आवाज | चंद्रकांता
आवाज | चंद्रकांता

आवाज | चंद्रकांता – Aavaj

आवाज | चंद्रकांता

अमावस की उस अँधेरी रात। पहाड़ों की पाँत से घिरे गाँव की ढलुवाँ छतें हैं कि कजलाए ढूह और कोयले के ढेर। भूत-प्रेतों की आकारहीन शक्लों में घात लगाए खड़े लंबे ऊँचे दरख्त। झीना-झीना मेह अभी भी अटक-अटककर बरसे जा रहा है।

कीचड़-काँदों में घुटनों तक सनी लड़की छाती से पोटली चिपकाए ऊबड़-खाबड़ जंगल से बदहवास गुजरती खंडहरों में पहुँच गई है। अँधेरे में मुड़-मुड़ आहटें टोहती वह बूढ़े चिनार के तने से पीठ टिका, चौतरफा के परिदृश्य का अंदाजा लगाना चाहती है। कौन सी जगह है यह? पुलवामा? अनंतनाग? बिजबिहारा तो नहीं?

आस-पास कोई बस्ती नहीं आती। काले खंभे मुँह-नाक ढके मुजाहिदों की तरह आसमान में बंदूके ताने खड़े हैं। शायद वह मार्तंड के खंडहरों में पहुँच गई है।

उसने आस-पास टटोल-टटोलकर धरती को थपथपाया। नोकदार खुरदरे ढोक चट्टानों को हथेलियों से महसूस करते घिसट-घिसटकर सुरक्षित सी ओट ढूँढ़ ली। चौड़ी-सी चट्टान हाथ लगी, शायद ललितादित्य के समय की कोई ध्वस्त मूर्ति हो। आसमान के काले बादलों को चीरकर रोशनी की तलवार खिंच गई और पत्थरों का ध्वस्त साम्राज्य आँखों के आगे नंगा हो गया। हाँ, वह सचमुच ललितादित्य को आठवीं शताब्दी में निर्मित खंडहर हुए मंदिरों के प्रांगण में आ पहुँची है। ‘उन लोगों से काफी दूर। वे इधर नहीं आएँगे। आस-पास ही कहीं सेना जवान पहरे दे रहे होंगे।

मन भर वजनी टाँगें फैलाते उसके आँसू निकल आए। घुटनों में पीप पड़े फोड़े की तीखी पीर चीस रही है। गोद में ढकी-मुँदी बच्ची में साँस की आवन-जावन भी नहीं लगी रही। शायद बेहोश हो गई है। मर नहीं सकती। दम घुटाकर बैठने की आदी हो गई है। उसने कपड़ा हटाकर बच्ची का मुँह खोल दिया नाक के पास हथेली रखकर साँस महसूस की। ठंडे हाथों में गुनगुनी साँस छू गई तो भीतर कुछ सख्त सा जमा बूँद-बूँद पिघलने लगा। आदी हो जाता है। हर जुल्म का आदमी, चारेक मास की बच्ची भी इस नियम का अपवाद नहीं।

उसने बच्ची के कोमल गाल अपने गालों से सहलाए, हिलडुल से बच्ची कमजोर आवाज में किंकिआई इयाँ… इयाँ…।

लड़की की छाती में गुनगुनी लहर उमड़ आई। उसने कमीज के पटन खोल दिए। उँगली से बच्ची के होंठ टटोले और उसकी नाक बचाकर दूध पिलाने लगी। भूखी बच्ची के होठों में हरकत हुई, हलकी, सी पर जल्दी ही वह आकुल खोज में यहाँ-वहाँ मुँह मारती, नन्हें हाथ माँ की छाती पर रख दूध चूसने लगी।

लड़की ने बाँहों में लगभग भींचकर बच्ची के बालों में उँगलियाँ फेरीं दूध पीते उसकी आवाज गज भर देह, रह-रह सिहर उठती थी। कपड़ों के भीतर ढकी होने पर भी बच्ची भीग गई थी। लड़की ने चुन्नी का छोर निचोड़ बच्ची का सिर-माथा पोंछ दिया और अपने शरीर से चिपकाकर गर्मी देने की कोशिश की।

