आटे की चक्की | अरुण देव

आटे की चक्की | अरुण देव

पंपसेट की धक-धक पर उठते गिरते कल-पुर्जों के सामने
वह औरत खड़ी है
पिस रहा है गेहूँ

ताजे पिसे आटे कि खुशबू के बीच मैं ठिठका
देख रहा हूँ गेहूँ का आटे में बदलना

इस आटे को पानी और आग से गूँथ कर
एक औरत बदलेगी फिर इसे रोटी में

See also  काक-दृष्टि | ए अरविंदाक्षन

दो अँगुलिओं के बीच फिसल रहा है आटा
कहीं दरदरा न रह जाए
नहीं तो उलझन में पड़ जाएगी वह औरत
और करेगी शिकायत आटे की

जो शिकायत है एक औरत का औरत से
वह कब तक छुपेगी कल-पुर्जों के पीछे

इस बीच पीसने आ गया कहीं से गेहूँ
तराजू के दूसरे पलड़े पर रखना था बाट

See also  नमक

उसने मुझे देखा छिंतार
और उठा कर रख दिया बीस किलो का बाट एक झटके में
पलड़ा बहुत भारी हो गया था उसमें शमिल हो गई थी औरत भी

उस धक-धक और ताजे पिसे आटे की खुशबू के बीच
यह इल्हाम ही था मेरे लिए

की यह दुनिया बिना पुरुषों के सहारे भी चलेगी बदस्तूर

See also  खड़ी बोली | अविनाश मिश्र