काली बर्फ | चंद्रकांता
काली बर्फ | चंद्रकांता

काली बर्फ | चंद्रकांता – Kali Barph

काली बर्फ | चंद्रकांता

हमारी दादी-नानी जब किसी असंभव अनहोनी की संभावना को समूल उखाड़ना चाहती, तो एक छोटे से वाक्य का सहारा लेकर सभी संबंधित आशंकाओं को निरस्त कर देतीं, “आह! क्रुहुन शीन शीन ष्योमुत जाँह?” कभी काली बर्फ भी पड़ी है? यानी कि अगर आकाश से काली बर्फ गिरे तो इनसानियत को बचाए रखते सारे विश्वास और सभी उम्मीदें अपनी अर्थवत्ता न खो देंगे?

उन्हें विश्वास था कि काली बर्फ कभी नहीं पड़ेगी, क्योंकि उन्होंने कड़ाके की ठंड में भी वादी में सफेद बर्फ के मुलायम फाहे ही गिरते देखे थे। बर्फ भले ही माघ मास में ‘शिशिरगाँठों’ और ‘तुलकतुर’ में जमकर बेइंतहा तकलीफें देती, खैर वह जो स्वभाव है बर्फ का? और उसके साथ जुड़े सृष्टि के आतंक? जो उन्होंने नहीं देखा, उसे मानकर वे अच्छी भली सुकून भरी जिंदगी मुहाल क्यों कर लेतीं?

तब की बात तब, इधर उन विश्वासी बुजुर्गों के कूच करने के बाद कुछ ही समय पहले, एक दिन यह अनहोनी होकर रह गई। आश्चर्य? जी नहीं, इस बीच वक्त कई आश्चर्यों के दौर से गुजर चुका था।

हुआ यों कि जाड़ों को एक सुबह, सोनमर्ग की पहाड़ियाँ चढ़ते कुछ पहाड़ी गड़रियों ने रात गिरी बर्फ पर पैर रखा, तो डर और वहम से पत्थर हो गए। आँखें फाड़कर चौतरफा नजरें दौड़ाई, पहाड़ तो पहाड़, चीड़, देवदार और चिनार की ठूँठ डालियाँ भी स्याह बर्फ की परत से ढक गई थीं। जी हाँ, अनहोनी होकर रही गई थी। काली बर्फ ने पूरी वादी को अपनी चपेट में ले लिया था। प्रलय की संभावना सूँघ लोग बदहवास हो गए, “हे शंभे, रक्षा कर। या अल्लाह, खैर कर।”

बाद में विशेषज्ञ आए। प्रयोगशालाओं से बर्फ की जाँच हुई। निष्कर्ष निकला दूषित वातावरण। उधर युद्ध के दौरान, कुवैत में सद्दाम हुसैन ने तेल के कुओं में आग लगा दी थी। दमघोंट धुआँ दूर-दूर तक फैलकर शफ्फाक बर्फ पर भी कालिख पोतने लगा था। लोग अटकलें लगाने लगे। थोड़ी राहत जरूर हुई कि चलो दैवी प्रकोप तो नहीं है।

उसी वादी के किसी गड्ढे में लेटी एक जवान लड़की भी ठंडी बेलौस आँखों से आसमान के खोखे से झरते काले कहर को एकटक देख रही थी। वह सोच की किन गुफाओं से गुजर रही थी? जानना चाहेंगे?