पत्थरों की ओट में बैठी लड़की अब वर्षा से सुरक्षित थी। चट्टानों के बीच यहाँ-वहाँ उगी जंगली घास और बिच्छू बूटियों के बीच कहीं-कहीं जुगनू चमक रहे थे। जिससे अँधेरे में छिपी अपशकुनी आकृतियों का अहसास तीव्र होकर भयावह लगने लगता था।

दूर बहते किसी नाले की हहराती साँय-साँय गहरी खामोशी को तोड़ रही थी।

किसी खंडित मूर्ति की टेक लगाकर बैठी लड़की की चेतना सुन्न हुई जा रही थी। भागते-छिपते किसी कटे पेड़ से टकरा, पैर के अँगूठे में खोंता लगा था। वह जगह बराबर टीसे जार ही थी। खून भी बह रहा हो शायद। गीली मिट्टी में लथपथ पैरों को खून और पानी का फर्क समझ नहीं आता।

तृप्त होकर बच्ची माँ की गोद में गुड़ीमुड़ी होकर सो गई। लड़की भी सोना चाहती थी पर अपशकुनी अँधेरा उसकी नसों पर हावी हो रहा था। करकती आँखों से वह आठवीं शती के उस महान सम्राट के साम्राज्य को चीन्हने की कोशिश कर रही थी जो अपने ही विश्वस्त सेनानायकों द्वारा छल से मारा गया था।

इस काली रात में क्या उस सम्राट की रूह यहीं कहीं भटक नहीं रही होगी? विजेताओं को अपने अमर साम्राज्य का खंडित चेहरा देखकर कैसा लगता होगा?

नींद के झोंकों से लड़की की गर्दन झकोले खा रही थी। आधी जाग्रत आधी सुषुप्तावस्था में कभी आँखें मुँद जातीं, कभी चौंककर खुल जातीं।

पत्थरों के बीच किसी रेंगते जीव के खिसकने-सरकने की आवाज से वह चौकन्नी हो आई। कोई भरी दरारों से लंबा सा साँप सरकर उसके पास गुजर गया था। कितने भयानक साँप रहते होंगे इन खंडहरों में। कहीं काट लेता तो इस नन्हीं जान का क्या हाल हो जाता? उसे तो खैर क्या डस लेते? साल भर से जहरीले नाग और बिच्छू उसकी देह में इतना जहर भर गए हैं कि साँप काट भी ले तो खुद ही मर जाए।

साँप की तरफ ध्यान जाते उसकी जबरदस्त इच्छा हुई कि वह उन्हें एक बार देख ले। मरे साँप का दाह-संस्कार करना चाहिए, माँ कहती है नहीं तो उनका कोई वंशज बदला लेने जरूर आ जाता है।

लेकिन क्या पता, साँप मरे ही न हों और उसका पीछा कर रहे हों, दबे-दुबके खोहों-दरों में रेंग-रेंगकर।

उसे लगा, सफेदों के जंगल बीच भागते, खलिहानों की कीच में धँसते पैर खींचकर निकालते अधमरे साँप बराबर उसका पीछा कर रहे थे। बच्ची की चीखों से उन्हें दिशाबोध न हो, इस ख्याल से उसने बच्ची का मुँह ओढ़नी से बाँध दिया था। ऐसा करते उसके भीतर हूक सी उठी थी। वे लोग लुकने-छिपने के दौरान हमेशा बच्ची का मुँह कपड़े से कसकर बाँध देते थे। उसकी चीखें बंद हो जाती और नन्हें गालों पर पानी लुढ़क आता।

