास्ते ही टूट जाती है…

अकेली औरत का हँसना,
नहीं सुहाता लोगों को।
कितनी बेहया है यह औरत
सिर पर मर्द के साए के बिना भी
तपता नहीं सिर इसका…

मुँह फाड़कर हँसती
अकेली औरत
किसी को अच्छी नहीं लगती
जो खुलकर लुटाने आए थे हमदर्दी,
वापस सहेज लेते हैं उसे
कहीं और काम आएगी यह धरोहर!

See also  जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव | प्रदीप त्रिपाठी

वह अकेली औरत
कितनी खूबसूरत लगती है…
जब उसके चेहरे पर एक उजाड़ होता है

आँखें खोई खोई सी कुछ ढूँढ़ती हैं,
एक वाक्य भी जो बिना हकलाए बोल नहीं पातीं
बातें करते करते अचानक
बात का सिरा पकड़ में नहीं आता,
बार बार भूल जाती हैं – अभी अभी क्या कहा था
अकेली औरत
का चेहरा कितना भला लगता है…

See also  दुनिया का सबसे गरीब आदमी | चंद्रकांत देवताले

जब उसके चेहरे पर ऐसा शून्य पसरा होता है
कि जो आपने कहा, उस तक पहुँचा ही नहीं।
आप उसे देखें तो लगे ही नहीं
कि साबुत खड़ी है वहाँ।
पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती है
और आधी पौनी ही दिखती है।
बाकी का हिस्सा कहाँ किसे ढूँढ़ रहा है,
उसे खुद भी मालूम नहीं होता।
कितनी मासूम लगती है ऐसी औरत!
हँसी तो उसके चेहरे पर

See also  पराजित भाषा-विमर्श | बसंत त्रिपाठी

थिगली सी चिपकी लगती है,
किसी गैरजरूरी चीज की तरह
हाथ लगाते ही चेहरे से झर जाती है…

Leave a comment

Leave a Reply