गड्ढा सा था, या कोई गहरी खाई भी शायद। सख्त पहाड़ों के बीच दर्रा सा। नुकीले पत्थरों से लड़की का जिस्म जगह-जगह छिलकर कट गया था। दीनेश्वर की गुफा का गर्भगृह तो नहीं लगता। लड़की गई थी माँ के साथ एक बार वहाँ। श्रावण पूर्णिमा को शिव के दर्शन होते हैं वहाँ। काकनी ने बेटी को चेताया था ‘गर्भयात्रा से गुजरना है।’ गुफा के भीतर ऊपर नीचे, दाएँ-बाएँ नोकदार पत्थरों वाले तंग रास्ते से खुद को सिकोड़कर बचाना पड़ा था। गर्भयात्रा। अँधेरी कोख से छिलते-छिलते प्रकाश से निकल आना। वैसे ही राहत की साँस ली थी उसने। नीचे घुटनों तक बर्फीले पानी की धार तीखी बर्छियाँ खुभाती जा रही थी। लेकिन वहाँ काली नदी के सिहराते पानी में आधा शरीर डूबा हुआ है। सुन्न बेजान बेहरकल। धुलकर खूब साफ हो गया। धब्बा भर खून भी नहीं दिखाई पड़ता। खुली आँखों के सामने बादलों की मैली परत के नीचे उदास आसमान मुँह ढाँपे सो रहा है। क्या इस पर अब सूरज कभी नहीं उगेगा? प्रलय! शायद प्रलय ही है। पानी, हवा और काला कहर। इतना मैला आसमान कभी देखा हो, लड़की को याद नहीं आता। मस्तिष्क बेजान मांस का लोथड़ा सा है। वह कुछ नहीं सोच पाती। कैसे पहुँची वह इस गहरी खंदक में?

लड़की पर नींद की खुमारी सी छाई है। नींद में ही कुछ चित्र दिखाई पड़ रहे हैं। बेतरतीब रील-दर-रील। एक ऊँचा पहाड़ हरा या नीला। लंबे चीड़ों से ढका। हरी पोशाक वाले उस पहाड़ के दामन में दूर-दूर तक फैले मक्का के खेथ। वह शमा के साथ वहाँ जा रही है। ढेर सारे भुट्टे तोड़कर लाती है। शमा टोकरी के ऊपर जरा सी लकड़ियाँ रखकर भुट्टे छिपा देती है। उसे तो बस भुट्टे चाहिए। लेकिन लड़की बावली सी ऊँचे उठते पहाड़ों को देखती रह जाती है। “क्या होगा वहाँ? जंगल की गहराइयों के बीच?”

उसने बाबा से एक बार पूछा, तो बेबात डाँट खाई – ‘उधर न जाया कर परमी। उस घने जंगल में बाघ रहता है। खा जाएगा कभी।’

बाघ! बाबा डराते। पर डर शब्द तो परमी के शब्दकोश में था ही नहीं। वह उत्सुक हो उठती। क्या वह बाघ देख पाएगी कभी। सचमुच का। जंगल में बेधड़क घूमता हुआ। पिंजरे में बंद बाघ तो उसे जंजीर में बँधा कुत्ता जैसे बेबस लगता है।

एक शाम उसने शमा से पूछा था – ‘तूने देखा है बाघ कभी?’

‘मैंने? बाघ? नाम न ले परमी। हम तो शाम को न साँप का नाम लेते हैं और न बाघ का।’

‘अच्छा, नहीं लेती नाम। मेरी काकनी भी यही कहती है। अपशकुन होता है। पर तूने कभी जंगल में देखा है उसे? बता तो।’

परमी की उत्सुकता का कोई ओर-छोर नहीं। ‘ना बी, मैंने नहीं देखा। देख लेती, तो आज जिंदा होती? वह मुझे चीरकर मेरा खून न पी गया होता।’

‘तू बड़ी डरपोक है।’ परमी हँस देती, ‘मेरा मन करता है, एक दिन रात को खूब सा अलाव जलाकर बैठूँ उस जंगल के बीच। बाघ आएगा भी तो, आग के डर से झपटने की हिम्मत नहीं करेगा। कैसे बेचारा लगेगा। बाघ को चिढ़ाने में कितना मजा आएगा।’

‘तू चिढ़ाएगी बाघ को? आह! बाघ न हुआ खरगोश हो गया। दिमाग चल गया है तेरा। अलाव जलाकर जंगल में बैठेगी? तेरे बाबा सुनेंगे तो तेरा घर से बाहर निकलना बंद कर देंगे।’

पर बाबा जल्दी ही उसे छोड़कर दूसरी दुनिया के लिए प्रस्थान कर गए। उसका घर से निकलना बंद नहीं हुआ।