लेकिन भावुकता के लिए उसके पास वक्त नहीं था। वे उन्हें पा गए तो छोड़ेंगे नहीं यह तय था। बच्ची की आवाज बंद हो गई तो पेड़-पौधों के बीच साँस लेती जीव-जंतुओं की ध्वनियाँ मुखर हो उठीं।

वे लोग शायद वापस लौट गए हों, कमांडर ने लौटने का आदेश दे दिया होगा। या लड़की के पीछे भागने से ज्यादा जरूरी काम याद आ गया होगा। क्या पता? नया साम्राज्य बनाने की जिद में जेहाद करने वाले कहते भी हैं कि उन्हें अगले पल कोई अता-पता नहीं होता।

लड़की ने मार्तंड के खंडहरों के प्रति आभार सा महसूस किया। यह ओट न मिलती तो अपने पैरों की आहटों से ही वह मारी जाती। साल भर उसने मरने की कामना भले ही की हो, अब वह जिंदा बच निकलना चाहती थी।

बैठे-बैठे पीठ पर सुरसुराहट सी दौड़ी, उसने खंभे से पीठ रगड़ ली। कोई कीड़ा था शायद मसल गया होगा। पास ही कहीं बिच्छू बूटी के झाड़ होंगे। टटोल-टटोल धरती छूने और रास्ता तलाशने से हाथों में खासी घुजली भरी जलन मच रही थी। उसने नोंकदार पत्थर से रगड़-रगड़ अपनी हथेलियाँ छील दी।

दूर से नदी का स्वर विलाप कर रहा था। अँधरी रात का स्यापा। चूर हुई देह इस एकांत रुदन की गूँज से सुन्न हुई जा रही थी। या शायद वनस्पतियों की महक का प्रभाव हो।

काले केनवास पर तेजी से रीलें खिंचती जा रही हैं। एक के बाद दूसरी लंबे-लंबे हाथ अंधी खोह में खींचे जा रहे हैं।

विनी। विनू। निकी। रा… नू… पास से गुजरती आवाजों का कारवाँ।

‘हिकटा मिकटा बोय अनिनम डून्य काह…

कीकली कलीर दी। पग मेरे वीर दी।’

‘नहीं। आल माल पहला थाल, माँ मेरी के लंबे बाल।’

कितने लंबे बाल थे माँ के, जब उन्होंने केश पकड़कर माँ को घसीटकर कमरे में पटक दिया तो उनके बाल कमर तक फैल गए थे।

वह शायद प्रलय की रात थी। ओले, तूफान और आँधी। खिड़कियों, दरवाजों की चूलें हिल उठी थीं। माँ-बाप के साथ वह भी खिड़कियों की चिटकनियाँ लगाने में जुट गई थी।

उस दिन शहर में कर्फ्यू था। जंगजुओं का कर्फ्यू। बिजली गुल। साँसें भी डर-डरकर बाहर आ रही थी। माँ-बाप और वह एक ही रजाई में घुसे सोने की कोशिश कर रहे थे। तभी दरवाजे पर थापें पड़ने लगी थी। पापा दरवाजा खोलने उठे तो माँ ने रोक लिया था – “पहले झिरी से देख लो” “कुछ नहीं होगा।” सफेद चेहरे से पापा दरवाजा खोलने मुड़े कि चार युवक लातों से द्वार तोड़ उसके घर में घुस आए। काले कपड़े से मुँह आँख ढके।

माँ की चीख निकल आई… “ये… ये तो यमदूत हैं।”

“डरो नहीं, हम तुम्हें मारने नहीं आए। रात भर रहकर सुबह-सवेरे चले जाएँगे।”

“हाँ-हाँ…” पापा ने जाने कहाँ से बेजान हाथों में हरकत लाई – “आइए आओ बेटा!”

“हमारे पीछे पुलिस लगी है। कोई इधर पूछने आए तो कहना, यहाँ कोई नहीं है। समझे?”

