एकांत | अरुण देव
एकांत | अरुण देव

एकांत | अरुण देव

एकांत | अरुण देव

पहाड़ों की वह हरे रंग वाली सुबह थी
हिलता गाढ़ा रंग और उस पर चमकती हुई फिसलन
घाटी में सूरज गेंद की तरह लुढ़क रहा था
घास के गुच्छे में उसकी किरणें उलझ जातीं
विराट मौन का उजाला फैल रहा था घाटी में

See also  लंकेश और घोड़े | रविकांत

इस मौन में आज उसे पता चला अपनी पदचापों का
पलकों के गिरने की भी अपनी लय होती है
श्वासों के चढ़ने का अपना संगीत

अकेला होना असहाय होना नहीं होता हमेशा
यहीं से फूटती है अपनी लघुता को देखने की वह पगडंडी
जिधर अब कोई कम ही निकलता है

See also  अस्वस्थ होने पर | त्रिलोचन

उसकी देह तेजाब में भीगते-भीगते और तेज रोशनियों में जलते जलते
कुछ इस तरह हो गई थी कि
उसे जब तक जल में भिगोया न जाए वह अकड़ी रहती

जब उसने पुकारा जल
एक शालीन धार अपनी शीतलता के साथ एक सोते से
फूट पड़ी

जल के इस आगमन पर
उसने श्लोक की तरह कुछ उच्चरित किया
प्रार्थना के संबल से भर गईं उसकी आँखें

See also  अधलेटा सा पड़ा पीपल | मनोज तिवारी

देह ने अपने जल से जैसे इस जल का अभिषेक किया हो

इस निर्मलता के सामने
उसने अपने को काँपते हुए देखा।

Leave a comment

Leave a Reply