लेकिन उसने बाघ देखे थे। उनके लंबे-लंबे नख और तीखे दाँत अपने जिस्म में खुभते महसूस किए थे। उसने भी कम नोच-खसोट नहीं की। पूरा मुँह छील दिया था एक का। उस वक्त उसके भीतर से लावा फूट पड़ा था, नीला-लाल उबलता लावा। जब तक उसके हाथ लटककर बेजान न हो गए और सिर पत्थर से टकराकर बेहोशी न छा गई, उसने अपने सभी हथियारों का इस्तेमाल किया। वह हारना सीखी ही कहाँ थी? लेकिन वह अकेली थी और बाघ झुंड में आ गए थे। उसे कुछ-कुछ याद आ रहा था धुँधला सा। वह चक्रेश्वा जाना चाहती थी। मनौती के धागे की गाँठ खोली थी।

माँ ने सचमुच परमी को अतलस की तह में लपेट-सँजोकर पाला। उसकी हर इच्छा, हर जिद पूरी की। गाँव से बाहर आकर बस गई। परमी तो पढ़ाई करना चाहती थी। वह डाक्टर बनना चाहती थी, पर पिता बीच राह छोड़कर गुजर गए। माँ ने दिलासा दिया। नर्स की ट्रेनिंग करवाई। डॉक्टर की पढ़ाई के लिए बड़े खर्च करने की कूवत उसमें न थी, यह तो परमी भी जानती थी।

परमी नर्स बन गई, लेकिन क्या डॉक्टरों से कम इज्जत पाई। मान, प्रसिद्धि और स्पर्श में गजब की राहत! हीलिंग टच! नरेंद्र कहता था, ‘तेरे हाथों में कोई जादू है, परमी! जरा सा छू दे, तो जले पर बर्फ का सा सुकूनदेह एहसास होता है।’

सर्जन डॉ. सलमा ऑपरेशन के वक्त उसे हमेशा अपने साथ रखती, ‘तुम्हारे बिना मेरा काम चलने वाला नहीं, परमी।’

परमी उसके साथ रहकर छोटे-मोटे आपरेशन करना सीख गई। औरतें बच्चे जनने आतीं, तो उसकी माएँ परमी की मनुहार करती – ‘हमारी बच्ची के साथ रहना सिस्टर। तुम्हारे हाथ में शफा है। अल्लाहताला की मेहर है तुम पर! बेटी को तुम्हें देख राहत मिलेगी।’

माँ बनने के नए नकोर अनुभव से गुजरती बहू-बेटियाँ जिस्म के कोरेपन की दर्दनाक छीछालेदर से त्रस्त, चीखती, छटपटाती उससे लिपट जाती। भोज्य हब चख कहकर बार-बार उसे माँ की जगह देती। पहले-पहले उसे अजीब-सा लगता। बीसेक साल की कुँवारी परमी, तीस-पैंतीस साल की औरतों की माँ। उलझन में कपोल दहक उठते। पर धीरे-धीरे वह अपने पेशे से एकात्म होती गई। अपनी लंबी-पतली उँगलियों से दर्द झेलती नवेलियों के पसीने पोंछती। वह सचमुच उनकी माँ बनकर उन्हें तसल्ली देती, पीठ, पैर मलती। नन्हें बच्चों के होठ माँओं की कोरी छातियों से छुआती, दूध पिलाने के सही ढंग सिखाती। वह शायद नानी, दादी की जगह पर भी बैठ जाती – इस तरह ऐसे, बच्चे का सिर थोड़ा ऊँचा, कहीं धसका न लग जाए।

सब ठीक चल रहा था। परमी को भी किसी से कोई शिकायत न थी। जल्दी ही नरेंद्र से उसकी शादी भी होने वाली थी, पर इसी बीच हालात बदल गए। वादी के आसमान पर जो काले बादल काफी दिनों से इकट्ठा हो रहे थे, अचानक कहर बनकर बरस पड़े। किसी ने काले मेघ के छितरे टुकड़ों पर कभी गौर ही नहीं किया। सोचा भी नहीं कि इकट्ठा होकर वे सदियों की मजबूत इमारतों को पलक झपकते तहस-नहस कर देंगे। पर हुआ कुछ वैसा ही। राजाओं के जोड़-घटाव भी गलत साबित हो गए। प्रजा को बाढ़ में बहना ही था। लोगों ने सैलाब में छटपटाकर उबरने की कोशिश की और किनारों की कच्ची-पक्की मेड़ें, पेड़ों के ठूँठ जकड़ लिए। कुछ बह गए और कुछ उबरे परमी के चाचे-ताये लोगों के हुजूम के पीछे घर-द्वार छोड़कर पहाड़ों के पार, मैदानी इलाकों में आसरा ढूँढ़ने चले गए।