“हाँ…हाँ…” मैं सिर हिलाते पापा खातिरदारी में लग गए। माँ ने दूसरे कमरे में गद्दे खेस बिछा दिए।

“हमें भूख लगी है, खाना खाएँगे।” उन्होंने हुकुम दिया। जैकेट वाला युवक शायद उनका सरदार था। अपनी तरफ का तो नहीं लगा। किताबी उर्दू बोल रहा था।

“हाँ, क्यों नहीं, तुम्हारा ही घर है।”

माँ ने सोचा होगा, आवभगत करेंगी तो हमें बख्श देंगे। “तब तक हाथ सेंक लो।” माँ ने दहकती काँगड़ी थमाई और चौके का रुख किया।

वक्त जैसे ठहर गया। हवा में आक्सीजन की इतनी कमी कि माँ-बाप और विनी एक-एक साँस के लिए हाँफने लगे। तभी दाढ़ी वाले ने धमाका-सा कर दिया।

“सुनो, अपनी लड़की को पानी देकर भेज दो। हमें रात को प्यास लगती है।” दाढ़ी वाला साथियों की ओर देख भद्दे ढंग से मुस्कुरा दिया।

माँ-पापा पानी का जग-गिलास लिए कमरे की चौखट पर खड़े हो गए तो दाढ़ी वाले का माथा सिकुड़ गया – “सिर पर कफन बाँधकर निकले हैं हम। एक खून का सजा फाँसी तो दस खून की सजा भी वही फाँसी। समझे ना? ज्यादा चालाकी करोगे तो जान से हाथ धो लोगे।”

उसका हाथ पिस्टल पर चला गया, विनी की टाँगें थरथराने लगी। वह बदहवास हो घर के कोने-अंतरे ढूँढ़ने लगी। लपककर खिड़की की चिटकनी खोल दी और गली में कूद गई। बाहर सन्नाटा साँस रोके बैठा था। दूर तक कोई आदमजाद नहीं। खिड़की से कूदने पर भी उसकी टाँगों में चोट लगी। घुटनों पर हाथ दिए वह उठकर भागने वाली ही थी कि दाढ़ी वाले ने फुर्ती से झपटकर बाँह पकड़ ली और बेदर्दी से अंदर खींच लिया।

“वाह छोकरी। अपने प्यारे अब्बा-अम्मी की लाशें देखना चाहती है?”

कमरे की ओर घसीटते उसने विनी की ढकी-मुँदी देह उखाड़नी शुरू कर दी।

“प्लीज ऐसा मत करो। नहीं… नहीं…”

विनी ने हाथ-पैर मारे। दाँतों-लातों से अपना बचाव करने की कोशिश की। रोते-गिड़गिड़ाते श्रीकृष्ण को याद किया। पर श्रीकृष्ण ने चीर नहीं बढ़ाए। माँ-बाप बंद कमरे में बेटी की दबी-घुटी चीखें सुनते रहे और ईश्वर से सहायता माँगते रहे। लेकिन ईश्वर कर्फ्यू की रात में कैसे आ पाता?

विनी को मरना था, मर गई। एक देह बच गई, तुड़ी-मुड़ी टुकड़ा-टुकड़ा हुई देह जिसे लार टपकाती नजरों से देखते कंजी आँखों वाले युवक ने माँ से कहा – “तुम्हारी लड़की सरदार को भा गई। खुशकिस्मत हो। यों अब तुम्हारी बिरादरी में किसी काम की नहीं रही। नापाक हो गई।”

उस वक्त पापा के हाथ बंधे थे। माँ के मुँह में कपड़ा ठुँसा हुआ था। कमरे के बीचो-बीच चित पड़ी माँ मरी हुई लग रही थी। यों हाथ खुले भी होते तो भी क्या होना था?

वे लोग वनी को भी अपने साथ ले गए। जहाँ-जहाँ गए। मुँह आँख पर पट्टी बाँधना कभी भूले नहीं वह चलती रही उनके साथ-साथ। एक जगह से दूसरी, दूसरी से तीसरी, कभी गाय बाड़े में, कभी भूसा कोठरी में, कभी धुर जंगल के खोहों-खंदकों में। उनके पिस्टल बारूद, ए.के. सैंतालीस, कलाश्निकोव आदि जरूरी नगों के साथ एक और जरूरी नग… विनी।

साल भर वह कड़े पहरों में रही। एक रात वे देर तक डेरे पर नहीं लौटे। अच्छा मौका था भाग निकलने का, लेकिन भागना आसान नहीं था। उनके लोग हर नाके-कोने में छिपे उसी गतिविधियों की टोह लेते रहते थे। विनी को मरने की इजाजत नहीं थी। भागने की गलती को उन्होंने माफ नहीं किया, तीन जने चले जाते तो चौथा उसकी चौकीदारी पर तैनात रहता।

“तुम भी जाओ, मैं कहीं नहीं जाऊँगी। वे लोग जरूरी काम कर रहे हैं। विनी उसे टरकाने की कोशिश करती, पर वे लोग खूँखार दरिंदे भले हों, बेवकूफ नहीं थे।”

उनकी नोच-खसोट से विनी की आत्मा जख्मी हो गई थी। अपने माल की हिफाजत भी तो जरूरी काम है। वे हँसते तो उनके काले मसूढ़ों में फँसे खून सने कच्चे गोश्त के रेशे नमूदार हो जाते। विनी अपने भीतर घुस जाती। इन दागदार मसूढ़ों में चाकू में घोंप दें तो क्या हँस पाएँगे ये कच्चे गोश्त के आहारी?

पहले विनी को उबकाई आती थी। उसने उनके कपड़ों पर उल्टी करने के अपराध में लात-घूसे भी खाए थे। लेकिन अब आदत हो गई है।

हर रात तारे मेखें बनकर आसमान में ढुक जाते। विनी के भीतर कई हिंस्र जीव जबड़े कसता रहता। काश! वह ये मेखें उनकी आँखों में ठोंस पाती।

रात भर वह तरकीबें सोचती रहती। सुबह उनके लिए खाना बनाने में जुट जाती। देर होने पर वे बौखला जाते थे।

इस बीच वह एक बच्ची की माँ बन गई। उस रात गौशाला में पुआल के ढेर से छटपटाते उसने ईश्वर को जी भर कोसा। लिजलिजे होंठ वाला गाँव से किसी औरत को बच्ची की नाल काटने के लिए पकड़ लाया था, औरत सहमी हुई थी। उसने रक्त सने पुआल के ढेर पर माथा औधा कर जगह साफ कर दी तो खून का नाला गौशाला के बीच बह निकला। उस वक्त जन्म और मृत्यु की मिली-जुली गंध सूँघते लड़की को लगा कि वह रक्त नदी में बह रही है। गाँव से लाई गई औरत ने चिथड़ों से विनी को पोंछ-पोंछ कर सूखे पुआल पर लिटा दिया। उस वक्त उसके हाथों के साथ ओंठ भी काँप रहे थे।

वे लोग बच्ची से मुक्त होना चाहते थे उन्होंने बच्ची औरत को थमाकर कुछ आदेश-निर्देश भी दिए। लेकिन औरत जाते-जाते लौट आई और उन लोगों के मुड़ते ही बच्ची को कपड़ों में लपेटकर माँ के बगल में लिटा दिया। लड़की की छातियाँ अपने अधमैले दुपट्टे से पोंछकर उसने बच्ची के होठ छुआ दिए। लेकिन बच्ची और माँ दोनों को तमाम तमाशे से तटस्थ देखकर औरत ने गरम उसाँस भरी, ‘हय बदबख्त, खोदाय मोकलाविनय।’ (हाय बदकिस्मत, ईश्वर तुझे शक्ति दे)।

उसके आखिरी शब्द विनी भूल नहीं पाती। वह दुआ थी या बद्दुआ? बदख्त विनी थी या निष्पाप बच्ची, जिसकी मौत की कामना उन लोगों के साथ औरत ने भी की थी?