चारों ओर आँधी उठी कि सदियों वाले विश्वास चरमराकर ढह गए। माँ, बहन, बेटी सहज एक लावारिस औरत रह गई, एक भोग्या! दीन धर्म की आड़ इनसानियत का खून हो गया। कुछ कठपुतलियों की हथियारों से लैस कर दुश्मन सियासत ने दो भाइयों के बीच दरार डाल दी। माँ ने परमी से कहा, ‘अब यहाँ से चलो, कहीं देर न हो जाए।’

परमी ने माँ के डर को नाक पर बैठी मक्खी सा हटा दया – ‘कहीं नहीं जाएँगे हम, तू डरा मत कर। सभी हमारे अपने हैं यहाँ। शमा, अजहर के रहते हम बेघर कैसे हो सकते हैं? फर हमने किसी का कुछ बिगाड़ा तो नहीं है।’

माँ ने दलीलें दीं, ‘लीला, रैना का क्या हुआ, अवतार कौल की रजनी तो कालेज से घर लौट रही थी उसने किसी का क्या बिगाड़ा था। सवारनंद की बहू जया तो पड़ोस में सब्जी लेने निकली थी, उनका हश्र तुमसे छिपा नहीं है। हमारे घर में तो कोई मर्द भी नहीं है।’

लेकिन परमी को विश्वास था खुद पर। परमी एक नर्स है। रात को भी पेशेंट घर आए या बीमार के घर जाना पड़े, तो किसी को निराश नहीं करती। तभी तो दहशत के दिनों में भी वह अकेली नहीं रही। हथियारों की भाषा में बात करने वालों ने उसे अभयदान दे दिया, ‘हमारे रहते तुम्हें क्या डर आया? तुम हमारे लड़कों की जान बचाओ, हम तुम्हारी जान बचाएँगे। मजाल है कोई तुम्हें मैली नजर से देखे।’

परमी की आत्मीयता की डोर में बँधे उन गैरों पर भी तो भरोसा था जो पिता के गुजरने पर उसे चाचे और भाई बन गए थे। घर में मर्द की कमी तो उसने महसूस ही नहीं की।

लेकिन माँ की आत्मा में डर बैठ गया था, कुंडली मारे। बेटी उसे निकाल न सकी। माँ ने बेटी की जिद पर माथा पीटा। इतना हठ? तभी उसे लगा कि कहीं कुछ गलत हुआ है। मनौती की गाँठ कहीं अभी भी बँधी पड़ी है। इसी से लड़की चौतरफा के हालात देखकर भी जिद ठाने बैठी है।

परमी, माँ जैसी सहज विश्वासी नहीं है, पर वह माँ के विश्वासों को चुनौती नहीं देती। माँ का मन रखने के लिए ही उसने कहा था, ‘कल शमा जाएगी दरगाह, अजहर के साथ। मैं भी उनके साथ चली जाऊँगी। चक्रेश्वर मंदिर में माथा नवाऊँगी। तेरी मनौती की गाँठ भी ढूँढ़ूँगी। तू मुझे बता किधर बाँधी थी? रंग-रूप जगह सब बता। कुछ याद तो होता तुझे?’

लेकिन माँ आश्वस्त नहीं हुई थी। अस्पताल तक जाना तो मजबूरी थी, पर उससे बाहर जाना तो मौत के मुँह में कदम रखना था। माँ के विश्वास भी तो ढह गए थे। जिस दिन नरेंद्र के दरवाजे पर दूसरी बार घर छोड़ने का रुक्का चिपका मिला, उसका धैर्य जवाब दे गया था। उस दिन पहली बार माँ ने अजहर के सामने दामन फैलाया, ‘बेटा, तू कुछ कर! कह दे उनसे नरेंद्र को तंग न करें। वह चला जाएगा, तो हमारा क्या होगा? अगले महीने तो परमी की शादी होनी है। नरेंद्र जाएगा, तो सब बिखर जाएगा।’ एक ही आसरा तो बचा था माँ के पास।