विनी ने उस वक्त होश में आते ही चाहा था कि इस नन्हीं मांस पिंड की गर्दन पर दबाव डाल अपनी टूटी देह-आत्मा को बदल ले। पर इस बेहद आसान काम के लिए उसके हाथ नहीं उठे। उसके भीतर बैठा हिंस्र जीव इतनी आसानी से तृप्त नहीं हो सकता था बल्कि उसकी इस हरकत से तो उन शैतानों को ही मुक्ति मिलती थी।

दूसरे दिन जब बच्ची की नाभि में पीप पड़ गई और वह जोर-जोर से चीखने लगी तो उन्होंने अपने बचाव के लिए उसे खत्म करना निहायत जरूरी समझा। विनी के भीतर अचानक अंधड़ सा उठा। विचित्र सा अंधड़ उसने उनके पैर पकड़ लिए – “मैं इसका मुँह बाँध दूँगी। यह नहीं रोएगी। देखो इस बेचारी को कितनी तकलीफ हो रही है। रहम करो इस पर…”

वे लोग विनी को आश्चर्य से देखते रहे। शायद तरस भी खा गए सोचा हो कि इस पिद्दी सी जान को टेंटुआ दबाकर कभी भी चुप कराया जा सकता है। फिलहाल उन्होंने बच्ची का मुँह विनी की पुरानी चुन्नी से कसकर बंद कर दिया और बच्ची को लगभग उछालकर विनी की गोद में डाल दिया – “तुम तो क्या बाँधोगी इसका मुँह! तुझे तो बेकार की इल्लत से ‘अमार’ हो गया है।”

वे बार-बार बच्ची की आवाज से गुस्साते। हर बार कपड़े का पट्टा कसकर उसके मुँह पर बाँधा जाता। उनके आँखें ओट होते ही विनी बच्ची का मुँह खोल देती और फिरन के अंदर छिपा लेती। बच्ची के दूधिया चेहरे पर कपड़े के अक्स खुद गए थे। कपड़ा खुलने पर भी वह दूध पीने के लिए होंठ हिला नहीं पाती। विनी आँच पर कपड़ा गरम कर उसके मुँह और पेट पर टकोरे देती। माँ के बताए नुस्खे बच्चे पर आजमाती। बच्ची उसकी कच्छड़ में सिकुड़कर चिपक जाती। उसकी दो हाथ की हड्डियल देह अक्सर घुसी-घुटी सिसकियों से सिहरा करती। विनी की बेहिस्स होता मन ऐसे में गर्म मोम की तरह टपकने लगता। अपनी देह की छिछालेदार की गवाह इस निष्कलुष जीव में उसका अपना ही अंश, अपने से बाहर आकर उसका हमराज बन गया था। इसे वह हर हाल में सुरक्षित रखना चाहती थी।

सड़क से कोई ट्रक गुजरा है। घरघराती आवाज के साथ ट्रक की हेडलाइट्स अँधेरे को चीरकर खंडहरों के बीच आगे बढ़ गई है। सेना की गश्त होगी। विनी खंडहरों के बीच उकड़ू बैठ दुबक गई। भीतर बैठे डर से वह अभी भी मुक्त नहीं हो पाई। सेना तो रक्षक है पर अकेली औरत को देखकर रक्षक का मन न डोल जाए इसकी गारंटी तो इतिहास पुराण भी नहीं देते। फिर रात के अभेद्य अँधेरे में पसरे सुनसान के बीच खंडहरों में प्रेतिनी सी घूमती औरत शक के दायरों में आएगी ही आएगी।

यों वह अब अच्छी लड़की कहाँ रह गई? उसकी राह में पलक पाँवड़े बिछाने वाले लोग अतीत हो गए। माँ-पापा बचे ही होंगे तो क्या बाँहें खोलकर उसे अंकोर लेंगे?

उसे उग्रवादियों के बीच रही उस लड़की की याद आई जो उनकी चंगुल से निकल, मीलों-मील खतरों के जंगल पार करती शरणार्थी शिविरों तक पहुँच गई पर स्वयं याचक बने शरणार्थी समाज ने उसे अपने शिविर में गज भर जगह भी न दी। सचमुच विपत्ति व्यक्ति को ही तोड़ती, उसके विवेक को भी ध्वस्त कर देती है।

विनी के भीतर गुस्सा धधक उठा। वह आभिजात्य ब्राह्मणों के घर में क्यों जन्मी? अपनी जाति का नाश करने वाले देवस्वामियों की पवित्रता पर रोने का मन हुआ, लेकिन उसकी आँखों की नमी बहकर निःशेष हो चुकी थी। अब उसमें शुष्क जलन करक रही थी। साल भर दरिंदों के साथ रहकर उसने अपने सीने में एक हिंसक जीव पाल रखा था, जो साँप-बिच्छुओं से अँटे के बीच भी उसे जीने के लिए उकसा रहा था।

उसने उस हिंसक जीव से दोस्ती कर ली क्योंकि उसके साथ माया, मोह, ममता, प्यार-व्यार की कोई बंदिशें या तवालतें नहीं थीं… वह एक अग्निपिंड था जिसने विनी को ग्लेशियर होने से बचा लिया। वह न होता तो इतनी आसानी से विनी कब्र से बाहर आ पाती?

विनी पूरी तन्मयता से उन लोगों की सेवा में खड़ी रहती। वे बर्फबारी में कभी सीमा पार सामान लाने चले जाते। उनके पैर बर्फीली ठंड से सूज जाते। वह चिलमची में नमक डाला गरम पानी लाकर उनके पैर सेंकती। एनकाउंटर में कोई जख्मी हो जाता तो एहतियात से पट्टी बाँध देती जैसे जन्म की नर्स हो। वे भी उससे खुश रहने लगे थे।

“तू तो डाक्टर बनना चाहती थी न? लो, हमने तुम्हें इम्तहान दिए बिना ही डॉक्टरों का सर्टीफिकेट दे दिया।”

इधर भूसा कोठरी में चूहों ने आतंक मचाना शुरू कर दिया था। एक लंबी नाक वाले का अँगूठा काट खाया। गोली दागने में माहिर लंबी नाक वाले को हाय-हाय करते देख विनी ने बाहर से संजीता, भीतर से खुश होकर सोचा, इसकी नाक कुतर डालते तो अच्छा था।

उस दिन सरदार परेशान था। उसके कुछ यार दूसरे गुट में शामिल हो गए थे। ‘कोई ईमान ही न रहा सालों में।’ उसने जबरदस्त मिला था।

विनी माथा दबाती रही। रात भर चूहे सरदार की टाँगों पर उछल-कूद करते टप्पे खेलते रहे। उसने गुस्से में आकर दो-चार चूहों को गोली से भून दिया और पूँछ पकड़ दरवाजे से बाहर फेंक आया।

विनी को दहशत हुई। ऐसे ही आदमियों के साथ करता होगा? उसने चिंता से कहा – “कितनी गोलियाँ बरबाद करोगे। चूहे मारने की दवा क्यों नहीं लाते?” इस पर मोटे होंठ वाले ने उसे खा जाने की नजरों से देखा, “हमें मारना चाहती है बदजात? पिंजरा चूहों के लिए काफी है। तुम इसकी फिक्र मत करो, अपने काम से काम रखो।”

लेकिन वे जंगली चूहे थे। पिंजरे में रहना कबूल नहीं था। “ला दो दवा, मैं आटे की गोली में मिला बिलों के मुँह पर रख दूँगी या ‘होगाड’ (सूखी मछली) में लपेट दूँगी। तुम लोग भी चैन से सो पाओगे।”