अजहर ने दिलासा दिया था। सरदार गुलमुहम्मद से बात भी की नरेंद्र के बारे में। गुलमुहम्मद आभारी था परमी का। वह उसके जख्मी जंगजुओं को बिना सवाल पूछे मरहम-पट्टी करती थी। घर पर भी देखा करती थी। अस्पताल में तो सी.आर.पी.एफ. के जवान शिकार की तलाश में घूमते रहते। परमी लड़कों का पूरा ध्यान रखती, अपने पेशे को उसने सियासत से दूर रखा।

चार-चार मास के भ्रूण लिए कुँआरी लड़कियों को माँ की तरह दिलासे देती। उन्हें अपमान की जिल्लत से मुक्त कर देती – ‘इसमें तुम्हारा क्या कसूर, सलमा? समझो एक खौफनाक हादसा होकर गुजर गया। नूरी! रोने से हालात बदल नहीं जाएँगे, हौसला रखो। पाकीजगी तो मन की होती है। वक्त के कहर पर हमारा क्या जोर?’ जया, बीना, लता कितनी मासूम लड़कियों की जिंदगी मौत का स्यापा बन गई, लेकिन परमी साएदार चिनार बनकर उनके तहकते तन-मन को थपकाती रही। उसका काम तो जख्मों पर मरहम लगाना था।

लेकिन दुश्मन कई गुटों में बँट गए थे। अगली बार दूसरे गुट ने नरेंद्र को धमकी दी ‘जान प्यारी है, तो यहाँ से चले जाओ और अपनी महबूबा को हमारे लिए छोड़ दो।’ तब नरेंद्र ने परमी काकनी से भी साथ चलने के लिए मिन्नतें कीं, पर वे लोग जा नहीं पाईं। गुलमुहम्मद के लड़के घर के बाहर पहरा दिए बैठे थे। वे लोग उसे खोना नहीं चाहते थे। परमी ने नरेंद्र का डरा हुआ स्याह चेहरा देखा। उसकी कातर आँखें परमी का कलेजा चीर गईं, पर वह सिर्फ कुछ शब्द ही कह पाई – ‘तुम चिंता मत करना, हम यहाँ सुरक्षित हैं। सब ठीक हो जाएगा, तुम जल्दी अपने घर लौट आओगे।’

तब तक काकनी सभी प्रार्थनाएँ भूल गई है। उनके मन में वहम घर कर गया है कि उसके सभी देवी-देवता सो गए हैं, उन्हें वह कभी जगा नहीं पाएगी। वह बौराई सी बेटी के सायों की रखवाली करती है। चारो ओर कलिशनिकोव, ए.के. 47 के धमाके और बम फटने की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। इन सदाओं से उनके कान बहरे हो गए हैं। घर के पेड़ों के पाँखी भी इन आवाजों के डर के किसी खोह में छिपे बैठे हैं। घर की ‘काकपट्टी’ पर सुबह का रखा भात शाम तक अकड़ जाता है। कोई कौटा भी उसे खाने नहीं निकलता।

सुन्न होती परमी आकाश में किसी पाँखों को ढूँढ़ रही है। कोई भी पंछी, कुकिल, पोशनूल न सही, कोई भटकी हुई मैना, कोई थकी-हारी चिड़िया। लेकिन वहाँ सिर्फ कुहासा है। झर-झर झरता कुहासा। आह! अधमरी काकनी इस कुहासे को देखकर पूर मर जाएगी। वह तो मानकर चली थी कि काली बर्फ कभी नहीं पड़ती।

उसने बंद आँखों से माँ को देखा। घरे कुहरे को देखती अंधी हो रही काकनी! लोहे के जंगलों पर सिर पटकती, लहुलुहान, किसे ढूँढ़ती है काकनी? तेरे आँगन की चिड़िया तो आसमान के खोखे में समा गई। काली खोह में बंद हो गई। उसने तेरी बात नहीं मानी। तूने कहा था, ‘टैंटों में रहेंगे, पर आबरू तो बचा लेंगे, लेकिन उसे बेघर जीना मंजूर नहीं था। उसे भरोसा था, हालात ठीक हो जाएँगे। फिर सभी तो उसके अपने थे।’

काकनी का स्यापा खत्म नहीं होता। एक-एक कर घर छोड़कर चले जाते। रिश्ते-नातेदार को वह छाती पीट-पीटकर विदा करती है।

‘गए तुम भी? कब देखूँगी तुम्हें, आँखें पथरा जाएँगी, प्राण निकल जाएँगे, इस देह को आग कौन देगा?’

‘आग! आग के लिए इतना स्यापा? मरके भी तुझे देह की सद्गति की चिंता रहेगी काकनी? मरे को चील-कौए खाकर तृप्त होंगे। लाशों के लिए क्या चिंता?’

‘तू नहीं जानती परमी! मरी देह का भी एक धर्म होता है। माँ शारिका, मेरा धर्म बचाना!’

लेकिन माँ शारिका अपना थान छोड़कर चली गई हैं। देवद्वार सूने पड़े हैं। खीर भवानी के कुंड का रंग काला स्याह हो गया है।

‘तुम किसलिए रुकी हो परमी?’ माँ की आँखों में एक ही सवाल ठहर गया है। किसलिए? अब और क्या देखना बाकी है?’

‘सब हमारे अपने हैं माँ! देखती नहीं? आए दिन कर्फ्यू में तुझे कभी राशन-सब्जी की तंगी हुई अजहर के रहते? तेरा अपना कोई बेटा होता, तो इससे ज्यादा तेरी चिंता करता?’

‘हुम्म!’ भात का कौर माँ के गले में अटकता है। धसका लगा है शायद! सामने सूने घर कपाट बंद किए सहमे-सहमे खड़े हैं। माँ नजर हटा लेती हैं।

धड़ाम… धम्म… ठ… ठ… क… ठठाक… ।

बाहर कोई बम फटा है, गोलियाँ भी चली हैं। सहमे घर काँप गए हैं।

‘कौन है? परमी, आ रहे हैं वे, उठ मत। खिड़की मत खोल। किसने अँधेरे की छाती छलनी कर दी? परमी माँ को पानी का गिलास थमाती है। हाथ हल्के से काँप जाता है।’ ‘सो जाओ माँ, इधर कोई नहीं आएगा। हमने किसी का क्या बिगाड़ा है?’

वह अपने आप से प्रश्न करती है या भीतर उगते भय को प्रश्नों की चुनौती देती है? जानती है, कोई कानून नहीं रहा। जो भी है, बंदूक को नोक पर टिका है, कानून व्यवस्था, कानून, रोजमर्रा के दंद-फंद, साँसों को बेकरार रखने की शर्तें।

बदलते हालात में परमी की ड्यूटी मैटरिनटी वार्ड के अलावा आपातकालीन विंग में भी लग गई। तब से जख्म धोते, मरहम-पट्टियाँ करते अक्सर वह ओवरटाइम करती रही है। गुमराह जवानों के खून और पसीने से विकृत चेहरों को साफ करती कराहती नसों पर शफा का हाथ फेरती। कुछ वैसा ही स्पर्श उसने भी चाहा था। शफा का छुअ, जब खून और मैल से लिथड़ी वह युद्ध क्षेत्र में बिखरी पड़ी थी, थकी-हारी, जहाँ न कोई आदमी था, न आदमजात। सिर्फ बाघों का झुंड। लहलहाती फसलों को रौंदते जानवर, आखिरी लोथ पर झपटने को आतुर। कैसा लगा होगा लड़की को तब?

क्या पता, लड़की तब अपने शरीर के एहसास से मुक्त हो गई हो और योगमाया से अपने से बाहर आकर खुद को दूर से देखने लगी हो? हारी पर्वत के दामन ने दरगाह से कुछ कदम दूर सेबों के पास बदरंग आसमान के नीचे उजाड़ धरती की तरह फैली।

मनौती, माँ ने मनौती माँगी थी। राजा के आँगन में, पीर के आस्ती में। परमी ने भी शायद कोई मनौती माँगी हो, पानी के सैलाब में छटपटाते किनारे कोई खूँटा, कोई कटे पेड़ का ठूँठ, कोई नरकुल शैवाल पकड़ने की कोशिश की हो। किसी खुदा, किसी भगवान को पुकारा हो।