उस रात विनी ने सरदार की बड़ी सेवा की। वह शायद उसकी बच्ची का बाप था। या क्या पता वह वाला जो उसके मुँह पर कपड़ा कस देता था।

सरदार प्यार के अतिरेक से मारा गया, टिक ट्वेंटी या नीला थोथा जैसी कोई जहरीली पुड़िया लाकर उसे थमा दी – “जरा ख्याल में रखना। बाद में साबुन मलकर हाथ धो लेना, नहीं तो चूहों के साथ हमारी चुहिया भी जन्नत को रवाना होगी।” सरदार ने प्यार से हिदायत दी।

वे लोग खी-खी कर दाढ़ें दिखाते रहे। विनी ने उनके खून से सने जबड़ों को अनदेखा कर दिया।

“कैसे मरूँगी मैं? मुझे तो तुम लोगों की सेवा करनी है।”

“यह हुई न बात। हमारा राज्य बनेगा तो तुझे जरूर मिनिस्टर बना देंगे।” सरदार उसे नई नजर से देखा – “तू पढ़ी-लिखी समझदार लड़की है।” विनी उसके विश्वास की पात्र बन गई थी।

रात उसने रोगनजोश पकाया। खूब मसालेदार। कोई महक मुश्क नहीं उन्होंने दारू की बोतलें गले में उड़ेली। छककर खाया। तारीफें की और खाते-खाते ही लंबे हो गए।

विनी थोड़ी देर बर्तन समेटती खटर-पटर करती रही। रोएँ कान बनकर आवाजें टोहते रहे। पुआलों के बिछौनों से पहले गुँगुआती आवाज उठी फिर आक्-आक् उल्टियाँ। विनी ने चार फौलाजी जिस्म ऐंठते देखे। उसके भीतर का हिंसक जीव तृप्त हो गया।

बच्ची को गोद में समेट विनी नंगे पैर भूसा कोठरी से बाहर निकल आई। मन्वंतरों बाद उसकी कब्र का मुँह खुल गया था। सूने आँगन में पल भर खड़े होकर उसने बौने पहाड़ों को सिर उठाकर देखा और देखी दीये की आखिरी लौ, जो भड़कर थरथराई और गुल हो गई। दूर से किसी ने टार्च घुमाया। उन लोगों के लिए कोई संदेश था शायद, वे जबाव न पाकर कोठरी की तरफ आ सकते हैं।

विनी बेतहाशा भागने लगी। दुनिया के आखिरी छोर तक। हवाओं को चीरती। धरती रौंदती। जख्मी और लहुलुहान होती। उसका अभियान सफल हो गया था। शिथिल और संतुष्ट वह मार्तंड के खंडहरों में थम गई।

मुर्गे की पहली बाँग से ध्वस्त मूर्तियाँ जाग उठीं। हड़बड़ाकर विनी ने आँखें खोलीं – “उनका क्या हुआ? टार्च वाले ने उनकी कब्रें खोदीं या भूसा-कोठरी में ही अग्निदाह कर दिया?”

“गुग गू गु” पूर्वी आकाश से उजास फूटा। चिनार के पत्तों के बीच छुपी गुगी ने कुहुककर उसका ध्यान खींचा। विनी कीचड़ से लथपथ देह लिए उठी। वर्षा ने जगह-जगह पानी के ताल बना दिए थे। साफ तलैया के पास पहुँचकर उसने बच्ची को चौड़ी चट्टान पर लिटा दिया और पानी में घुसकर देह से मिट्टी उतारने लगी। बच्ची चट्टान की सख्त स्पर्श पाकर पहले कुनमुनाई, बाद में चीख मारकर रोने लगी। विनी को उसके रुदन की आवाज अनूठी लगी। जैसे पहली बार सुन रही हो। उसने हथेलियाँ भर-भर पानी बच्ची पर उछाला और उसकी ऊँची उठती आवाजों को खंडहरों में गूँजते आसमान को छूते देखती रही। उसके दिल से सारा डर निकल गया।

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आवाज – Aavaj

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