उसने एक चेहरा पहचान लिया था। उस पर झुका एक खूँखार चेहरा। जिसके जख्म साफ करते उसने कहा था, ‘ठीक हो जाओ, तो पीर बाबा का नियाज ले जाना। उसने तुम्हारी जान बख्श दी है।’

‘हाँ, शायद हल्की भूरी आँखें, फ्रेंचकट दाढ़ी, नाक के ऊपर ताजा घाव का निशान। परमी ने उस चेहरे की पीड़ा की ऐठन को अपनी चुन्नी के छोर से सहलाया था। वही अफजल! जिसे दूरदर्शन पर लाखों लोगों ने सवालों के जवाब देते सुना था।’

जिस दुनिया में हम जी रहे हैं, वहाँ कोई माँ नहीं, कोई बाप नहीं। सिर्फ हुकुम की तामील है, वही दीन, वही धर्म है। आँख उठाकर सवाल करने की इजाजत नहीं।’

परमी का धर्म? दोस्त, दुश्मन दोनों को सहारा देना।

वही परमी के राहत देते हाथ मरोड़ रहा था – ‘क्या कहा था तूने? बेदीन हैं हम? और क्या कहा था जेबा से? तू किस पुलिस से पकड़वाती हमें? बुला तो, अब अपनी पुलिस को? अपने यार को, हम रचा देंगे तेरी शादी।’

उस दिन अस्पताल इमरजेंसी केसों से अटा पड़ा था। सोलह साल की लड़की का भ्रूण साफ करते उसने नर्स जेबा से गुस्से में भरकर कहा था – ‘बहुत गलत काम कर रहे हैं लड़के। सिर फिर गया है। क्या दीन यही सिखाता है? – परमी अपने पर काबू नहीं पा सकी थी उस दिन। पहली बार मुँह खोलकर गलत को गलत कहा था।’

शमा ने सुना तो परमी को डाँटा, ‘तू इतनी सीधी क्यों है, परमी? वक्त पर अब ऐतबार नहीं। जेबा पर तो बिल्कुल नहीं। अपनी सलामती की कुछ फिक्र किया कर।’

परमी हँसकर टाल गई। उसने खरी बात कही है उसे क्या डर? शमा हमेशा से डरपोक लड़की रही है।

‘नहीं परमी, आजकल अजहर बहुत परेशान है। उसके कई दोस्त अलग-अलग गुटों में शामिल हो गए हैं। वह कब तक बचा रहेगा? उसे कोई बचने देगा भी नहीं।’

‘सब ठीक हो जाएगा,’ परमी ने सहेली को तसल्ली दी। उम्मीद, परमी के पेशे ने उम्मीदें देना ही सीखा है। साँस की आखिरी उठान तक। ‘हम लोग दरगाह जाएँगे। मस्जिद की चौखट पर माथा नवाएँगे। मैं भी बड़े दिनों से हारी पर्वत नहीं गई – बड़ा मन है।’

उस वक्त नरेंद्र का उदास चेहरा जेहन में कौंधा था। कैसा होगा? सूना नगरोटा के पास शिविर में रहता है। बेघर, अकेला। मन तो परमी के पास छोड़ गया था। यहीं अपनी पुरखों की माटी के पास।

काकनी ने सहम भरी नजरों से अपनी बेटी को देखा था। अजहर ने जीप स्टार्ट करते वक्त कहा – ‘फिक्र मत कर काकनी, हम हैं न?’

जीप की रफ्तार में तीखी हवा दम घुटा रही थी। तीखी बर्छियों सी ठंड फिरन के भीतर घुसी जा रही थी। दोनों लड़कियों ने दुपट्टों से सिर कसकर ढक लिए थे। कान, माथा, मुँह सब। सिर्फ आँखों के जोड़े और नाक की नोक दुपट्टे के बीच में झाँक रहे थे। शहर खामोश था। जगह-जगह पुलिस और रेत के बोरे।

हारी पर्वत की पहाड़ी पर चक्रेश्वर का मंदिर दूर से दिखाई दे रहा था। मंदिर के शिखर पर फहराता ध्वज, और नीचे दामन के मस्जिद की ऊँची सी नक्काशीदारी इमारत। अकबर बादशाह के सर्वधर्म समभाव का अद्भुत नमूना। मंदिर-मस्जिद एक साथ। क्या सोचकर बनाया होगा? जब धर्म के नाम पर सिर फुटौव्वल होंगी, तो सभी अपने-अपने अल्लाह-ईश्वर को एक जगह याद कर अपनी भूलों का प्रायश्चित करेंगे? अकबर बादशाह, आकर देख लो। हालात के मोड़ ने तुझे गलत साबित कर दिया।

अचानक भूचाल सा झटका सा लगा। जीप के आगे, बीच रास्ते रायफल-पिस्तौल से लैस चार युवकों ने अजहर को रोक लिया। अजहर ने किनारे के खेतों से जीप निकालने से लिए स्टेयरिंग मोड़ दी। पर तभी धमाका हुआ। जीप घिसटकर एक तरफ रुक गई। शायद उन्होंने टायर पंचर कर दिया था।

फिर आसमान से कहर बरस गया। धरती डोलने लगी। किसी ने अजहर के सिर पर रायफल के कुंदे से वार किया। वह चीख मार वहीं जीप के पास ही लुढ़क गया। दोनों लड़कियाँ, जो आखिरी उम्मीद की तरह उससे चिपट गई थीं, उन्हें खींचकर अलग कर दिया गया।

वे अलग-अलग दिशाओं में घसीटी गई। एक दूसरे को दूसरे की खबर नहीं रही सिर्फ चीखें हवाओं को चीरती गईँ।

‘शमा।’

‘परमी’।

आर्त ध्वनियाँ कुछ देर हवा में गूँजी, फिर विलीन हो गई। पता नहीं पुलिस के कानों तक पहुँची कि नहीं।

परमी ने बाघ देखे। एक साथ कई बाघ। शिकार नोंचते। वह लड़ती रही, जब तक कि पंजों और लातों के हथियार भोथरे न हो गए। टूटती हड्डियाँ और चटखती नसों की दहशत देखती रही। खुद से अलग होकर। तब उसने देखा, चक्रेश्वर मंदिर का पुजारी रस्सियों से बँधा पड़ा है और देवी थान से गायब हैं। परमी ने छाती को फटते देखा। जहाँ ठंडे पानी के सोते उस पर शफा का हाथ फेरा! आह! हब्बा खातून का ठंडा चश्मा। पाक पवित्र थान! नापाक लहू धुल-पुँछ गया। हवाओं ने माथे का पसीना पोंछ दिया, उसी तरह, जिस तरह वह जख्मियों की पीड़ा पोंछ देती थी। परमी को लगा, किसी ने उसकी अनावृत देह को सफेद चादर से ढककर इज्जत दी। क्या अजहर उस तक पहुँच गया? अचानक उसे मस्जिद की अजान के साथ सूने चक्रेश्वर मंदिर की घंटियाँ बजती सुनाई पड़ीं। अरे! नरेंद्र वापस घर लौट रहा है? ढेर सारे नाते-रिश्तेदार जवाहर टनल के भीतर से वादी में अपने घरों की तरफ लौट रहे हैं। परमी जानती थी, सब ठीक हो जाएगा।

परमी हवा में रुई के फाहे-सी उड़ने लगी है, हलकी बेहद।

परमी की आँखों में दीये की आखिरी लौ काँपी। शायद अजहर और शमा को उन्होंने छोड़ दिया हो, दीन का लिहाज करके। आखिर वे लोग दीन के लिए जिहाद कर रहे थे। कम-से-कम जिंदा काकनी को तो कोई अंधी कब्र से बाहर निकाल लेगा। लेकिन परमी नहीं जानती थी कुछ ही दूर पर मनौती वाले पत्थर की ओट, शमा भी उसी की तरह लहुलुहान पड़ी है। उसने भी आखिरी चीख से पहले यह उम्मीद की है कि उन्होंने परमी को छोड़ दिया होगा, वह जो उनके जख्मों का इलाज करती थी, उन्हें उसकी जरूरत थी।

लेकिन सभी सोच गलत हो गए, क्योंकि काली बर्फ ने सभी उम्मीदों, सभी विश्वासों को काले लबादे से ढक दिया था।

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काली बर्फ – Kali Barph

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